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राहुल गांधी पीएम तो वरूण गांधी सीएम क्यों नहीं?

दिनेश शर्मा

वरूण गांधी-varun gandhi

नई दिल्ली। वरूण गांधी। जी हां! राष्ट्रवादी है, युवा है, ओजस्वी व्यक्तित्व है, भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय सचिव के पद पर आसीन है, उत्तर प्रदेश से सांसद है और शक्तिशाली राजनीतिक पृष्ठभूमि से समृद्ध, देश-दुनिया में विख्यात नेहरू-इंदिरा राजवंश से है, उसमें भी इंदिरा गांधी के सबसे प्रचंड पुत्र और एक समय युवा हृदय सम्राट कहलाए गए संजय गांधी का पुत्र है। कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी के ही समान राजनेता वरूण गांधी को इस विधानसभा चुनाव में भाजपा को उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में पेश करने में हर्ज ही क्या है? प्रदेश में भाजपा के तंगहाल और राज्य के राजनीतिक परिदृश्य को देखते हुए बहुत सारी विशेषताएं वरूण गांधी के पक्ष में खड़ी दिखाई देती हैं। जिन्होंने संजय गांधी का दौर देखा है, वे समझ सकते हैं कि पिता जैसे राजनीतिक तेवर, वरूण गांधी के भी हैं, जो भाजपा की रीति और नीति में बिल्कुल फिट बैठते हैं, इसीलिए कहने वाले कहते हैं कि वास्तव में वरूण गांधी ही मायावती और राहुल गांधी का माकूल जवाब है, यदि भारतीय जनता पार्टी, इस युवा नेता को सही मार्ग दर्शन करते हुए, यूपी के सत्ता संघर्ष में उतारे।

आइए जानते हैं कि यह समीकरण और उत्तर प्रदेश का राजनीतिक परिदृश्य क्या है?

देश के पांच राज्यों में अगले साल विधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं, जिनमें उत्तर प्रदेश राज्य भी है, जिसने इन दो दशकों में देश की राजनीतिक और सामाजिक दशा और दिशा को उलट-पलट दिया है। हर दृष्टि से अति संवेदनशील इस राज्य में सभी प्रमुख दलों ने कभी अकेले तो कभी गठबंधन बनाकर शासन किया है। कांग्रेस, भाजपा, सपा और बसपा ने यहां जो शासन दिया है, उसकी स्पष्ट तस्वीर देश के सामने है और ये दल चुनाव की जोर-शोर से तैयारियां कर रहे हैं। विधानसभा के चुनाव जैसे-जैसे नज़दीक आ रहे हैं, वैसे ही जनमानस और राजनीतिक दलों में विचार मंथन, निष्कर्ष और रणनीतियों के कदम तेज हो गए हैं। इंदिरा-नेहरू राजवंश और पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के पुत्र होने के नाते ही राहुल गांधी को कांग्रेस में देश के भावी प्रधानमंत्री के रूप में देखा और पेश किया जा रहा है। कांग्रेस का एक ख़ास वर्ग तो राहुल गांधी को तुरंत ही प्रधानमंत्री बना देना चाहता है, इसी हवा में जनसामान्य और भाजपा के कुछेक निष्पक्ष नेताओं एवं कार्यकर्ताओं में भी, इंदिरा-नेहरू राजवंश के ही वरूण गांधी को, इसी चुनाव में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में देखने की सोच पनप रही है। अकाट्य तर्कों के साथ राजनीतिक विचारकों का प्रश्न भी उछला है कि जब कांग्रेस में राहुल गांधी को देश के भावी प्रधानमंत्री के रूप में पेश किया जा सकता है, तो भाजपा में, वरूण गांधी को उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में क्यों नहीं देखा जा सकता? इस सवाल और विचार पर राजनीतिक दलों के बाहर भी गंभीर मंथन है।

वरूण गांधी और राहुल गांधी दोनों ही बराबर की हैसियत के हैं और एक ही राजवंश से राजनीति में आए हैं। दोनों की लोकप्रियता की बात करें, तो वरूण गांधी की लोकप्रियता राहुल गांधी से ज्यादा दिखाई देती है। राहुल गांधी के पीछे केंद्र में सत्तारूढ़ कांग्रेस खड़ी है, तो वरूण गांधी के साथ भी देश का दूसरा सबसे बड़ा राजनीतिक दल भाजपा है। उत्तर प्रदेश में वरूण गांधी की विशाल जनसभाएं और जगह-जगह उनकी मांग, इस बात का प्रमाण हैं कि वरूण गांधी, राहुल गांधी से किसी मायने में कम नहीं हैं। व्यक्तित्व और वाकपटुता के दृष्टिकोण से भी वरूण गांधी में राहुल गांधी से ज्यादा राजनीतिक सम्मोहन दिखाई देता है। संजय गांधी के चाहने वाले विभिन्न दलों में अभी भी बड़ी संख्या में मौजूद हैं और इस कारण भाजपा की ओर से मुख्यमंत्री पद के लिए वरूण गांधी को पेश किए जाने पर उत्तर प्रदेश के राजनीतिक दलों में बड़ी उठा-पटक और उतार-चढ़ाव से इंकार नहीं किया जा सकता। वरूण गांधी की मां, मेनका गांधी, इंदिरा गांधी की पुत्रवधु होने के साथ-साथ, एक प्रमुख राजनेता हैं, एनडीए की सरकार में केंद्रीय मंत्री रह चुकी हैं, सिख और जाट हैं। ये सारे समीकरण वरूण गांधी की राजनीतिक ताकत को और ज्यादा बढ़ाने एवं उत्तर प्रदेश में भाजपा के सत्ता संघर्ष को चरम तक पहुंचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं।

अभी तक यह स्पष्ट नहीं है कि वरूण गांधी के सगे तहेरे भाई और कांग्रेस की ओर से भारत के प्रधानमंत्री पद के एकमात्र दावेदार राहुल गांधी की शादी कब हो रही है और कहांसे, किससे हो रही है? जन सामान्य की इसमें भी महत्वपूर्ण दिलचस्पी है। राहुल गांधी के निजी जीवन के बारे में जो लोकापवाद है, उसे अनदेखा नहीं किया जा सकता। राहुल गांधी की शादी में देरी अब कई सवाल खड़े कर रही है और सोनिया गांधी परिवार इसे निजी मामला बताकर सवालों से दूर नहीं जा सकता। ऐसे सवाल देश के भावी शासनकर्ता के सार्वजनिक पक्ष को कहीं न कहीं प्रभावित तो करते ही हैं। वरूण गांधी ने एक भारतीय, बंगाली और वह भी ब्राह्मण कन्या से काशी में कांची कामकोटि के शंकराचार्य जयेंद्र सरस्वती के मठ में परंपरागत हिंदू संस्कारों के साथ विवाह कर नेहरू-इंदिरा राजवंश को 'कई आवाज़ों' और 'लोकापवादों' से भी मुक्त किया है। वरूण गांधी का तड़क-भड़क से दूर, सादगी से शादी करना हर भारतीय को बहुत अच्छा लगा। यह रणनीति भी वरूण गांधी को राजनीतिक शक्ति प्रदान करती है, साथ ही युवाओं में भी भारतीयता एवं संस्कारों का समृद्ध रोपण करती है। इस मामले में तुलनात्मक रूप से वरूण गांधी का यह पक्ष भी राहुल गांधी के पक्ष से बिल्कुल स्पष्ट और बलवान माना जाता है।

कुछ समय पहले लखनऊ में भाजपा की राष्ट्रीय कार्यसमिति की बैठक में भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी ने यूं तो स्पष्ट कर दिया है कि उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव में पार्टी की ओर से किसी को मुख्यमंत्री के रूप में पेश नहीं किया जाएगा, मगर उत्तर प्रदेश की जनता और भाजपा का कार्यकर्ता भी यही जानना चाहता है कि उत्तर प्रदेश में भाजपा किस चेहरे के साथ विधान सभा चुनाव में उतरेगी? केवल मीडिया के सामने रोजाना गरजते और अपने लिए लॉबिंग कराते घूम रहे भाजपा के तथाकथित 'बड़े नेताओं' के चेहरों में अब कोई दम नज़र नहीं आता है, इसलिए उत्तर प्रदेश के संदर्भ में, नितिन गडकरी के लिए यह आवश्यक माना जा रहा है कि वे किसी चेहरे को सामने लाएं। उत्तर प्रदेश में सामान्य रणनीतियों से बसपा अध्यक्ष मायावती की राजनीतिक ताकत का सामना इतना आसान नही है, जितना भाजपा नेतृत्व समझ रहा है। मायावती आज हर प्रकार से शक्तिशाली हैं और सत्ता के लिए निर्णायक वोट बैंक उनके पास है, मुकाबला करने के लिए किसी 'करिश्माई चेहरे' को सामने लाए बिना भाजपा का काम चलने वाला नहीं है।

उत्तर प्रदेश में भाजपा के भीतर झांकिए तो हालात इतने खराब हैं कि मौजूदा फार्मूले से उसकी यूपी की सरकार में वापसी संभव नहीं लगती है। भाजपा नेतृत्व को यह स्वीकार करना होगा कि उसका कार्यकर्ता, सत्ता में बने रहने के लिए पूर्व में हुए बेमेल राजनीतिक समझौतों से, न केवल निराश है, अपितु इस कारण उत्तर प्रदेश में भाजपा के दिग्गज कहे जाने वाले अधिकांश नेताओं से घोर नफरत भी करता है। कल्याण सिंह, राजनाथ सिंह और उनके बाद रामप्रकाश गुप्त की भाजपा के मुख्यमंत्री के रूप में शर्मनाक विफलता सबके सामने है। इनकी विवादास्पद कार्यप्रणालियों, बड़बोलेपन और राष्ट्रीय नेतृत्व के बार-बार बसपा से समझौतों से उत्तर प्रदेश में भाजपा दूसरों की गुलाम और बदनाम हो गई। उत्तर प्रदेश भाजपा में आज गुटबाजी अपने चरम पर है। 'श्रीमान' एक दूसरे की टांग खींचते और किसी न किसी की मार्केटिंग करते नज़र आ रहे हैं। उत्तर प्रदेश भाजपा में चुनाव अभियान समिति और चुनाव प्रबंधन से जुड़ी कुछ कमेटियों को लेकर ही नाराज़गी और गुटबाजी है। ऐसे हालात में भाजपा क्या एक जुट होकर चुनाव जीत सकेगी?

पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह के विश्वासपात्र रहे और इस समय भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष सूर्यप्रताप शाही, भाजपा को सत्ता के संघर्ष में खड़ा करने की कोशिशें तो खूब कर रहे हैं, लेकिन साथ ही भीतरघात से भी पीड़ित माने जाते हैं। भाजपा में उनका भी भावी मुख्यमंत्री के रूप में दावा हो सकता है, लेकिन भाजपा को सत्ता के द्वार पहुंचाने की क्षमता उनमें नहीं दिखती है। ऐसे ही राज्य के पूर्व मंत्री एवं प्रदेश भाजपा के पूर्व अध्यक्ष कलराज मिश्र, ब्राह्मणों के नाम पर भी विधानसभा चुनाव जीतने की क्षमता नहीं रखते, मगर उनके तेवर देखिए कि वे अभी से ही अपने को मुख्यमंत्री का दावेदार प्रचारित करा रहे हैं। कलराज मिश्र की राज्य के वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में हैसियत को सब जानते हैं, भले ही आज वे भाजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष हैं। विधानसभा और उत्तर प्रदेश भाजपा के पूर्व अध्यक्ष केशरीनाथ त्रिपाठी की भी कमोवेश यही स्थिति है। उत्तर प्रदेश भाजपा में और भी कुछ चेहरे हैं, जो अपनी जगह तो बना रहे हैं, मगर उनकी स्थिति अभी मायावती की राजनीतिक शक्ति के सामने कोई मायने नहीं रखती है। इसीलिए यह यक्ष प्रश्न है कि मौजूदा भाजपा नेताओं में कौन करिश्माई चेहरा है, जो उत्तर प्रदेश में अगले साल होने वाले सत्ता के महासंग्राम में खड़ा हो सके?

उत्तर प्रदेश में भाजपा की मदद के लिए हाईकमान की ओर से भेजी गईं मध्यप्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री और भाजपा की वरिष्ठ नेता उमा भारती को भी यहां के कुछ गुटबाज भाजपाई नेता काम नहीं करने दे रहे हैं। वे किन्हीं के इशारों में उमा भारती को यहां से भी उखाड़ने में लगे हैं, यह बात भाजपा हाईकमान को भी मालूम है। लखनऊ से दिल्ली तक सभी जानते हैं कि भाजपा के प्रमुख और वरिष्ठ नेता एवं लखनऊ के सांसद लालजी टंडन ने, लखनऊ में अपने विधानसभा क्षेत्र के उपचुनाव में, अपने पुत्र को टिकट न मिलने पर भाजपा के प्रत्याशी अमित पुरी का किस तरह विरोध किया और उसे हरवाया। अगले साल विधानसभा चुनाव में भी यही स्थिति, अधिकांश जगहों पर देखने को मिलेगी। एक समय की अनुशासित भाजपा में अब न केवल अनुशासन दरक रहा है, अपितु यहां हर नेता में जोड़-तोड़ से आगे निकलने की होड़ लगी है जो किसी नए, युवा और ताकतवर राजनीतिक पृष्ठभूमि के चेहरे को सामने लाने से कुछ हद तक नियंत्रित की जा सकती है। इसलिए लोग पूछ रहे हैं कि कुछ घिसे-पिटे और पूर्वाग्रहों से ग्रस्त भाजपा नेताओं से कैसे काम चलेगा?

बसपा और सपा के पास तो चेहरे हैं-एक के पास मायावती और दूसरे के पास मुलायम सिंह यादव। इनके दलों में उनका कोई और प्रतिद्वंदी भी नहीं है। कांग्रेस और भाजपा में उत्तर प्रदेश में नेतृत्व के सवाल पर घोर अनिश्चय की स्थिति है। कांग्रेस और भाजपा, मायावती का मुकाबला करने का दावा करती है, लेकिन वह अगर मायावती को कमज़ोर या परास्त कर सकती है, तो वह किसी सशक्त दलित कार्ड से ही संभव है, जो कांग्रेस के पास पीएल पुनिया के रूप में मौजूद है। इनके अलावा कांग्रेस के पास कोई और वैसा प्रभावशाली दलित नेता नहीं है। उत्तर प्रदेश कांग्रेस में राहुल गांधी के विकल्प के रूप में मायावती के सजातीय और उनके ख़ास प्रतिद्वंदी पीएल पुनिया के पक्ष में कुछ बातें दिखाई देती हैं, जो लोग उत्तर प्रदेश में मायावती और पीएल पुनिया के बारे में थोड़ा भी जानते हैं, वे इन्हें समझ सकते हैं। मायावती को कांग्रेस में केवल पीएल पुनिया से राजनीतिक ख़तरा है, बाकी मायावती कांग्रेस में किसी की रत्तीभर परवाह नहीं करती हैं। कांग्रेस में यही एक चेहरा नज़र आता है जो मायावती को बड़ी राजनीतिक परेशानी में डाल सकता है, यदि कांग्रेस इस चेहरे को ठीक से पढ़ सके और उसकी उपयोगिता समझ सके। उत्तर प्रदेश पर राजनीतिक नज़र रखने वाले कहते हैं कि हां, यदि कांग्रेस, राहुल गांधी को उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में पेश कर दे, तो यह जंग कांग्रेस के पक्ष में जा सकती है, मगर सवाल वही है कि कांग्रेस तो एक निश्चित एजेंडे के साथ राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनाने में लगी है, और उसके स्थानीय नेताओं के लिए यूपी का मुकाबला दूर की कौड़ी है। भाजपा के पास जो दलित नेता हैं, वे किनारे पड़े हैं और उन्हें अपने क्षेत्र के अलावा बाहर कोई नहीं जानता।

उत्तर प्रदेश में इस समय सभी दलों का लक्ष्य मायावती को सत्ता से बाहर करना है और प्रदेश की जनता भी सत्ता परिवर्तन चाहती है। उसमें भी वह मुख्यमंत्री के रूप में नए चेहरे को देखना चाहती है। वह इन दो दशकों में मुख्यमंत्री बनकर आए 'चेहरों' से भारी निराश है। उसके लिए मायावती और मुलायम एक ही समान हैं। मायावती ने तो पूरी बेशर्मी के साथ भ्रष्टाचार और राजनीति का अपराधीकरण एवं समाजीकरण करके, 'सर्वजन सुखाय, सर्वजन हिताय' जैसे आदर्श वाक्य का तमाशा बनाया है। वह अपने ही दलित समाज के साथ न्याय करने में विफल रही हैं, इसलिए सर्वजन के हित की तो बात ही छोड़िए। जहां तक समाजवादी पार्टी की बात है, तो लोग अभी भी यह नारा नहीं भूले हैं कि 'जिस गाड़ी पे सपा का झंडा, उस गाड़ी पे बैठा ग़ुंडा' इसी नारे ने चुनाव में मुलायम सिंह यादव को सत्ता से बेदख़ल किया था। सपा को उम्मीद है कि मुसलमानो के साथ होने से वह फिर से सत्ता में आ जाएगी, लेकिन मुसलमान पर पूरा यकीन नहीं किया जा सकता कि चुनाव में वह कब और किसके साथ चल दे। सर्वविदित है कि कुछ अपवादों को छोड़कर मुसलमान, हमेशा ताकतवर पक्ष के साथ खड़ा होता आया है। यदि कांग्रेस उत्तर प्रदेश में राहुल गांधी को मुख्यमंत्री पद के लिए पेश कर दे, तो संभव है कि मुसलमान, सपा और बसपा को छोड़कर कांग्रेस के साथ चल दें, क्योंकि राहुल गांधी उनके लिए नई आशा की किरण हो सकते हैं, तब सपा और बसपा के लिए मुश्किल भरा समय होगा।

स्वयं कांग्रेसी भी कह रहे हैं कि विधानसभा चुनाव में राहुल गांधी या सोनिया गांधी की केवल जनसभाओं से ही यूपी में कांग्रेस की सरकार नहीं आ सकती है, राहुल गांधी, भावी मुख्यमंत्री के रूप में मैदान में उतारे जाएं, तो बात बने और ऐसी संभावना फिलहाल न के बराबर है। कांग्रेस की यह बहुत बड़ी कमज़ोरी है कि उसकी नेता सोनिया गांधी के पास राजनीतिक दिमाग़ नहीं है। वे ड्राइंगरूम राजनीति करने वालों से घिरी रहती हैं। यूपी के चालाक कांग्रेसी उन्हें जो चाहे समझा दें। इस समय उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की बागडोर जिन हाथों में है, वे हाथ भी न केवल बहुत कमज़ोर हैं, अपितु भ्रष्ट भी कहे जाते हैं। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष रीता बहुगुणा जोशी की कार्यप्रणाली से कांग्रेसियों में आंतरिक नाराज़गी और घोर निराशा का वातावरण है। रीता बहुगुणा जोशी पर लोकसभा चुनाव सहित खर्च के लिए आए पार्टी के पैसे को लेकर गंभीर आक्षेप हैं, जिनको कांग्रेस भी प्रकट नहीं कर रही है। वैसे भी इस समय देशभर में भ्रष्टाचार को लेकर अण्णा हजारे की मुहिम से कांग्रेस की छवि खराब हो रही है। भाजपा को इस अवसर का लाभ मिल सकता है, लेकिन तभी जब भाजपा उत्तर प्रदेश के चुनाव में किसी सर्वमान्य चेहरे को सामने लाए, मगर इसी द्वंद्व में भाजपा भी कहीं न कहीं फंसी हुई है।

देश में पुरानी पीढ़ी से नई पीढ़ी को सत्ता सौंपने का दौर शुरू हो चुका है, जिसकी कई राजनीतिक दल और राजनेता पहल कर चुके हैं। उदाहरण के तौर पर उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव, अपने पुत्र अखिलेश यादव को सांसद बनवाकर, उत्तर प्रदेश समाजवादी पार्टी का अध्यक्ष बना चुके हैं। भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रह चुके राजनाथ सिंह अपने पुत्र पंकज सिंह को इस चुनाव में नेता स्थापित करने के लिए छटपटा रहे हैं। भाजपा के ही मुख्यमंत्री रह चुके कल्याण सिंह अपने पुत्र राजवीर सिंह को अपनी सत्ता सौप ही चुके हैं। राष्ट्रीय स्तर पर पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के पुत्र राहुल गांधी को देश का प्रधानमंत्री बनाने की पूरी तैयारी हो चुकी है। जम्मू-कश्मीर के राजनेता फारूख़ अब्दुल्लाह तो अपने पुत्र उमर अब्दुल्लाह को मुख्यमंत्री बनाकर कश्मीर छोड़ ही चुके हैं। देश में ऐसे और भी राजनेता और राजनीतिक दल हैं, जिन्होंने अपनी नई पीढ़ी को रास्ता दे दिया है। कई राज्यों की सत्ता युवाओं के हाथ में है, जिससे कहा जा रहा है कि भाजपा, वरूण गांधी को नए एवं युवा चेहरे के रूप में उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में उतारे। भाजपा में और भी कुछ युवा चेहरे हैं, लेकिन सवाल है कि क्या उनमें बड़ा राजनीतिक मुकाबला करने की वैसी क्षमता है, जैसी कम आयु में ही वरूण गांधी ने प्राप्त की है? एक सवाल यह भी है कि कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी का मुकाबला करने के लिए भाजपा के पास कौन सा सशक्त और युवा चेहरा है?

राजनीतिक विश्लेषकों का अभिमत है कि भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी का देश में भाजपा को सत्ता और संगठन के शीर्ष स्थान पर पहुंचाने में अभूतपूर्व योगदान रहा है। भाजपा में उनसे अलग सोचना भी बेमानी है, मगर लोकसभा चुनाव में तत्कालीन राजनीतिक परिदृश्य को नज़रअंदाज़ कर, भाजपा ने लालकृष्ण आडवाणी को प्रधानमंत्री के रूप में पेश करके एक बड़ी राजनीतिक भूल की थी। उस वक्त यदि आडवाणी के स्थान पर गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र भाई मोदी को प्रधानमंत्री पद के लिए पेश कर दिया जाता तो निश्चित रूप से केंद्र में भाजपा की सरकार होती। उस समय भाजपा में आवाज़ उठी थी, कि आडवाणी के स्थान पर मोदी को लाया जाए, लेकिन भाजपा में इस आवाज़ को अनसुना किया गया और परिणामस्वरूप भाजपा ने मुंह की खाई। भाजपा के सामने फिर एक अवसर है और यह स्थिति उत्तर प्रदेश में भी बन रही है, और भाजपा हाईकमान को इस पर वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य के हिसाब से गंभीरता से सोचना होगा। उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में जिस राजनीतिक कार्ड की जरूरत है, फिलहाल तो वह भाजपा हाईकमान की अलमारी में बंद है, और उस पर शीर्ष नेतृत्व ख़ामोश हैं, जबकि जिनका कोई मजबूत आधार नहीं है, वे अपने को उत्तर प्रदेश का अगला मुख्यमंत्री प्रचारित कर भाजपा की हंसी ही उड़वा रहे हैं।

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