मुनिन बरुआ की फिल्मों ने दी कहानी की शैली को नई परिभाषा
डॉ भूपेन हजारिका को सिनेमाई श्रद्धांजलि 'पत्रलेखा' का अनावरणस्वतंत्र आवाज़ डॉट कॉम
Thursday 27 November 2025 01:53:51 PM
पणजी। असमिया सिनेमा ने भारतीय अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव (इफ्फी) में अपनी चमक बिखेरी, जब दो शानदार फिल्म 'भाईमॉन दा' (फीचर फिल्म) और 'पत्रलेखा' (गैर-फीचर लघु फिल्म) की टीमों ने प्रेस कॉफ्रेंस में दर्शकों के सामने अपनी रचनात्मक यात्रा का वर्णन किया। असम की ये सांस्कृतिक फ़िल्में दो महान कला दिग्गज असमिया सिनेमा के भाईमॉन दा, मुनिन बरुआ और संगीतज्ञ डॉ भूपेन हजारिका को भावभीनी श्रद्धांजलि थी। इनकी कहानियों, दृश्यों और प्रस्तुत भावनाओं में झलकती विरासत ने इफ्फी में असम की चिरस्थायी रचनात्मक भावना का उत्सव बना दिया। निर्देशक शशांक समीर ने प्रतिष्ठित असमिया फिल्म निर्माता मुनिन बरुआ, जिन्हें प्यार से भाईमॉन दा कहा जाता है पर आधारित पहली व्यावसायिक बायोपिक 'भाईमॉन दा' प्रस्तुत की। असमिया सिनेमा की प्रतिष्ठित हस्ती मुनिन बरुआ की फिल्मों ने इस क्षेत्रमें मुख्यधारा की कहानी कहने की शैली को नई परिभाषा दी और दर्शकों की पीढ़ियों पर अपनी अमिट छाप छोड़ी।
मुनिन बरुआ की साधारण शुरुआत से सिनेमाई सफ़र को बयान करती यह फ़िल्म उनके संघर्षों, रचनात्मक विकास और बीजू फुकन, मृदुला बरुआ, ज़ुबीन गर्ग और जतिन बोरा जैसे दिग्गजों वाली उनकी पसंदीदा फ़िल्मों के पर्दे के पीछे के पलों को फिरसे दिखाती है। अपने पुराने ज़माने के आकर्षण और भावनात्मक गहराई केसाथ ‘भाईमॉन दा’ उस शख़्स और स्वर्णिम विरासत का सम्मान करती है, जिसे बनाने में उन्होंने योगदान दिया। शशांक समीर ने फिल्म निर्माण प्रक्रिया के बारेमें कहाकि मुनिन बरुआ ने अपना पूरा जीवन असमिया सिनेमा को समर्पित कर दिया, उनके जुनून सपनों और बलिदान ने हमारी फिल्म संस्कृति को आकार दिया। उन्होंने कहाकि मैं न केवल उनके फिल्मी सफ़र, बल्कि हमारे सिनेमाई इतिहास के 90 साल की भावना को भी कैद करना चाहता था। शशांक समीर ने कहाकि यह फ़िल्म लगभग पांच वर्ष के शोध और विकास का परिणाम है, जिसमें व्यापक अभिलेखीय कार्य, साक्षात्कार और राज्यव्यापी यात्राएं हैं। उन्होंने कहाकि फिल्म भाईमॉन दा 120 से ज़्यादा शूटिंग स्थलों और 360 कलाकारों केसाथ असमिया फ़िल्म इतिहास की सबसे महत्वाकांक्षी प्रस्तुतियों में से एक है।
शशांक समीर ने कहाकि यह सिर्फ़ एक बायोपिक नहीं है, यह उन सभी कलाकारों, तकनीशियनों और दर्शकों को समर्पित है, जिन्होंने असमिया सिनेमा को जीवित रखा है। निर्देशक और लेखिका नम्रता दत्ता ने इस अवसर पर अपनी लघु फिल्म 'पत्रलेखा' का अनावरण किया, जो डॉ भूपेन हज़ारिका के एक भावपूर्ण अमूर्त गीत में सिनेमाई जान फूंकती है। गीत में जिस प्रेम का केवल संकेत था, स्मृति और मौन केबीच लटका हुआ प्रेम, उसे नम्रता दत्ता ने दो आत्माओं की एक नाज़ुक, भावनात्मक रूपसे रची-बसी कहानी में बदल दिया, जो कभी एक-दूसरे से गुथी हुई थीं, लेकिन अब परिस्थितियों के शांत बहाव ने उन्हें अलग कर दिया है। नम्रता दत्ता ने कहाकि पत्रलेखा में दृश्य भाषा स्वयं एक कहानीकार बन जाती है। दोपहर की कठोर चमक में कैद गांव के दृश्य एक स्पष्ट भारीपन बिखेरते हैं, गर्मी, सन्नाटा, ज़िम्मेदारियों का बोझ जो महिला को उसके घर और उसकी बीमार मां से जोड़े रखता है। फिल्म में इसके ठीक विपरीत शहर के दृश्य, जो शाम के कोमल उदासी और रात के चिंतनशील सन्नाटे में फिल्माए गए हैं, पुरुष के एकांत को दर्शाते हैं, उसकी शामें चित्रकला, गिटार के सुरों और फुसफुसाती यादों में डूबी रहती हैं।
नम्रता दत्ता ने प्रकाश और छाया की इन विपरीत प्रकृति के जरिए लालसा, गुजरते समय और उन नाजुक धागों पर एक मार्मिक प्रतिबिंब तैयार किया है, जो दो लोगों को अलग कर दिए जाने के लंबे समय बादभी बांधे रखते हैं। नम्रता दत्ता ने कहाकि इस गीत में एक अजीब, अनकहा दर्द है, एक ऐसा प्यार जो हमेशा केलिए रह गया। नम्रता दत्ता ने कहाकि मैं उस कहानी को आगे बढ़ाने केलिए उस गीत के बोलों में जो सिर्फ़ इशारा था, उसे आकार देने केलिए बाध्य हुई। सिनेमैटोग्राफर और सहनिर्माता उत्पल दत्ता ने फिल्म की विशिष्ट कल्पना पर चर्चा करते हुए कहाकि उनका जीवन संध्याकाल में है, भारी होते हुएभी आशावान। फिल्म के कम बजट पर अपनी बात करते हुए उत्पल दत्ता ने स्पष्ट हास्य केसाथ कहाकि हम जैसे लोगों को जिनके पास पैसा नहीं है, फिल्में नहीं बनानी चाहिए, लेकिन सिनेमा केप्रति प्रेम हमें निडर बनाता है। उत्पल दत्ता ने कहाकि हमने यह हिसाब नहीं लगायाकि हमने कितना खर्च किया, हमने बस वही फिल्म बनाई जिसपर हमें विश्वास था।