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फिल्मों में झलकी ईरान-इराक की अशांत स्थिति

असाधारण परिस्थितियों से जूझ रहे आम लोगों की कहानियां साझा

इफ्फी मंच पर ईरान और इराक के फिल्म निर्माताओं की बातचीत

स्वतंत्र आवाज़ डॉट कॉम

Thursday 27 November 2025 02:22:56 PM

iranian and iraqi filmmakers interact at iffi stage

पणजी। भारतीय अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव (आईएफएफआई) में अशांत इतिहास वाले दो देश ईरान और इराक राजनीतिक दबावों से उपजी दो फ़िल्में और एक समान विश्वास से एकजुट दो टीमें अपने-अपने देशों के भावनात्मक मानचित्रण को चित्रित करने केलिए व्यक्तिगत स्मृतियों को सामूहिक ज़ख्मों से जोड़ते हुए एकसाथ आईं। ईरान और इराक के फिल्म निर्माताओं ने एकसाथ मंच साझा किया और असाधारण परिस्थितियों से जूझ रहे आम लोगों की कहानियां साझा की। ईरानी फीचर फिल्म 'माई डॉटर्स हेयर (राहा)' का प्रतिनिधित्व करते हुए फिल्म के निर्देशक सैयद हेसम फरहमंद जू और निर्माता सईद खानिनामाघी इस बातचीत में शामिल हुए। यह फिल्म आईएफएफआई में 'निर्देशक की सर्वश्रेष्ठ पहली फीचर फिल्म' श्रेणीमें प्रतिस्पर्धा कर रही है। आईसीएफटी यूनेस्को गांधी पदक केलिए प्रतिस्पर्धा कर रही इराक की फिल्म 'द प्रेसिडेंट्स केक' के संपादक एलेक्ज़ेंड्रो राडू राडू ने फिल्म के अनूठे रूप और तानाशाही के दौरमें जीवन के उसके स्पष्ट चित्रण की बात की।
सैयद हेसम फरहमंद जू ने बतायाकि 'माई डॉटर्स हेयर' उनके अपने जीवन के अनुभवों से उपजी है, वे अपने देश की महिलाओं की स्थिति को चित्रित करना चाहते थे। उन्होंने बतायाकि कैसे राहा की कहानी, जो लैपटॉप केलिए अपने बाल बेचती है, आर्थिक तंगी से जूझ रही अनगिनत महिलाओं के मौन त्याग को दर्शाती है। सईद खानिनामाघी ने कहाकि हालके अंतर्राष्ट्रीय प्रतिबंधों ने ईरान में जीवनस्तर को तेज़ी से खराब कर दिया है। उन्होंने कहाकि लोगों की आर्थिक स्थिति खराब हो रही है, मध्यम वर्ग गरीब होता जा रहा है। सईद खानिनामाघी ने कहाकि हमारी फिल्म में एक लैपटॉप की वजह से एक परिवार की पूरी अर्थव्यवस्था चौपट हो जाती है, हमारे समाज में ठीक यही हो रहा है। फिल्म की दृश्य भाषा के बारेमें पूछे जाने पर सैयद हेसम फरहमंद जू ने मज़दूर वर्ग की कहानियों पर अक्सर थोपे जानेवाले नीरस गरीबी के सौंदर्यबोध को नकार दिया। उन्होंने कहाकि वे चाहते थेकि फ्रेम बिल्कुल ज़िंदगी जैसे दिखें, गरीब परिवारों के भी रंगीन और खुशनुमा पल होते हैं, वे हंसते हैं, जश्न मनाते हैं, अपनी ज़िंदगी में रंग भरते हैं, मैं अपने फ्रेम के सौंदर्यबोध के ज़रिए उस सच्चाई को दिखाना चाहता था।
सैयद हेसम फरहमंद जू ने सामाजिक जड़ों से जुड़ी कहानियों को व्यावसायिक सिनेमा में लाने की इच्छा के बारेमें भी बात की। उन्होंने कहाकि पहले इन फिल्मों को व्यावसायिक नहीं माना जाता था, मैं इसे बदलना चाहता हूं। उन्होंने इशारा कियाकि उनकी अगली फिल्म भी इसी दर्शन पर आधारित है। सईद खानिनामाघी ने ईरानी सिनेमा के वर्तमान परिदृश्य पर कहाकि फ़िल्म निर्माता सीमाओं को लांघ रहे हैं, फिरभी उनका फ़िल्म उद्योग सेंसरशिप से जूझ रहा है। उन्होंने कहाकि फ़िल्मों के कुछ हिस्से काट दिए जाते हैं, जिसके कारण दर्शकों को पूरी कहानी समझने में मुश्किल होती है। डर में जन्मी एक परीकथा 1990 के दशक के इराक की बात करते हुए एलेक्ज़ैंड्रू-राडू राडू ने 'द प्रेसिडेंट्स केक' को सड़क पर रहने वाले कलाकारों के अभिनय पर आधारित फ़िल्म बताया। सभी कलाकार गैर पेशेवर हैं, जिन्हें रोज़मर्रा की ज़िंदगी से चुना गया है, जो फ़िल्म को एक विशिष्ट तात्कालिकता प्रदान करता है। राडू ने बतायाकि फिल्म इस बातपर केंद्रित हैकि कैसे प्रतिबंध और सत्तावादी शासन निम्न वर्ग को कुचलते हैं। उन्होंने कहाकि जब ऐसी घटनाएं होती हैं तो तानाशाह नहीं, बल्कि जनता को कष्ट होता है।
सईद खानिनामाघी ने बतायाकि कैसे फिल्म की कहानी एक तानाशाह द्वारा नागरिकों को अपना जन्मदिन मनाने केलिए मजबूर करने से प्रेरित है। सद्दाम हुसैन केलिए केक बनाने का काम सौंपे जानेवाली एक छोटी लड़की लामिया की कहानी बेतुकेपन और हकीकत केबीच झूलती है। उन्होंने कहाकि निर्देशक हसन हादी ने इस कहानी को एक परीकथा की तरह देखा था। राडू ने बतायाकि हसन चाहते थेकि लामिया इराक का प्रतीक बने, उसके साथ जो कुछभी हो रहा है, वह देश में हो रही हर घटना को दर्शाता है। राडू ने इराक के युवा और उभरते फिल्म उद्योग के बारेमें बात करते हुए कहाकि ईरान के विपरीत इराक में कोई समृद्ध फिल्म परंपरा नहीं है। 'द प्रेसिडेंट्स केक' इराक की पहली आर्ट हाउस फिल्म है। हसन जैसे निर्देशक अब उस उद्योग का निर्माण कर रहे हैं। अलग-अलग देशों और सिनेमाई परंपराओं से आनेके बावजूद दोनों फिल्में एक जैसी सच्चाइयों को दर्शाती हैं, प्रतिबंधों का बोझ, आम लोगों की सुगमता और राजनीतिक दबाव में रोज़मर्रा की गरिमा की बातचीत। यह बातचीत तेहरान से बगदाद तक फैले एक पुल की तरह लगी, जो राजनीति से नहीं, बल्कि कहानी कहने से बना है।

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