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परंपरा का प्रसाद

Thursday 24 January 2013 04:01:56 AM

हृदयनारायण दीक्षित

हृदयनारायण दीक्षित

परंपरा मनुष्य की अपनी उपलब्धि है। वह परंपरा में जीता है और परंपरा का विकास भी करता है। भारत हजारों वर्ष प्राचीन राष्ट्र है, इसलिए हिंदू परंपरा का प्रसाद विराट है। यह सहज उपलब्ध है, लेकिन सबको नहीं मिलता। इसे अर्जित करना पड़ता है। यों परंपरा प्रसाद मुफ्त का माल है, तो भी इसे पाने के लिए कुछ न कुछ जतन तो करने ही होते हैं। पहला प्रयास है-प्रसाद पाने की इच्छा। गहरी इच्छा कर्म में ठेलती है, तब इसके लिए जरूरी कर्म अपने आप शुरू हो जाते हैं। हम भारत के लोगों का अपना एक सुदीर्घ इतिहास है। यह इतिहास भी इतना प्राचीन है कि पुराने इतिहास की खोज के लिए हम सबने प्रागैतिहासिक काल जैसी कल्पना भी की है। रामायण और महाभारत में इतिहास की सामग्री है और इसके पहले उपनिषदों व वेदों में भी। लेकिन यूरोपीय तर्ज के इतिहास से बंधे होने के कारण हम उन्हें काव्य के खांचे में डाल देते हैं। ऐसा करके हम स्वयं को प्रगतिशील कहला सकते हैं, लेकिन परंपरा के प्रसाद से वंचित हो जाते हैं। विश्वामित्र, वशिष्ठ, अथर्वा, वामदेव आदि वैदिक ऋषि कवि हैं। इक्ष्वाकु सुदास आदि राजा हैं। वेदों को इतिहास से अलग रखकर हम ऐसे दार्शनिक कवियों ऋषियों की परंपरा का प्रसाद कैसे पा सकते हैं?
परंपरा और आधुनिकता में कोई अंतर्विरोध नहीं। आधुनिकता परंपरा की ही पुत्री है। परंपरा मां जैसी प्रौढ़, अनुभवजन्य और वात्सल्यपूर्ण। आधुनिकता पुत्री जैसी नूतन, अनुभव प्राप्त करने को तत्पर और गतिशील। पुत्री मां का ही विस्तार है। पुत्री के भीतर मां अभी भी विराजमान है। इसी तरह आधुनिकता के भीतर परंपरा की उपस्थिति जरूरी है। आधुनिकता का कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं, लेकिन कुछेक प्रगतिशील विद्वान ‘दूसरी परंपरा’ की बातें करते हैं। परंपरा पहली, दूसरी या तीसरी नहीं होती, हो भी नहीं सकती। सृष्टि का हरेक जीव देश-काल के भीतर है। मानव समाज ने आदिम काल से लेकर आधुनिक काल तक बहुत लंबी यात्रा की है। वामपंथी विचारक मनुष्य और प्रकृति के बीच अंतर्विरोध देखते हैं। वे मानते हैं कि मनुष्य प्रकृति से लड़ते हुए आधुनिक हुआ है। वस्तुतः मनुष्य और प्रकृति के बीच कोई संघर्ष नहीं है। मनुष्य प्रकृति का ही हिस्सा है। कोई अपने ही अंग से लड़कर विकास नहीं कर सकता। भारत के प्राचीन चिंतन में प्रकृति के साथ नेहपूर्ण संबंधों की ही चर्चा है। सूर्य, नदी, पर्वत, पृथ्वी, कीट, पतिंग के प्रति भी प्रेम इन्हीं संबंधों की विशेषता है।
भारत के पास विशाल वैदिक साहित्य है। तमाम पुराकथाएं हैं, रामायण, महाभारत जैसे महाकाव्य हैं। हिंदू परंपरा की पूंजी बड़ी है। यहां अनेक ऋषि हुए हैं। दार्शनिक, संत, कवि, योगी, साधक और सिद्ध अपने अपने अनुभवों की संपदा छोड़ गये हैं। लेकिन आधुनिक सोंच ने परंपरा प्राप्ति की बात को ही सिरे से खारिज कर दिया है। परंपरा विरोधी होना आज का फैशन है। सो परंपरा के विकल्प बताए जा रहे हैं। विकल्प खोजना बुरा नहीं। ऋग्वेद के ऋषि बता गये हैं “सत्य एक है, विद्वान उसे कई तरह से बताते हैं।” विकल्प पर विचार भी भारतीय परंपरा का ही प्रवाह है, लेकिन विकल्प देते समय अपने ही ‘वाद’ को ठीक और पूरी चिंतन परंपरा को गलत बताना कैसे ठीक होगा? मार्क्सवाद एक विचार है, लेकिन यही एक मात्र विकल्प नहीं हो सकता। यह भी एक विकल्प हो सकता है और अन्य विकल्प भी। भारतीय परंपरा का सूत्र है-नेति। यही अंतिम नहीं-न इति/नेति। नेति भी अंतिम सत्य नहीं। परंपरा ने ही विज्ञान और दर्शन के बोध उपकरण दिये हैं। पूर्वजों ने प्रमाण, अनुमान और सिद्ध वचनों के माध्यम से सत्य की खोज यात्रा जारी रखने का आह्वान किया है। पूर्वजों ने बहुत कुछ खोजा था। हम सबको आगे भी खोज जारी रखनी है। परंपरा सत्य अभीप्सु है। परंपरा से कटकर हमारे पास सही गलत जांचने की दृष्टि नहीं बचती। परंपरा के किसी भाग को रूढ़ि या कालवाह्य ठहराने के लिए भी परंपरा का ही सहारा लेना पड़ता है।
परंपरा इतिहास है। इतिहास में सब कुछ शुभ ही नहीं होता। इतिहास का शुभ्र पक्ष अनुकरणीय होता है, वह आगे की पीढ़ी द्वारा अंगीकृत कर लिया जाता है। प्रवाह जारी रहता है। भूल, चूक और मनुष्यता विरोधी कृत्य कूड़ा करकट की तरह छूटते जाते हैं। दुनिया बड़ी है। बेशक दुनिया के सारे मनुष्य एक दूसरे को प्रभावित करते हैं, लेकिन इतिहास की खास घटनाओं, सभ्यता, संस्कृति व दर्शन के विकास का एक भूगोल भी होता है। यूनान में दर्शन का गहन विकास हुआ। इस दर्शन से एक विशेष प्रकार की संस्कृति का भी विकास हुआ। इटली से शुरू हुए पुनर्जागरण में यूनानी दर्शन का योग माना जाता है। भारत में दर्शन का विकास यूनानी दर्शन की शुरूवात (ईसा पूर्व 600) के पहले ही हो चुका है। जब यूनान का दर्शन विकसित ही हो रहा था तब भारत में बुद्ध दर्शन का आलोक था। ऋग्वेद, उपनिषद् दर्शन और कपिल का सांख्य बुद्ध से भी पहले ही उग चुके थे। भारतीय परंपरा स्वाभाविक ही इस दर्शन से प्रभावित हुई और विकसित भी। इस परंपरा के विकास में विज्ञान, दर्शन व जिज्ञासा आधारित जीवनशैली की भूमिका है।
बेशक दर्शन लोक से नहीं जुड़ता, लेकिन दर्शन आधारित परंपरा लोक की भूमि में ही गतिशील होती है। लोक अनुश्रुति, कथा और आख्यानों के सहारे परंपरा को जीवन्त रखता है। पुराणों में इतिहास की सामग्री है, आख्यान हैं, कथाएं हैं। लोक इनसे विवेक और आनंद पाता रहा है। मातृ देवो भवः, पितृ देवो भवः और अतिथि देवों भवः तैत्तिरीय उपनिषद् के सूत्र हैं। नदियां माताएं हैं, वनस्पतियां देवता हैं। ये सूत्र ऋग्वेद में हैं। भारतीय परंपरा सतत् कर्म और गहन परिश्रमी जीवन पर जोर देती है। समूचे विश्व को परिवार जानती आई है। केवल मनुष्य जाति को ही नहीं, समूचे ब्रह्मांड को। लोकजीवन में इनका उपयोग है। विवाह के माध्यम से पति-पत्नी का आजीवन प्रीतिपूर्ण साहचर्य भारतीय परंपरा है। विवाह भारत की नेहपूर्ण मंगल परंपरा है। इसी तरह के ढेर सारे सूत्र भारतीय परंपरा का भाग हैं। समूची परंपरा को ही कालवाह्य बताने से ऐसे सारे सूत्र छूट जाते हैं। पूंजी छोड़कर ब्याज के चक्कर में पूंजी ही छोड़ देना सरासर मूर्खता है। हम सब परंपरा का ही आधुनिक भाग हैं। आगे हम सब इसी परंपरा का अतीत भाग बनने वाले हैं। हम अतीत की पीढ़ी के सत्कर्म खारिज करते हैं तो भविष्य की पीढ़ी हमारे सत्कर्म भी खारिज करेगी।
भारतीय परंपरा आस्था नहीं है। आस्था परंपरा के भीतर है। इस परंपरा में वाद-विवाद हैं। तर्क-प्रतितर्क हैं, तर्क और विवेक आधारित अनुभूतिजन्य दर्शन भी हैं। मुंडे मुंडे मतिर्भिन्नः-हर व्यक्ति की अलग राय भी हैं। इस परंपरा में मजहब या पंथों जैसे ईश्वरीय आदेश नहीं है। ईश निंदा पर मृत्युदंड नहीं है। आस्तिक के लिए ईश्वर विश्वासी होने की आवश्यकता नहीं है। इस परंपरा में ‘वेद निंदक’ को ही नास्तिक कहा गया है। यहां यह बताने की जरूरत नहीं कि वेद का शाब्दिक अर्थ ज्ञान है और ज्ञान की निंदा उचित नहीं। वेद का रूढ़ अर्थ ऋग्वेद आदि चार वेद हैं। वे प्राचीन ज्ञान संकलन हैं। ऋग्वेद प्राचीनतम हैं। इन्हें खारिज करना परंपरा से कटना है। इन्हें जानकर आगे की ज्ञान यात्रा पर निकलना आस्तिकता है। इन्हें मानने का कहीं कोई निर्देश नहीं। बेशक कुछेक पुराहित संप्रदायों ने इन्हें मानने पर भी जोर दिया है, लेकिन अनेक ने इन पर शोध और बोध का भी आह्वान किया है। इस परंपरा में सोंच, विचार, कर्म और आस्तिकता नास्तिकता के चयन का परिपूर्ण स्वातंत्रय और लोकतंत्र है। परंपरा का यह प्रसाद मधुरस से डूबा हुआ है। इसे नमस्कारपूर्वक चखकर आगे बढ़ने में कठिनाई क्या है?

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