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सत्यनिष्ठ और सत्यनिष्ठा आखिर क्या है?

..और सत्यनिष्ठा सुविधा की मुखापेक्षी होती दिख रही है

शासनतंत्र और समाज दोनों को पाखंड छोड़ना होगा

Monday 15 September 2025 06:49:48 PM

रतिभान त्रिपाठी

रतिभान त्रिपाठी

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सत्यनिष्ठ होना बहुत सरल है, लेकिन सत्यनिष्ठा से जीवन जीना सबसे कठिन है। सत्यनिष्ठ का अर्थ है सच्चा। इसके पर्यायवाची के रूपमें आप कुछ और शब्दों को ले सकते हैं। कर्तव्यनिष्ठ, धर्मात्मा, निष्कपट, विश्वसनीय, सत्यवादी, सत्यपरायण, ईमानदार आदि-आदि। सत्यनिष्ठ के अनेक पर्यायवाचियों में एक शब्द है ईमानदार। यह शब्द भारत में सत्यनिष्ठ से कहीं अधिक प्रचलित है। दरअसल हमारे देश में अंग्रेजी से पहले हिंदी पर अरबी, फारसी, पुर्तगाली भाषाओं का बहुत प्रभाव रहा है। इन भाषाओं के शब्द हिंदी में ऐसे घुल-मिल गए हैंकि आज की पीढ़ी उन शब्दों को हिंदी का ही शब्द समझती है, ईमानदार ऐसा ही एक शब्द है जो अरबी और फारसी से मिलकर बना है। 'ईमान' अरबी शब्द है, जबकि इसमें 'दार' शब्द फारसी है जो प्रत्यय के रूपमें जोड़ दिया गया और फिर पूरा शब्द बना 'ईमानदार' जिसका हिंदी में 'सत्यनिष्ठ' अर्थ हुआ।
ख़ैर! शब्द व्याख्या या व्युत्पत्ति से कहीं अधिक आवश्यक बात इसके जनजीवन में प्रयोग की है। इन शब्दों के भावार्थ से अनुमान लगाया जा सकता हैकि 'सत्यनिष्ठ' व्यक्ति भलेही सरल और निष्कपट होता हो, लेकिन वह जब अपने इस भाव को भाववाचक संज्ञा या गुणवाचक विशेषण यानी 'कर्तव्यनिष्ठा' में बदलता हैतो अगले ही क्षण उसका जीवन कठिनाई से घिर जाता है। पुराणों में सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र की कथा आती है। उनकी सत्यनिष्ठा असंदिग्ध थी, इसीलिए उन्हें कितना कष्ट भोगना पड़ा, कितनी कठिनाई का सामना करना पड़ा। काशी में डोमराजा के श्मशान घाट पर मुर्दे जलाने की नौकरी करते थे सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र, वहां जब उनकी पत्नी अपने बेटे का शव लेकर आती हैं तो वे उनसे उसे जलाने का शुल्क मांगते हैं। पत्नी के पास शुल्क देने केलिए पैसे ही नहीं हैं तो वह शव की अंत्येष्टि कराने से मना कर देते हैं। यह सत्यनिष्ठा की पराकाष्ठा है। सत्यनिष्ठा को लेकर ऐसेही राजा शिवि और महर्षि दधीचि की कथाएं बहुप्रचलित हैं। हम अपने दैनंदिन जीवन में सत्यनिष्ठ व्यक्तियों के जीवन में संताप के किस्से कहानियां सुनते आए हैं।
सत्य तो सत्य होता है, लेकिन युगधर्म बदल गया लगता है। अब तो सत्यनिष्ठा सुविधा की मुखापेक्षी होती दिख रही है। सत्यनिष्ठा या ईमानदारी वही है, जिससे किसी का काम निकल जाए, यह सही नहीं है, लेकिन यह कालखंड ऐसा है, जिसमें लोग ग़लत बातों को ही सही कहने लगते हैं। सामान्यतया हर किसी ने सुना होगा कि कोई किसी से रिश्वत लेकर उसका सही या ग़लत काम कर दे तो ऐसे व्यक्ति को ही सत्यनिष्ठ मान लिया जाता है। यानी यह युग अपने स्वार्थ में इतना अंधा हो चला हैकि बेईमान को ही अच्छा कहने-मानने लगा है। ऐसा नहीं हैकि बेईमानी, भ्रष्टाचार किसी युग में नहीं था, लेकिन तब इनकी स्वीकार्यता नहीं थी। आज स्वीकार्यता बढ़ती जा रही है, यह चिंता का विषय है। हमारे आगम-निगम सत्यनिष्ठा के उदाहरणों से भरे पड़े हैं। जीवन में उसके सफल प्रयोग रहे हैं और समाज में उनका कितना अच्छा प्रभाव पड़ता है, यह कौन नहीं जानता है? शासन तंत्र में इसके अनुभूत प्रयोग रहे हैं, जिसमें श्रीमद्भगवद्गीता स्वधर्म पालन पर बल देती है।
राजा का धर्म बिना स्वार्थ के सत्यनिष्ठा से राज-काज का संचालन करना है, अतः राज्य और प्रशासन में सत्यनिष्ठा अनिवार्य है। आधुनिक दार्शनिकों ने भी सत्यनिष्ठा का वही विवेचन किया है जो भारतीय संतों ऋषियों महर्षियों और शास्त्रों ने कहा है। प्लेटो और अरस्तू को उद्धृत किया जा सकता है। प्लेटो के दार्शनिक राजा के सिद्धांत के अनुसार राजा ऐसा होना चाहिए, जिसमें विवेक प्रमुख हो लालच या भोग नहीं और यदि व्यापारी शासन चलाएंगे तो लोभ में वे राज्य को हानि पहुंचा सकते हैं, इसलिए राजा को लोभ से मुक्त होना चाहिए अर्थात शासन में सत्यनिष्ठा होनी चाहिए। अरस्तू कहते हैंकि राज्य ही व्यक्ति को व्यक्ति बनाता है। इस कथन का भाव यह हैकि राज्य अपनी मूल प्रकृति में ही नैतिक संस्था है और कोई भी नैतिक संस्था बेईमानी से नहीं चल सकती है, इसलिए आज के शासनतंत्र और समाज दोनों को पाखंड छोड़ना होगा। सत्यनिष्ठ होकर काम करना पड़ेगा, तभी भविष्य केलिए एक मजबूत समाज और मजबूत राष्ट्र का निर्माण हो सकता है। (‌रतिभान त्रिपाठी जाने माने वरिष्ठ पत्रकार, लेखक और विश्लेषक हैं)।

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