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इनमें प्रधानमंत्री कौन?

‌दिनेश शर्मा

राहुल गांधी-सोमनाथ चटर्जी-एलके आडवाणी

नई दिल्ली। देश के भावी प्रधानमंत्री को लेकर जनसामान्य में अभी से ही चर्चा शुरू हो गई है कि भावी केंद्रीय शासन की बागडोर किस राजनीतिक दल के हाथ में हो और कौन प्रधानमंत्री हो? हालांकि लोकसभा चुनाव अब अगले साल अपने समय पर ही होंगे। इस साल लोकसभा में पेश आम बजट से संदेश गया था कि चुनाव इसी साल के अंत तक कभी भी हो सकते हैं। केंद्र की ऐसी ही योजना थी लेकिन एटमी करार से देश का राजनीतिक घटनाक्रम बड़ी तेजी से पलटा जिससे कि अब लगभग तय सा है कि आम चुनाव अपने ही समय पर होंगे। इस घटनाक्रम ने ही देश के भावी प्रधानमंत्री को लेकर जनसामान्य में भारी जिज्ञासा पैदा कर दी है। भारतीयों और उनसे सरोकार रखने वाले दूर देशों के लिए भी भारत का आम चुनाव एक उत्सुकता और उसी के साथ चिंता का भी विषय है। उत्सुकता इसलिए है कि भारत विश्व का बड़ा लोकतांत्रिक देश है जिसमें क्या हो रहा है, इस पर पूरी दुनिया की नज़र रहती है।

भारत ही इस महाद्वीप में राजनीतिक और शांति की स्थिरता का नेता माना जाता है। अन्य शक्तिशाली देश, भारत के आर्थिक सामाजिक और राजनीतिक मामलों में भी पूरी दिलचस्पी रखते हैं। दुनिया में सबसे ज्यादा मुसलमान भारत में रहते हैं इसलिए भी दुनिया के मुस्लिम देशों की जितनी दिलचस्पी भारत में रहती है शायद उतनी उनकी खालिस मुस्लिम देशों में भी दिलचस्पी नहीं रहती। चिंता का विषय इसलिए है कि भारत में दो दशक से केंद्र सरकार अवसरवादी गठबंधन की बैसाखियों पर चलती आ रही है जिस कारण वह संसद में किसी भी विषय पर समर्थन पाने के लिए विभिन्न राजनीतिक दलों की मोहताज बन गई है। एटमी करार का मुद्दा इसका सबसे बड़ा उदाहरण है जिस पर गठबंधन के लोग साथ छोड़कर अलग हो गए और यूपीए सरकार को अपने विश्वासमत पर गैरो का सहारा लेना पड़ा। इसका सबसे ज्यादा नुकसान देश की विदेश नीति और आंतरिक सुरक्षा को हो रहा है, क्योंकि भारत के लिए जितना आंतरिक सुरक्षा और आर्थिक विकास का महत्व है उतना ही यह भी महत्वपूर्ण है कि उसकी विदेश नीति में कितना दम है। फिलहाल भारत का यह पक्ष काफी कमजोर दिखाई देता है।

चुनाव के समय देश के नागरिकों के सामने सर्वप्रथम यह प्रश्न होता है कि कौन सा राजनीतिक दल केंद्र में अपनी सरकार बनाकर देश के सामाजिक आर्थिक विकास की प्रक्रिया को सबसे अच्छे ढंग से अंजाम देता है और दे सकता है, पहले यह चिंता और जागरूकता नहीं थी। लेकिन जैसे-जैसे देश में राजनीतिक आर्थिक और शैक्षणिक विकास हो रहा है, वैसे-वैसे देश के नागरिकों की सत्ता में दिलचस्पी और राजनीतिक दलों के एजेंडों और उनके स्थायित्व में भी बढ़ रही है। राजनीतिक जागरूकता का स्तर और राजनीति में भागीदारी का प्रतिशत तेजी से बढ़ रहा है, यह अलग बात है कि मतदान का प्रतिशत औसत से काफी गिरता जा रहा है। इसलिए मौजूदा राजनेताओं के सामने यह भी चुनौती आ गई है कि वह इस श्रृंखला में अपने को कायम रखने के लिए सक्रिय और अपने एजेंडे के प्रति कैसे जवाबदेह रहें। साथ ही यह भी कि सत्ता संभालने वाले दल में से कौन व्यक्ति प्रधानमंत्री के चुनौतीपूर्ण दायित्व को सफलतापूर्वक निभाने में सक्षम होगा।
कांग्रेस जब तक सत्ता में आती रही, तब तक यह प्रश्न गौण होता था कि कौन प्रधानमंत्री बनेगा। अब देश की राजनीतिक परिस्थितियां और समीकरण पूरी तरह से बदल गए हैं। देश में कांग्रेस के अलावा भी और कई राजनीतिक दल अखाड़े में आ गए हैं, जिनमें क्षेत्रीय दलों ने राजनीतिक विघटन की काफी चुनौतियां खड़ी कर दी हैं। अब इस बात का विशेष महत्व हो गया है कि जो राजनीतिक दल केंद्र में सत्ता संभालेगा, उसका कौन सा नेता प्रधानमंत्री पद को सफलतापूर्वक संभालने में सक्षम होगा। इस परिप्रेक्ष्य में दो राजनीतिक दलों, भारतीय जनता पार्टी और बहुजन समाज पार्टी ने तो अपने-अपने पत्ते खोलकर लोगों को अभी से बता दिया है कि उनकी पार्टी सत्ता में आएगी तो कौन प्रधानमंत्री बनेगा। भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व में यदि केंद्र सरकार का गठन होता है तो पार्टी की घोषणानुसार लालकृष्ण आडवाणी प्रधानमंत्री होंगे और बहुजन समाज पार्टी की सरकार आती है तो मायावती ने देश का प्रधानमंत्री बनने का अपना स्वप्न जगजाहिर कर दिया है। जहां तक कांग्रेस का प्रश्न है तो उसने अभी इस पर चुप्पी साध रखी है लेकिन संदेश यही है कि कांग्रेस या उसके गठबंधन की सरकार आने पर हो न हो राहुल गांधी ही प्रधानमंत्री हों। हालॉकि कांग्रेस ने इसका खंडन कर दिया है, लेकिन देर सवेर इस पर आम सहमति भी सबके सामने होगी। राहुल गांधी का नाम सामने आने से इस वक्त जो सबसे ज्यादा परेशान हैं वो ‘बहिनजी’ हैं, जिन्हें राहुल गांधी के सामने अपना दावा बहुत ही कमजोर लग रहा है। इसीलिए ‘बहिनजी’ के राहुल गांधी पर हमले तेज हो गए हैं। मायावती को हाल ही में वामपंथियों ने इस पद के ख्वाब दिखाए हैं लेकिन जो वामपंथी यूपीए के नहीं हुए तो वह मायावती के क्या होंगे?
एक तरह से चुनाव से काफी पूर्व ही राजनीतिक दलों के भावी प्रधानमंत्रियों के नाम सामने आ जाना बहुत अच्छी बात मानी जा रही है। विश्व के कुछ दूसरे देशों में भी वहां के राजनीतिक दल ऐसा करते आए हैं। इससे लोगों को उनकी योग्यता आदि जांचने में सहायता मिलेगी। चूंकि आम चुनाव में अभी समय बाकी है, इसलिए यह उचित समझा जाता है कि भावी प्रधानमंत्री के लिए जो नाम सामने आए हैं, उनकी योग्यता आदि के विषय में राष्ट्रीय स्तर पर बहस छिड़े और उनके व्यक्तित्व के सभी पहलू आम जनता के सामने प्रमुखता से प्रस्तुत किए जाएं, ताकि लोगों को अपने हिसाब से राजनीतिक दल एवं प्रधानमंत्री पद के लिए सही व्यक्ति का चुनाव करने में मदद मिले। यह कोई भावुकता का प्रश्न नहीं है बल्कि कर्त्तव्य और विचार का विषय है क्योंकि भारत का सामना आज तेजतर्रार दुनिया से है। उस दुनियां से सामना है जिसमें कमंडल, मंडल, धर्म जाति और किसी के लिए भी रहम या सहानुभूति का कोई स्थान नहीं है।

‘हमारा’ प्रधानमंत्री कैसा हो का नारा सभी राजनीतिक दलों के पास है। लेकिन देश का प्रधानमंत्री कैसा हो यह बहुत ही महत्वपूर्ण प्रश्न है। जिन पहलुओं के संबंध में लोगों को जानकारी होनी और दी जानी चाहिए उनमें सबसे पहला प्रश्न है व्यक्तित्व का। व्यक्तित्व की गणना करने में अलग-अलग तरह के मत, कसौटियां और विश्लेषण हो सकते हैं लेकिन एक विषय पर शायद ही मत भिन्नता हो और वह है भ्रष्टता। इसके बाद लोकतांत्रिक व्यवस्था का ज्ञान और अनुभव, संसदीय प्रणाली को सुदृढ़ करने में योगदान, देश की सामाजिक एवं आर्थिक प्रगति का दर्शन, सरकारी व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने की क्षमता और विश्व के सामने अपने देश को और अपनी नीतियों को श्रेष्ठ साबित करने की योग्यता। भारत में जब से क्षेत्रीय राजनीतिक दलों का प्रभाव बढ़ा है, तबसे देश को गठबंधन सरकारों का सामना करना पड़ रहा है। कुछ सीमा तक यह लोकतंत्र के लिए अच्छा संकेत हो सकता है, लेकिन देश की आर्थिक सामाजिक और राजनीतिक प्रगति के लिए नहीं। इसीलिए प्रधानमंत्री एवं दल का चयन राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं से ऊपर चला गया है।

भारतीय राजनीति के परिदृश्य पर देश के प्रधानमंत्री पद के लिए एक और नाम ने दस्तक दी है और वह है लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी। बहुतो के मन में इस नाम से खलबली मच सकती है क्योंकि वे वामपंथी हैं। क्योंकि यह नाम अभी तक कहीं नहीं था। प्रधानमंत्री पद के लिए सोमनाथ चटर्जी की दावेदारी कोई उनकी इच्छा व्यक्त करने से सामने नहीं आई है बल्कि एटमी डील के मामले में यूपीए सरकार के विश्वासमत सिद्घ करने के घटनाक्रम में उनकी भूमिका ने उन्हे प्रधानमंत्री पद का प्रबल दावेदार बना दिया है। सवाल उठ रहा है कि यदि इस देश में एचडी देवेगौड़ा, चंद्रशेखर और इंद्र कुमार गुजराल प्रधानमंत्री हो सकते हैं तो सोमनाथ चटर्जी क्यों नहीं, जिन्हे पूरे देश ने राजनैतिक मूल्यों और मर्यादा के पक्ष में चट्टान की तरह से खड़े हुए देखा। वैसे भी उनकी छवि बेदाग और उज्जवल है। वाम राजनीति में पले बढ़े सोमनाथ चटर्जी की राजनीतिक दृढ़शक्ति इतनी व्यापक है कि वे न बरगलाए जा सकते हैं और न अनैतिक समझौतों का समर्थन कर सकते हैं। निर्णय लेने की उनकी इच्छा शक्ति ने आज उन्हें भारतीय राजनीति के शिखर पर पहुंचा दिया है। उनका लोकसभा अध्यक्ष का कार्यकाल तो सबके सामने है ही। इसलिए सोमनाथ चटर्जी प्रधानमंत्री पद के दावेदारों में शामिल हो गए हैं, देखिए अब आगे क्या होता है?
क्षेत्रीय दलों के महत्व को नकारा नहीं जा सकता लेकिन भावना, भाषा, धर्म और जाति के आधार पर उनके आगे बढ़ने की इजाजत भी नहीं दी जा सकती। जैसा कि देश के महाराष्ट्र, उत्तरप्रदेश और दक्षिण एवं पूर्वोत्तर राज्यों में शुरू हो गया है। उत्तर प्रदेश शांत था, मगर वह भी जाति और संकीर्णवाद, राजनीतिक एवं आर्थिक भ्रष्टाचार की डगर पर चल पड़ा है। इसका आशय यह नहीं है कि भाषा धर्म और जाति की अवहेलना करके किसी देश की नीति बने, अपितु इसका मतलब यह है कि यह तथ्य तो कायम रहे, इसका विकास हो मगर साथ ही देश के सामाजिक आर्थिक राजनीतिक विकास के ढांचे पर भी इसका कोई प्रतिकूल प्रभाव न पड़े। हो यह रहा है कि क्षेत्रीय दल और उनके एजेंडे एकता के बजाय जोड़-तोड़ और विघटन के रास्ते पर बढ़ रहे हैं। यह खतरा मंडराने लगा है कि यदि ऐसा ही चलता रहा तो देश की एकता और अखंडता खतरे में पड़ जाएगी।
इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता कि किसी भी देश की एकता और अखंडता के लिए देश में बड़े राज्यों का होना भी जरूरी है। देश में भावनाओं पर आधारित राज्यों की मांग और आंदोलन देश की एकता की कीमत पर स्वीकार नहीं हो सकते। इनका आधार उस क्षेत्र की भौगोलिक और भाषाई जरूरत जरूर हो सकता है। आज प्रधानमंत्री पद के दावेदार केवल अपने प्रभाव और संख्या बढ़ाने के लिए इन एजेंडों का दोहन करने में लगे हुए हैं और हर जगह अलग राज्यों की मांग का समर्थन करते हुए घूम रहे हैं। मायावती ने तो हद ही कर दी है वह जहां जाती हैं वहीं पर ही अपने लालच में वहां के राज्यों की मांग को पूरा करने का वादा कर रही हैं जिससे राज्यों की जनता में भ्रम की स्थिति बन रही है। यूपीए सरकार के विश्वासमत में आंध्र के टीआरएस और उत्तर प्रदेश के रालोद जैसे क्षेत्रीय दल केवल इसी आश्वासन एवं आधार पर यूपीए सरकार के विश्वासमत के खिलाफ एकजुट हो गए थे। इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि भारत जैसे देश को प्रधानमंत्री पद के लिए मायावती जैसी विघटनकारी नेताओं को चर्चा में सुनना पड़ रहा है। यह अलग बात है कि मायावती इस पद की दूर-दूर तक पात्रता नहीं रखतीं।

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