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खामोशी के 'शेर' से गहराईं और भी ज्यादा शंकाएं!

Sunday 9 September 2012 11:39:42 AM

अवधेश कुमार

अवधेश कुमार

डॉ मनमोहन सिंह-dr. manmohan singh

नई दिल्ली। संसद में अपना बयान न देने को मजबूर किए गए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने बाहर पत्रकारों के सामने जो शेर पढ़ा-‘हजारों सवालों से अच्छी है, मेरी खामोशी, न जाने कितने सवालों की आबरु रखी।’ इसका वास्तविक निहितार्थ एवं इस समय की प्रासंगिकता वे ही बेहतर बता सकते हैं। कदाचित वे यह संदेश देना चाहते थे कि यह विषय, सवाल जवाब का है ही नहीं और उन्होंने खामोश रहकर आरोप लगाने वालों की भी इज्जत बचाई है। यह अलग बात है कि प्रधानमंत्री का यह ‘शेर’ तभी से उन्हीं की ओर दहाड़ रहा है और मुख्य विपक्ष भाजपा उससे विचलित नहीं दिखती है। प्रधानमंत्री के वक्तव्य के अनुसार उनकी नज़र में कोयला ब्लॉक आवंटन पर कैग के आकलन ग़लत और अनावश्यक हैं, इस वक्तव्य से ही साफ हो गया था कि प्रधानमंत्री संसद में अपना वक्तव्य नहीं देंगे और ऐसा ही हुआ। बहरहाल वक्तव्य और खामोशी के ‘शेर’ से और भी ज्यादा शंकाएं गहरा गई हैं।
भाजपा के रवैये को लेकर चाहे जितने प्रश्न उठाए जाएं, लेकिन प्रधानमंत्री द्वारा न पढ़े जा सके वक्तव्य में जिस तरह कोयला आवंटन पर कैग की रिपोर्ट तथा विपक्ष के आरोपों को स्पष्ट तौर पर पूरी तरह नकारा गया है, उसे केवल राजनीतिक रणनीति वाला वक्तव्य ही माना जा सकता है, जिसमें विपक्ष का संतुष्ट होना तो दूर, उल्टे उसके और उत्तेजित होने के तत्व ही समाहित हैं। यह खामोशी न किसी के सवाल पर उसकी इज्जत बचाने वाली तो नहीं ही लगती है। प्रधानमंत्री ने अपने वक्तव्य में कह ‌दिया है कि मंत्रालय ने जो निर्णय लिया है, मैं उसकी पूरी जिम्मेदारी लेता हूं, लेकिन साथ ही कैग का अवलोकन विवाद्य है, इसमें अनियमितता के आरोपों का कोई आधार नहीं है एवं ये तथ्यों से भी साबित नहीं होते और यह नीति 1993 से चल रही है।
अगर इन तीनों बिंदुओं को ही आधार बनाया जाए तो यह सीधे-सीधे कैग के रवैये को सवालों के घेर में लाता है। विपक्ष, खासकर भाजपा एवं राजग के आरोपों का नकारते हुए उसे कठघरे में खड़ा करता है, यह भाजपा या विपक्ष कैसे स्वीकार हो सकता है? विस्तार से अपनी बातों को साबित करते हुए मनमोहन सिंह ने जो कुछ कहा है वह कैग को कठघरे में खड़ा करने और उसकी पूरी सोच पर प्रश्न खड़ा करने वाला है। कैग के अवलोकन के तीन आधारों-आवंटन में पारदर्शिता और वस्तुनिष्ठता का अभाव, प्रतिस्पर्धात्मक बोली से आवंटन की नीति जानबूझकर न बनाने, इसे लंबी कानूनी समीक्षा में लटकाने तथा इसके कारण निजी कंपनियों को लाभ पहुंचने एवं सरकारी खजाने को 1 लाख 86 हजार करोड़ रुपए की क्षति को प्रधानमंत्री ने सीधे तौर पर खारिज कर दिया है।
कैग की रिपोर्ट का तीखा विरोध पहली नज़र में ही कांग्रेस एवं सरकार के मंत्रियों के दिए गए पूर्व बयानों की ही प्रतिध्वनि माना जाता है। प्रधानमंत्री वर्ष 1993 की बात करके क्या यह कहना चाहते हैं कि कैग ने कोयला आवंटन से जुड़े तथ्य जानबूझकर छिपाए? ध्यान रहे कि 1993 के बाद भाजपा के नेतृत्व में एनडीए की सरकार थी। कहने की आवश्यकता नहीं कि प्रधानमंत्री देश को यह बता रहे हैं कि भाजपा ने भी अपने शासनकाल में इसी नीति का पालन किया। दूसरे शब्दों में वे भाजपा को पाखंडी साबित करना चाहते हैं, जिसने स्वयं तो उसी नीति का पालन किया और उनकी सरकार के भी उस नीति पर चलने को आधार बनाकर यूपीए पर हमला कर रही है।
प्रधानमंत्री की यह बात सामान्य तौर पर ही सही लगती है कि 1973 में संसद में पारित कानून से कोल खदानों के राष्ट्रीयकरण के बाद से ही कोयला ब्लॉक का आवंटन अंतर्मंत्रालय स्क्रीनिंग कमेटी से होता रहा है। इसमें राज्य सरकारों के तथा कोयला कंपनी के प्रतिनिधि भी शामिल होते हैं, किंतु 1973 एवं 2006 की भारतीय अर्थव्यवस्था और इसमें दौड़ लगाने वाले निजी खिलाड़ियों के बीच जमीन आसमान का अंतर आ गया है। वे स्वयं कहते हैं कि जैसे-जैसे अर्थव्यवस्था का आकार बड़ा हुआ है, कोयले की मांग बढ़ी और यह साफ हो गया कि कोल इंडिया लिमिटेड बढ़ती मांग की अकेले पूर्ति नहीं कर सकती। वे इस बात को तो स्वीकार करते हैं कि बढ़ती मांग और आवेदकों की बढ़ती संख्या देखकर सरकार ने सन् 2003 में आवंटन में सुसंगति एवं पारदर्शिता सुनिश्चित करने के लिए विस्तृत मार्गनिर्देशक तैयार किया, (उस समय केंद्र में भाजपा के नेतृत्व वाली राजग की सरकार थी।) लेकिन इसे आगे ले जाकर वे नीतिगत रुप देने की विफलता स्वीकार नहीं करते।
इसका क्या अर्थ है? यह सामान्य समझ में आने वाली बात है कि मार्ग निर्देश जारी करने की नौबत ही इसीलिए आई, क्योंकि खदानों को पाने के लिए कई प्रकार के गलत रास्ते अपनाने के आरोप आ रहे थे। प्रश्न है कि इसके बाद जब संप्रग सरकार सत्ता में आई उसने क्या किया? प्रधानमंत्री कहते हैं कि उनकी सरकार 2004 में ही प्रतिस्पर्धात्मक बोली से आवंटन का विचार सिद्धांत रुप में लाई, अगर 2004 में ही यह विचार आया तो फिर 2006 तक या आज तक इसे नीति का रुप क्यों नहीं दिया गया? प्रधानमंत्री का अपने पक्ष में दिया गया तर्क है कि इसके लिए आयोजित पहली बैठक में कानूनी मामलों के विभाग ने कोयला खदान राष्ट्रीयकरण कानून में तथा दूसरी बैठक में खदान एवं खनिज (विकास एवं विनियमन) कानून में भी संशोधन का सुझाव दिया। इसके बाद वे विपक्ष के राज्यों के प्रतिस्पर्धात्मक बोली के विरुद्ध लिखे गए पत्रों का हवाला देते हैं।
ये सारी बातें अलग-अलग स्तरों से पिछले एक सप्ताह में देश के सामने आ चुकी हैं। प्रधानमंत्री के वक्तव्य में केवल उनका एक साथ सिलसिलेवार वर्णन है। इसमें अगर कुछ नया है तो इन सबकी जिम्मेदारी अपने सिर लेना। यही तो विपक्ष भी कह रहा है कि सारी जिम्मेदारी ही उनके सिर आती है। इससे अंतर क्या आ सकता है? हम एक हद तक यह मानने को तैयार हैं कि संसदीय प्रणाली में उस तरह कुछ घंटों एवं दिनों में विधान नहीं बन सकता, जिस तरह कैग, नीति के लिए प्रशासनिक आदेश की बात करता है। हम वर्तमान अर्थनीति से असहमत होते हुए भी यह स्वीकार करते हैं कि इसमें तीव्र विकास के लिए उर्जा की आवश्यकता को देखते हुए कोयला आवंटन को तब तक नहीं टाला जा सकता, जबतक कि नया विधान न बन जाए। सभी ने यह मत व्यक्त किया होगा।
प्रधानमंत्री का यह तर्क एक सीमा तक स्वीकार करने योग्य है कि कोयले के मूल्य का केवल व्यवसायिकता के आधार पर मूल्यांकन नहीं होना चाहिए, इसका उपयोग कहां हो रहा है और उसमें लागत कितनी घटी है, उससे होने वाले उत्पादन के मूल्यों पर इसका कितना असर है...आदि बातों का आकलन अत्यावश्यक है। यह दावा करने भर से कि कंपनियों के रिकार्ड, उनकी क्षमता, उनकी योजनाओं की छानबीन के बाद पारदर्शी और तकनीकी दृष्टि से पूर्ण आधार पर आवंटन हुआ, भ्रष्टाचार या कंपनियों को लाभ पहुंचने के आरोपों का खंडन नहीं हो जाता। बेशक, किसी प्रक्रिया को पूरी तरह खलनायक नहीं बनाया जाना चाहिए, क्योंकि लाभ उठाने वाले हर पक्रिया में अपनी जगह बना लेते हैं, पर किसी संसदीय प्रक्रिया में आठ वर्षो तक विधान न बनना भी एक रिकार्ड और आश्चर्य की बात है, जो शायद हमारे देश में ही स्वीकार्य हो।
सामान्य स्थिति में कैग जो भी रिपोर्ट देता है, संसद की लोकलेखा समिति उसका मूल्यांकन करती है, जो आरोप उसमें लगे होते हैं, उसकी छानबीन भी करती है और उसकी रिपोर्ट पर संसद में बहस होती है, किंतु देश ने देखा कि 2 जी मामले पर लोकलेखा समिति किस तरह राजनीति का शिकार हुई और उसके अध्यक्ष की अवमानना और उनकी साख को संदिग्ध बनाकर रिपोर्ट को आने के पूर्व ही विवादास्पद बनाने की रणनीति सरकारी पक्ष के सदस्यों ने अपनाई। प्रधानमंत्री ने 2 जी मामले में भी कहा था कि वे उसके सामने गवाही देने को तैयार हैं, लेकिन ऐसा हुआ नहीं। कांग्रेस एवं सरकार ने इसे अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाया। इस समय भी जब प्रधानमंत्री कैग और विपक्ष दोनों को कठघरे में खड़ा कर रहे हैं तो इसका अर्थ राजनीतिक टकराव को कम करने की मानसिकता नहीं है। इसमें प्रधानमंत्री का यह कहना कि उन्हें संसद में अपनी बात रखने तथा इससे जनता के अवगत होने का अवसर विपक्ष नहीं दे रहा, पूरी तरह स्वीकार्य नहीं हो सकता।
विपक्ष के रवैये को शत-प्रतिशत वाजिब ठहराना यकीनन संभव नहीं है, किंतु जब तक प्रधानमंत्री यह स्वीकार नहीं करेंगे कि कुछ गड़बड़ियां हुईं हैं, तब तक उनका कोई वक्तव्य विपक्ष या जनता को संतुष्ट नहीं कर सकता। कैग और विपक्ष को गलत साबित करना, अपनी एवं सरकार को बिल्कुल सही साबित करना और दूसरी ओर संसद न चलने का दोष सिर्फ विपक्ष के सिर मढ़ने के बीच पूरी सुसंगति नहीं बैठती। इसमें प्रधानमंत्री का खामोशी का शेर भी गलत साबित हो जाता है, क्योंकि यह खामोशी नहीं, खामोशी का मतलब हां होता है और उसकी आड़ में तीखा जवाबी हमला भी है। इसका उद्देश्य केवल अपनी सरकार को सही एवं विपक्ष तथा कैग को गलत साबित करना है।

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