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अतीत में उत्तराखण्ड

घनश्याम जोशी

घनश्याम जोशी

उत्तराखंड-uttarakhand

भारत के राजमुकुट हिमालय में हीरे की तरह दमकता उत्तराखंड देश के27वें राज्य के रूप में अपनी अलौकिक छटा बिखेर रहा है। भौगोलिक एवं प्राकृतिक संपदा से समृद्धशाली इस राज्य की राजनीतिक ऐतिहासिक सांस्कृतिक, धार्मिक परंपराओं और सभ्यता लोक संगीत के विविध आयाम इतने प्रेरणादायक हैं कि उनके जितने करीब जाएं उतना ही आस्था और विश्वास को मजबूत करते हैं। उत्तराखंड ने हर क्षेत्र और हर दौर में अपनी अलग और महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इसके संपूर्ण दर्शन पर प्रकाश डालने से नयापन ही सामने आता है और अतीत! अतीत की जिज्ञास कभी शांत नहीं होती है। इसकी सामाजिक, धार्मिक मान्यताएं, सच्चाईयों और चमत्कारों से ओत प्रोत हैं।
भारतीय
गणतंत्र का 27वां राज्य होना उत्तराखण्ड को और भी पौराणिक महत्व दे गया, जिसका श्रेय भौगोलिक स्थिति के अतिरिक्त यहां के लोगों में बसी भावना को भी कहा जाता है। भारतीय जनता पार्टी के सत्ताकाल में अस्तित्व में आये इस राज्य को पहले उत्तरांचल नाम दिया गया क्योंकि तब के सत्ताधारी इसे अधिक सार्थक व सकारात्मक समझते थे जबकि उनका उत्तराधिकार पाने वाली कांग्रेस पार्टी ने संसद से अनुमति लेकर इसका नाम बदलकर उत्तराखंड कर दिया। 'खण्ड' और 'अंचल' शब्दों की दुविधा अंतत: उत्तराखण्ड में समा गयी। निश्‍चय ही पौराणिक काल के उत्तराखंड में राज्यों की स्थिति तो अलग होती होगी, उनके शासक भी अलग होंगे। कालांतर में उत्तराखण्ड में कत्यूरी तथा चंदवंशों का राज्य ही नहीं देखा, गोरखाराज व अंग्रेजी राज भी झेला।
सन्
1600 में बनी तिजारती कंपनी ईस्ट इंडिया कंपनी ने मुगल दरबारों में जाकर मुगल शासकों को अन्य कार्यों में भी मदद देनी आरंभ की और धीरे-धीरे सूरत, मुम्बई, मद्रास, कोलकाता में जडें जमाकर ब्रिटिश पार्लियामेंट की सहायता से अंग्रेज साम्राज्य की नींव रखने में कठिनाई नही हुई।
काशीपुर
(कुमाऊं) की अलौकिक शोभा देखकर उनके लिए यह आकर्षण स्थली बन गई। सन् 1802 में लार्ड वेलेजली ने एक अंग्रेज गार्ट को यहां के जंगलों, जलवायु तथा स्थान के सामान्य हालात के अलावा लोगों के बारे में रिपोर्ट देने के लिए भेजा। इसके बाद मूरफ्रंक्ट और कप्तान हेरसी जब तिब्बत में पकड़े गये तो छूटने पर उन्होंने कुमाऊं के बारे में दिल ललचाने वाली बातें कहीं। जब अन्य अंग्रेज यहां आये तो सब कुछ देखकर और अपने अनुकूल पदार्थों को पाकर चकित हो गये। अपनी गोपनीय रिपोर्ट में कुमायूं के अद्भुत मनोहारी दृश्यों तथा हिमालय की नैसर्गिक छटा का वर्णन किया और शीघ्र इस सुंदर देश पधारने और इसको अपने हाथ में लेने का आग्रह किया।
उधर
कंपनी की लड़ाई नेपाल में चल रही थी। इसके समाप्त होने के पूर्व ही भारतीय कर्मचारियों ने कुमायूं को अंग्रेजी राज में शामिल करने का निश्‍चय कर लिया। लार्ड हेस्टिंग्स की फिजूलखर्ची तथा उसके नेपाल से युद्ध छेड़ने की कंपनी के डाइरेक्टरों ने काफी आलोचना तो की लेकिन नेपाल का युद्ध परोक्ष रूप से उन्हें कुमायूं में प्रवेश दिला गया। इंग्लैंड का राजा यहां का शासक भी बन गया।
इसके
बाद तो जिले की पूरी व्यवस्था, कुल शासन प्रबंध, पुल-सड़क-नहर-बिजली प्रबंध, स्टाम्प, जेल, अस्पताल, पुलिस, मालगुजारी, शिक्षा, न्याय, वन, उद्योग-धंधे, छापेखाने, कागज सभी पर अंग्रेज शासकों का नियंत्रण हो गया। इसके बाद तो 1815 से पूरी शासन व्यवस्था चाक चौबंद हो गयी। एजी गार्डनर 1815 में कुमायूं के पहले डिवीजनल कमिश्नर नियुक्त किये गये। पुरातत्ववेत्ताओं के कथनानुसार लगभग पांच हजार वर्ष पहले आर्यों का आगमन भारत में हुआ तो वे सिंधु नदी के किनारे बसे थे। कुरूवंशी (भरतवंशी) आर्यों के राजा त्रित्सु मध्य हैमवत के शासक थे।
यही
हेमवत आज का पूर्वांचल व गढ़वाल बताया जाता है। हिमालय प्रांत अनादिकाल से पवित्र माना जाता है इसे हिमाचल, हेमवत, हेमाद्रि, हिमगिरि, हेमवंत, गिरिराज आदि नामों से भी पुकारा जाता है। इसका वैदिक नाम सुमेरू या मेरू है। अंग्रेज लेखक शेरिंग मेरू को ही पवित्र कैलाश पर्वत मानते हैं जिस प्रकार पैलिस्टीन ईसाईयों की पवित्र भूमि व स्वर्ग है, वही मान्यता मेरू या कैलास की है। इसके चार रंग हैं- पूर्व में श्‍वेत, पश्चिम में पीत, उत्तर में लाल तथा दक्षिण में श्याम और चार दिशाओं में स्थित कंगूरों में चार वृक्ष हैं कदम, पीपल, जम्बू तथा वट। इसे स्वर्गभूमि तथा धर्मात्माओं का स्थान कहा गया है। सुमेरू के मध्य में ब्रह्मपुरी है। ब्रह्मपुर कत्यूरी राज्य का प्राचीन नाम रहा है।
यह
बताने की आवश्यकता कदाचित न पड़े कि अनंतकाल से महादेव व पार्वती का निवास हिमालय पर्वत माना जाता है। हिमालय एक पौराणिक राजा भी था जिसकी कन्या पार्वती थी। पार्वती के अन्य नाम भी हैं यथा गिरिजा, गिरिराज किशोरी, शैलेश्‍वरी, नंदा आदि। हिंदुओं के इहलौकिक स्वर्ग पुण्य-स्थान कैलास-मानसरोवर आदि भी हिमालय की गोद में स्थित है। गंगा, यमुना, करनाली, सतलुज, सिंधु, ब्रह्मपुत्र, काली उत्तर भारत की प्रधान नदियां मानसरोवर के आसपास से निकलकर पूरे उत्तर भारत को आप्यापित करती हैं। मानसरोवर तो कूर्मांचल के मस्तक पर विराजमान है ही। इसी के नीचे छोटी पहाड़ी से सरयू, रामगंगा, कोशी आदि नदियां निकली हैं। उत्तरी भारत के शाश्‍वत रक्षक शुभ्र हिमालय की ऊंची चोटियों में नंदा देवी, नंदाकूट, पंचचूली, त्रिशूल, द्रोणगिरी इसी कूर्मांचल की शोभा बढ़ाते हैं।
उत्तराखंड-uttarakhandद्रोणगिरी (दूनागिरी) से संजीवनी बूटी लाकर लक्ष्‍मण की मूर्छा समाप्त करने में सहायक हनुमान भारत के हर घर-परिवार का नाम है। पाण्डवों ने भी इस भूमि में ठौर-ठौर घूमकर दुष्टों व असुरों से इसे त्रासमुक्त किया। अर्जुन ने यही कहीं महादेव जी की तपस्या से पाशुपात जैसा दिव्य अस्त्र प्राप्त किया था। कालिदास की अलकापुरी, कुबेर की कॉचननगरी, जिसका वर्णन पुराणों में मिलता है, कैलास पर्वत के निकट ही बतायी जाती है।
बद्रीनाथ-केदारनाथ
हो या जगन्नाथ-बागनाथ- ये बड़े नाम इस भूमि की रक्षा करते आये हैं। जयंती, मंगला, काली महाकाली, भद्रकाली, दुर्गा आदि देवियों का निवास ऊंची-ऊंची चोटियों पर है। कपिल, गर्ग, द्रोण, नारद कश्यप, व्यास वाशिष्ठ, मार्कण्डेय जैसे ऋषियों के तपस्या आश्रम यहीं विद्यमान थे। इसके अलावा ग्राम देवता के रूप में सैम, हरू, ग्वाल, ऐड़ी, गंगनाथ, भोलानाथ, कलविष्ट आज भी ग्रामों की सीमा की रक्षा में तैनात हैं- ऐसा लोगो का विश्‍वास है। इस भूमि को अपने अधिकार में रखने वाले शक, हूण आदि जातियां, कत्यूरी व चंद राजवंश के बाद गोरखा व अंग्रेजों ने इस स्वर्ग का आनंद लिया।
बौद्धधर्म
के बाद आदि शंकराचार्य के दिग्विजय की धूम भी इस भूमि में रही और उसकी स्मृतिस्वरूप जोशीमठ, जागीश्‍वरधाम इसके साक्षात प्रतीक हैं। कूर्मांचल में अमरवन व दरूकवन में ज्योर्तिलिंग की स्थापना हुई।
वायुपुराण
व मानसखण्ड (स्कन्दपुराण का एक अंश) इस भूमि का गुणगान करते हैं। आज के वैज्ञानिक युग में पहले के आख्यानों का तार्किक आधार पर भले न विश्‍वास न किया जाए लेकिन भौगोलिक बातों का अवश्य पता चलता है। एक ऐतिहासिक तथ्य यह अवश्य मिलता है भगवान बुद्ध काशीपुर (गोविबाण) आये थे। ह्यूनसांग के लिखे यात्रा वृतांतो में उनके काशीपुर पधारने तथा बौद्धधर्म का प्रचार करने का उल्लेख मिलता है।
पाण्डवों
की भी यहां समृतियां बिखरी पड़ी है। भीमताल नाम, भीम शायद के यहां आने से पड़ा हो। देवीधूरा (अब पिथौरागढ़ जनपद) में पांडव भाइयों की क्रीड़ा के दौरान फेंके बड़े-बड़े पत्थर आज भी विद्यमान हैं। भीमसेन की पांचों उंगलियों के निशान मिलते हैं। इसके अतिरिक्त यहां विराट नगरी का होना भी पाया जाता है, जो यह दर्शाता है कि कभी यहां पाण्डवों का आगमन अवश्य हुआ था।
नोट-
प्राचीन उत्तराखण्ड विषयक यह जानकारी हमने पं बदरीदत्त पाण्डेय लिखित 'कुमाऊं के इतिहास' से प्राप्त की है। स्वयं उन्होंने इस प्रकार की सामग्री के संकलन में ऐटकिंसन के गजेटियर, नेमिल के गजेटियर, इम्पीरियल गजेटियर, कनिंघम के आर्कियोलॉजिकल सर्वे, शेरिंग लिखित पश्चिमी तिब्बत तथा कूर्मांचल सरहद, हाईकोर्ट रजिस्ट्रार डा लक्ष्मी दत्त जोशी के, खस फैमिली, डा जोधसिंह नेगी की हिमालयन यात्रा, पन्नालाल लिखित कुमायूं के दस्य रिवाज, नोट्स ऑन द गढ़वाल (रायबहादुर धर्मानंद जोशी लिखित) पिलग्रिम बैटन लिखित वांडरिंग्स इन द हिमालयन, सीडब्लू सर्फी लिखित नैनीताल एंड कुमायूं से ली गई आधारभूत पुस्तकों से सहायता ली गयी है।

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