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पत्रकार से मुख्यमंत्री तक पहुंचे 'निशंक' की अब असली परीक्षा

दिनेश शर्मा

रमेश पोखरियाल 'निशंक'-ramesh pokhriyal nishank

देहरादून। उत्तराखंड के नए मुख्यमंत्री रमेश पोखरियाल 'निशंक' के सामाजिक और राजनीतिक जीवन की शुरूआत पत्रकारिता से हुई है। एक पत्रकार के साथ-साथ शिक्षक बनकर राजनीति में कदम रखा। उन्हें जरूर याद होगा कि वे शुरू में बिजनौर जनपद से निकलने वाले छोटे से हिंदी दैनिक समाचार पत्र दैनिक राष्ट्रवेदना के संवाददाता हुआ करते थे और पौड़ी गढ़वाल के प्रवेशद्वार कोटद्वार से खबरें भेजा करते थे। उन्होंने अन्य अखबारों के लिए भी रिपोर्टर के रूप में काम किया। पोखरियाल आज भी शिक्षक और पत्रकार हैं और पौड़ी से सीमांतवार्ता नाम से अपना अखबार भी चलाते हैं। यह भाग्य की प्रबलता और उनका प्रचंड राजयोग ही कहेंगे कि पौड़ी जिले की थलीसेण विधानसभा से चुनकर आने वाले पोखरियाल पत्रकारिता से राजनीति में आकर खूब चमके और अपने राज्य के मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंच गए हैं। उनके राजनीतिक जीवन और अनुभव की असली परीक्षा अब शुरू हुई है जिसमें अपनी और भाजपा की मजबूती के लिए उन्हें एक साथ कई मोर्चो पर लड़ना है और इस लड़ाई में विजय होकर दिखाना है। पोखरियाल को सिद्ध करना है कि वे उत्तराखंड में भाजपा के अब तब के सबसे सफल मुख्यमंत्री हैं।
'निशंकजी' के नाम से प्रसिद्ध पोखरियाल के पक्ष में कई बातें जाती हैं। सबसे पहली बात यह है कि वे युवा हैं और उत्तराखंड का मुख्यमंत्री बनने पर उनका गर्मजोशी से स्वागत करने वालों में युवा तबका सबसे आगे है जो कि भविष्य की राजनीति दिशा को तय करने, प्रभावित और नियंत्रित करने वाला प्रमुख राजनीतिक हथियार है। उनके शपथग्रहण समारोह में इस बात की चर्चा होती रही कि भाजपा को वास्तव में अब मुख्यमंत्री के रूप में एक और अच्छा राजनेता मिला है। 'निशंक' मृदुभाषी और पत्रकारिता पेशे से जुड़े रहने के कारण शुरू से ही आम आदमी के काफी करीब रहे हैं। वह अच्छी तरह से जानते हैं कि जनता चाहती क्या है, उससे किस प्रकार व्यवहार करना चाहिए और राजनीति में रहकर जनता के बीच में अपना विश्वास बनाए रखने और उत्तराखंड की जनता के खोए हुए विश्वास को फिर से वापस लाने के लिए आगे किस प्रकार से चलने की जरूरत है। अपने क्षेत्र और प्रशंसकों के हमेशा करीब रहने एवं राजनीतिक प्रतिद्वंदियों के बीच वर्चस्व स्थापित करने की कलाएं उन्हें पत्रकारिता से ही हासिल हुई हैं। विश्वास के साथ कहा जा सकता है कि एक पत्रकार होने का जबर्दस्त लाभ उन्हें राजनीति में मिला है। अपने क्षेत्र से विधायक चुने जाने के बाद उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा और आगे बढ़ते गए। उनकी अनवरत सफलता राजनीति के विद्यार्थियों के लिए एक पाठ्यक्रम कही जा सकती है। 'निशंक' का साफ सुथरा राजनीतिक जीवन भी उनकी इस प्रगति और राज्य के मुख्यमंत्री जैसे सर्वोच्च पद का कारक साबित हुआ है।
उत्तराखंड में भाजपा के अब तक जितने भी मुख्यमंत्री हुए हैं सभी के पीछे व्यक्तित्व और संघर्ष का एक इतिहास है। भुवन चंद्र खंडूड़ी से उत्तराखंड की सत्ता संभालते हुए 'निशंक' ने जिस गरिमा धैर्य और सबको साथ लेकर चलने की जिम्मेदारी का एहसास कराया उससे पता चलता है कि 'निशंक' मुख्यमंत्री के रूप में भी अपनी सफलता का इतिहास लिखेंगे। नई भूमिका में उनके पास भरपूर अवसर, जनता की आशाओं के अनुरूप कार्य करने और जनता को प्रसन्न रखने के तौर तरीके अच्छी तरह से मालूम हैं। कोई कुछ भी कहे, भुवन चंद्र खंडूड़ी भी एक शासनकर्ता के रूप में राज्य के सफल मुख्यमंत्री कहे जाएंगे क्योंकि उन्होंने राज्य के विकास के लिए राज्य के अन्य मुख्यमंत्रियों से भी ज्यादा और अच्छा काम किया है, भले ही वे जनता की नब्ज़ को पकड़ने में असफल साबित हुए जिसके परिणाम स्वरूप भाजपा को लोकसभा चुनाव में पराजय का सामना करना पड़ा।
उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री और दोबारा से मुख्यमंत्री बनने की तीव्र इच्छा रखने वाले भगत सिंह कोश्यारी ने पिछले दिनो खंडूड़ी के विरोध और उत्तराखंड की जनता को संतुष्ट रखने के सवाल पर पत्रकारो से सही ही कहा था कि जनता की इच्छाएं हनुमान जी की पूंछ है जिसे जितना बढ़ाओगे उतनी ही बढ़ती चली जाएगी। जनता की मांगों और इच्छाओं का कोई अंत नहीं है, उससे भी बढ़ कर सहयोगियों की सामाजिक और राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं का चौबीस घंटे दबाव बना रहता है जिसका सामना करना केवल कुशल राजनीतिज्ञ के ही वश की बात है जिसका भुवन चंद्र खंडूड़ी में नितांत अभाव माना जाता है। इसी कारण उन्हें उत्तराखंड की सत्ता से हाथ धोना पड़ा। वे अपने चतुर सहयोगियों की चाल पट्टी नहीं समझ पाए और एक सैनिक के ही अंदाज़ में सरकार चलाते रहे। राज्य के विकास में उनके अच्छे कार्य भी उनका साथ नहीं दे पाए। उत्तराखंड की जनता उन्हें और उनकी ई गर्वनेंस कार्यप्रणाली को समझ ही नहीं पायी। कम से कम 'निशंक' इस मामले में खंडूड़ी से बीस नहीं बल्कि इक्कीस माने जाते हैं। यह सच्चाई भी वक्त साबित करेगा। कहने वाले कहते हैं कि यदि 'निशंक' ने अपनी कार्य प्रणाली को उत्तराखंड की जनता और पार्टी के उठा-पठक वाले नेताओ के अनुकूल बना लिया तो 'निशंक' भाजपा के एक सफल राजनेता माने जाएंगे।
उत्तराखंड में भारतीय जनता पार्टी ने लोकसभा चुनाव हारा है। केंद्र में कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए की सरकार है। उत्तराखंड से पांचों सांसद कांग्रेस के हैं। इनमें हरिद्वार से जीते हरीश रावत को केंद्र में मंत्री भी बनाया जा चुका है। संकेत साफ है। उत्तराखंड कांग्रेस को मजबूत करने की बागडोर एक तरह से हरीश रावत को सौंपी गई है और कांग्रेस की सरकार आने पर अगले मुख्यमंत्री की उम्मीद जगाते हुए उनके सामने लक्ष्य रख दिया गया है कि अब वह उत्तराखंड में भाजपा को कमजोर करें इसके लिए कांग्रेस को अपनी ओर से जो करना था वह उन्हें मंत्री बनाकर किया जा चुका है। हरीश रावत की उत्तराखंड का मुख्यमंत्री बनने की चिर-इच्छा जगजाहिर है। उत्तराखंड में जब कांग्रेस की नारायण दत्त तिवारी सरकार थी, तब भी हरीश रावत ने नारायण दत्त तिवारी को हटवाने के लिए कई बार अभियान चलाया, लेकिन कांग्रेस हाईकमान ने हरीश रावत को हर बार समझा-बुझाकर शांत कर लिया। हरीश रावत की महत्वाकांक्षा को देखते हुए कांग्रेस हाईकमान ने उन्हें केंद्र में मंत्री बनवाया है और उन्हें उत्तराखंड में कांग्रेस के लिए मजबूत जमीन तैयार करने की जिम्मेदारी सौंपी है।
उत्तराखंड में अब दो समानांतर सरकारें चल पड़ी हैं इनमें एक का नेतृत्व अब रमेश पोखरियाल 'निशंक' के पास है जो कि उत्तराखंड के नए मुख्यमंत्री बनाए गए हैं और दूसरी अदृश्य सरकार का नेतृत्व हरीश रावत के पास है जो कि मौजूदा सरकार के लिए कोई न कोई परेशानी बनाए रखते हुए कांग्रेसियो को मजबूत करने का काम करेंगे। इसी रणनीति के तहत मुख्यमंत्री 'निशंक' को गैर कांग्रेसी सरकार का मुख्यमंत्री होने के कारण केंद्र सरकार से अपेक्षित सहयोग मिलना भी बहुत मुश्किल होगा जिससे 'निशंक' को जनता के लिए कल्याणकारी योजनाएं लागू करने में भारी परेशानियां होंगी। इससे उत्तराखंड में भाजपा और कमजोर होगी और कांग्रेस उसका पूरा राजनीतिक लाभ उठायेगी। 'निशंक' की यह ही परीक्षा है कि वे उत्तराखंड में कांग्रेस को फिर से कमजोर करने में सफल होते हैं कि नहीं और कांग्रेस के हरीश रावत की रणनीतियों को विफल कर पाते हैं कि नहीं। इसके साथ 'निशंक' को उन भितरघातियों को भी हासिए पर रखना होगा जिन्होंने पूर्व मुख्यमंत्री भुवन चंद्र खंडूड़ी का सरकार चलाना दूभर कर रखा था जिससे भाजपा को हार का सामना और नेतृत्व परिवर्तन भी करना पड़ा।
उत्तराखंड भाजपा के राजनीतिक घटनाक्रम का सबसे तगड़ा निशाना पूर्व मुख्यमंत्री भगत सिंह कोश्यारी बने हैं जिन्होंने लोकसभा चुनाव के बाद अपने पैतृक क्षेत्र की विधानसभा सीट यह भरोसा देकर जीती थी कि वे मुख्यमंत्री बनने वाले हैं। भुवन चंद्र खंडूड़ी के विरोध में जितने भी अभियान चले हैं उनका नेतृत्व भी कमोवेश कोश्यारी के हाथ में माना गया है। इससे परेशान होकर यह बात भाजपा हाईकमान लगभग तय कर चुका था कि यदि उत्तराखंड में नेतृत्व परिवर्तन की आवश्यकता पड़ती है तो कम से कम कोश्यारी को कमान नहीं ही दी जाएगी और विकल्प के तौर पर किसी नए चेहरे को ही अवसर दिया जाएगा। भाजपा हाईकमान की नजर 'निशंक' पर पड़ी और तुरंत उन्हें मुख्यमंत्री बनाने का फैसला ले लिया गया। इससे भुवन चंद्र खंडूड़ी को भी कोई राजनीतिक परेशानी नहीं हुई है। उधर भगत सिंह कोश्यारी भी अपने लिए कुछ हासिल नहीं कर पाए हैं। 'निशंक' को मुख्यमंत्री बनाने का फैसला आने के बाद सबसे पहले कोश्यारी के खेमे से निराशाजनक प्रतिक्रियाएं आई जिससे पता चलता है कि वह असंतुष्ट हैं क्योंकि जिस उद्देश्य के लिए उन्होंने खंडूड़ी के खिलाफ अभियान चलाया था वह पूरा ही नहीं हो सका है। 'निशंक' के सामने उत्तराखंड के भाजपा के शीर्ष नेताओं में सामंजस्य स्थापित करके चलने की जरूरत है जिसमें भगत सिंह कोश्यारी को भी संतुष्ट रखना होगा। इस पूरे राजनीतिक परिदृश्य में एक बात बिल्कुल स्पष्‍ट है कि भाजपा यहां तभी जनता का खोया हुआ विश्वास हासिल कर सकती है जब उसकेलीडर राजनीति के 'कॉमन मिनिमम प्रोग्राम' से चलेंगे अन्यथा कांग्रेस इन सबको निगल जाने के लिए तैयार बैठी है।

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