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बिल में गया महिला आरक्षण बिल !

आरती कनौजिया

महिला-woman

नई दिल्ली।देश में राजनीतिक दलों के होश उड़ा देने वाला विवादास्पद महिला आरक्षण विधेयक कम से कम अगली लोकसभा के आने तक ठंडे बस्ते में चला गया है। अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्री के समय से जिन्न की तरह से पीछा करता आ रहा यह विधेयक कई बार लोकसभा में राजनीतिज्ञों की नींद हराम कर चुका है। देश में बदले सत्ता समीकरणों के कारण इस लोकसभा में इसके पारित होने की अब कोई संभावना नज़र नहीं आती। महिला विधेयक पर बनी समिति भी अभी तक इस पर अपनी रिपोर्ट नहीं दे सकी है। इसलिए बिल में ही चला गया लगता है यह आरक्षण बिल।
चुनाव क्षेत्र परिसीमन के बाद अगर किसी विधेयक ने राजनीतिक दलों को भारी संकट में डाला है तो वह है महिला आरक्षण विधेयक। लोकसभा और उसके बाहर महिला आरक्षण को लेकर भारी हंगामा हुआ है। एचडी देवगौड़ा की सरकार में बारह सितंबर 1996 को पहली बार इसे लोकसभा में पेश किया गया था जिसमें लोकसभा और राज्य विधानसभाओं में 33.3 प्रतिशत सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित करने का प्रावधान है। इस विधेयक पर कई बार हंगामें के कारण लोकसभा अपना काम-काज नहीं कर सकी। कई राजनीतिक दल इसके वर्तमान स्वरूप के पूरी तरह खिलाफ हैं जिस कारण इसे किसी न किसी आपत्ति पर टाला जाता रहा है। इस बार भी इसे आनन-फानन में लोकसभा में पेश किया गया किंतु अभी तक यथास्थिति है।
समाजवादी पार्टी इस बिल के मौजूदा प्रावधानों के पूरी तरह विरोध में थी और आज भी है। मुलायम सिंह यादव, राजग अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव और जनता दल यू के शरद यादव सहित कुछ अन्य सदस्य भी इसके पक्ष में नहीं हैं। आशंका यह है कि इस बिल से देश का पुरुष समाज राजनीति की मुख्य धारा से पूरी तरह कट जाएगा जिसका राजनीति पर सबसे बुरा असर पड़ेगा। बिल के पक्ष में तर्क यह है कि पंचायतों में महिलाओं को आरक्षण दिया तो गया है उससे पंचायतों में बड़ी तादाद में देश की महिलाएं पांच वर्ष के लिए निर्वाचित होकर राजनीति की मुख्यधारा में शामिल हो रही हैं। विधेयक के विरोध में तर्क यह है कि आरक्षण दिया जाए लेकिन उसका प्रतिशत घटाकर दस प्रतिशत कर दिया जाए। कुछ और भी धाराएं हैं जिनपर आपत्तियां हैं इनमें चक्रानुसार और आरक्षित सीटों पर गतिरोध है।
सपा अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव ने लोकसभा में हमेशा कहा है कि महिला आरक्षण 33 प्रतिशत न होकर केवल दस प्रतिशत किया जाए। इसमें क्षेत्रों के आरक्षण की भी बाध्यता नहीं होनी चाहिए। यह राजनीतिक दलों पर छोड़ा जाए कि वह कहां से महिला को चुनाव लड़ाते हैं। इसके साथ ही आरक्षण की चक्रानुसार व्यवस्था को तो हर स्तर पर खत्म किया जाए क्योंकि इससे जनप्रतिनिधि और जनता के बीच का रिश्ता खत्म होता जा रहा है। इससे जनता का कोई काम नहीं हो रहा बल्कि भ्रष्टाचार को तेजी से बढ़ावा मिल रहा है। इसके पारित होने से पूरी लोकसभा का स्वरूप ही बदल जाएगा। लालू यादव का भी ऐसा ही कहना है। वे भी कह रहे हैं कि इस प्रकार आरक्षण नहीं चाहिए।
वास्तव में अभी भारतीय महिलाओं में वह राजनीतिक जागरूकता नहीं आई है जिससे वे देश की आर्थिक सामाजिक समस्याओं और विश्व समुदाय की तेज तर्रार चुनौतियों का सामना सकें।

तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मुलायम सिंह यादव ने दस प्रतिशत आरक्षण की बात कही थी। उस समय भारत के चुनाव आयुक्त पीएस गिल भी तैयार थे कि संविधान में संशोधन किए बगैर ही महिलाओं को लोकसभा में आरक्षण दिया जा सकता है। इसके लिए केवल इतना भर करना होगा कि चुनाव आयोग राजनीतिक दलों के लिए अपनी शर्तों में एक लाइन जोड़ देगा कि जो भी राजनीतिक दल महिलाओं के लिए निर्धारित आरक्षण नहीं देंगे उनके राजनीतिक दल का पंजीकरण ही समाप्त कर दिया जाएगा। मजे की बात है कि महिलाओं को विशेष अवसर देने की बात सबसे पहले सपा ने कही थी और इस पर राजनीतिक दलों में कई बार विचार विमर्श की शुरूआत भी सपा ने ही की और वही इसके प्रावधानों से प्रभावित भी हो रही है।
ऐसा पहली बार हुआ कि इस बार संसद में जो महिला आरक्षण बिल पेश किया गया उसकी प्रति देश के कानून मंत्री तक के पास नहीं थी। उसकी सहमति के लिए जरूरी समर्थन भी नहीं जुटाया गया। इस विधेयक के अनुसार महिलाओं को जो आरक्षण दिया जाएगा सीटें भी आयोग ही तय करेगा जिस पर सपा जैसे राजनीतिक दलों का कहना है कि यह देश की राजनीति के लिए एक बंधक जैसा कानून होगा। समाजवादी पार्टी इसी के खिलाफ खड़ी हुई है और उसने यह मामला जोर शोर से उठाया है कि पिछड़े अनुसूचित जनजाति, अल्पसंख्यक का आरक्षण अलग से कर दिया जाए क्योंकि इन वर्गों की महिलाएं ऐसी नहीं है कि सीधे लोकसभा चुनाव लड़ सकें।
मुलायम सिंह यादव ने उन कमियों को गिनाया है जिनके कारण महिला आरक्षण बिल की प्रासंगिकता पर सवाल खड़े होते हैं। उनका कहना है कि कुछ ही लोग हैं जो जबरदस्ती में इस बिल को पेश किए थे। उनका इस बिल के नुकसान और महत्व से कोई मतलब नहीं है। मुसलमान, सिख, ईसाई, पिछडे़ वर्ग और अनुसूचित जाति के लिए पार्टियों को ही आरक्षण तय करने की छूट दी जानी चाहिए। अगर ऐसा होता है तो फिर सवर्ण जातियों का क्या होगा? क्योंकि पहले से ही 22 प्रतिशत आरक्षण मौजूद है। महिला बिल की स्थिति यह हो गई है कि अगर इस पर सहमति नहीं बनी तो मुलायम कह चुके हैं कि लालू यादव और शरद यादव के साथ मिलकर देश में इसके खिलाफ जनजागरण किया जाएगा। रैली की जाएंगी क्योंकि यह महिला बिल गरीबों के नेतृत्व को खत्म करने की साजिश है। इससे केवल संपन्न और धनवान लोग ही लोकसभा में आ सकेंगे।
महिला आरक्षण की चर्चा के बीच यह प्रश्न भी उठा है कि इस तथ्य का अध्ययन और अनुभव इस बिल में शामिल है कि नहीं कि सरकार ने पंचायतों में जो आरक्षण दिया था उसके कैसे परिणाम देश के सामने आए हैं? चक्रानुसार आरक्षण से क्या फायदे और नुकसान हुए हैं? पंचायतों की बैठक में आज भी महिलाएं घुंघट निकालकर जाती हैं। मुस्लिम महिलाएं बुर्के से बाहर नहीं निकल पाती हैं। जो बैठकों में जाती हैं तो वहां के चतुर अधिकारी और कर्मचारी उन्हें जैसा तैसा पढ़ा देते हैं क्योंकि उनके प्रतिनिधियों या पति को उस बैठक में मौजूद होने की आज्ञा नहीं होती। वहां उनका परिचय प्रधान पति ब्लाक पति प्रमुख और जिला पंचायत अध्यक्ष पति के रूप में होता है। यह स्वरूप बिगाड़ा है चक्रानुसार आरक्षण ने जो कि देश के राजनीतिज्ञों और जनता के बीच गहरी खाई बना रहा है। ऐसे आरक्षण का महिलाओं को भी पर्याप्त लाभ नहीं मिलेगा क्योंकि यदि लोकसभा क्षेत्रों के चयन का अधिकार भी दूसरों के पास होगा तो जागरूक महिलाएं राजनीति में नहीं आ पाएंगी। बहरहाल इस लोकसभा में इस बिल का पारित होना मुश्किल ही लगता है।

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