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भारतीय गणतंत्र में ये आरक्षण !


अनवर वकार अल्वी

अनवर वकार अल्वी

भारत में हर साल धूमधाम से गणतंत्र दिवस मनाया जाता है। इस मौके पर देश के राजपथ पर शक्ति प्रदर्शन के साथ इस दिवस की रस्में अदा की जाती हैं। क्या यह देश जान सकता है कि उसके वे सपने कहां हैं जो भारतीय संविधान को लागू करते हुए देखे गए थे? क्या ये ही वो सपने हैं-आरक्षण, जातिवाद, राग-द्वेष, भाषा और प्रांतवाद, भ्रष्टाचार या अपराध की राजनीति? जरा सोचिए और अपने गणतंत्र दिवस की उपलब्धियों को तलाशिए।

लखनऊ में कुछ माह पूर्व शहीद स्मारक पर आयोजित वेटरन सहायता समिति की ओर से एक सभा में सरकार से यह सवाल किया गया कि क्या आरक्षण राष्ट्रहित में है? इस समिति में इलाहाबाद हाईकोर्ट के अवकाश प्राप्त जज भी बुद्धिजीवियों के साथ शरीक थे। यह सवाल आज देश के करोड़ों नागरिकों, मतदाताओं एवं अपने उज्जवल भविष्य के सपने बुन रहे छात्र-छात्राओं और प्रतियोगियों को प्राप्त, समान मूलाधिकारों के सामने है। यह वह भयावह दर्द और मानसिक उत्पीड़न का विकराल रूप है जिससे पूरा भारतीय समाज अपनी सभ्यता संस्कृति और प्रतिभा को छिन्न-भिन्न होते देख रहा है, जिसने न केवल संविधान में नागरिकों को प्राप्त समान मूलाधिकारों को प्रभावित किया है, बल्कि देश की सम्पूर्ण शासन, प्रशासन व्यवस्था को भी पीड़ित कर उसमें कुंठा की भावना पैदा कर दी है। इसके बुरे परिणाम सामने आने लगे हैं। आज प्रतिभाशाली बच्चे दूर देशों में निकल गए हैं और भारतीय मूल के कहलाकर उन देशों की प्रगति में चार चांद लगा रहे हैं। वे हमारे होकर भी अब हमारे नहीं हैं। सुनीता विलियम्स अब अमेरिकी है और उसके लिए अंतरिक्ष में अनुसंधान का काम कर रही है। कल्पना चावला भी भारत की बेटी थी लेकिन उसकी प्रतिभा उपयोग भारत ने नहीं बल्कि अमेरिका ने किया। ऐसी असंख्य प्रतिभाएं हैं जो हमसे जुदा हो गईं हैं। भारत में विकास की गति थमने का एक बड़ा कारण यह भी है कि उसको गति प्रदान करने वाली प्रतिभाएं एक किनारे हैं और केवल आरक्षण के बल पर अवसर पाने वाले अधिकांश वहां बैठे हुए हैं और पर्याप्त योग्यता के अभाव में विकास की गति को प्रभावित कर रहे हैं-यह देश के हित में किसी भी रूप में उचित नहीं ठहराया जा सकता है।
देशवासियों
ने आज़ादी की लड़ाई धर्म, जाति, वर्ग, लिंग, नस्लभेद, भाषा एवं प्रांत से ऊपर उठकर लड़ी थी। उस समय देश को गुलामी से आज़ादी हासिल करना ही मकसद था। यदि उस वक्त धर्म, जाति, वर्ग, नस्लभेद, भाषा एवं प्रांत का भेद होता तो आज़ादी नहीं मिल सकती थी। हालाकि आज़ादी देने से पूर्व अंग्रेजों ने जमीन के आधार पर बंटवारा न कराकर धर्म के नाम पर बंटवारा कर पहले पाकिस्तान और फिर भारत को आज़ादी दी जिसे एक दुखद और रक्त रंजित रूप में पाकिस्तान और भारत के नागरिक भुगत रहे हैं, दूसरे कश्मीर को मुद्दा खड़ाकर पाकिस्तान और भारत को लड़ाने की साजिश भी रच दी। इस तरह अंग्रेज फूट डालो और राज करो की बुनियाद रख गए। संभवतः उन्हें यह डर था कि यदि जमीन को आधार मानकर बंटवारा हुआ तो आगे चलकर ये दोनो देश एक हो सकते हैं। यह कड़वा सच है जिसे भारत-पाक पिछले 63 वर्षों से भुगत रहे हैं। एक गुलामी इतिहास आरक्षण के रूप में लिखा गया है जिसे किसी और नहीं बल्कि देश के ही कुछ राजनीतिक महत्वाकांक्षी और अंग्रेजों के इशारों पर काम करने वालों ने अंजाम दिया है। आज़ादी के बाद यही एक बाकी रहा था कि इस देश में और ज्यादा आग लगाने के लिए आरक्षण का सांप छोड़ दिया जाए जो एक समय बाद न केवल एक-एक को डसेगा अपितु अपने बचाव के लिए भारत फिर अंग्रेजों की शरण्‍ा में जाने के लिए मजबूर होगा। ऐसा हो रहा है और भारत की प्रतिभाएं भारत छोड़कर विदेशों में भाग रही हैं और इंतिहा यह हो गई है कि आस्ट्रेलिया जैसे देश में भी उनकी पिटाई होने लगी है। वे यहां भी पिटे और वहां भी पिट रहे हैं। विचार कीजिए कि हम कहां हैं और आरक्षण की आग किस तरह प्रतिभाओं को जला रही है।
भारत
के संविधान निर्माताओं ने भारत को एक लोकतांत्रिक, प्रजातान्त्रिक गणराज्य के रूप में स्थापित करते हुए संसार के सबसे बड़े लोकतांत्रिक संविधान की रचना की ताकि देश को आगे चलकर किसी अप्रिय विवाद से बचाया जा सके। देश के संविधान की आधारशिला देश की मुख्य धरोहर कही जाने वाली सभ्यता एवं संस्कृति और विभिन्न में एकता के आधार पर विशेष ध्यान रखते हुए देश के सभी नागरिकों को भेदभाव किये बिना धार्मिक स्वतन्त्रता, विचारों की अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता स्वतन्त्र मताधिकार, राजनैतिक दलों एवं प्रत्याशियों को अपनी मर्जी से चयन करने का अधिकार सरकारी और गैर सरकारी संस्थाओं में योग्यता के आधार पर चयनित किये जाने, सेवा प्राप्त करने जैसे समान मूलाधिकार प्रदान किये। वहीं समाज के दबे कुचले पिछड़े लोगों को भारतीय समाज में सम्मान दिये जाने के लिए अलग से 20 सूत्रीय नीति निर्देशक सिद्धांतों के आधार पर इन वर्गों के विकास एवं कल्याण के लिए आवश्यक मुफ्त सुविधायें जैसे शिक्षा, चिकित्सा, तकनीकी आधार पर चिकित्सीय शिक्षा देने की व्यवस्था की और लाभ उठाने को अवसर को आरक्षण कानून के बिना प्रदान किया ताकि नागरिकों को प्राप्त मूलाधिकार और नीति निर्देशक तत्व आपस में न टकरायें और देश का सर्वागीण विकास किसी नागरिक के मूलाधिकारों को प्रभावित किये बिना हो सके।
देश
को आजाद हुए 63 वर्ष हो चुके हैं। देश के सामाजिक जीवन में सभी देशवासियों को सम्मान सहित जीवन गुजारने का समान अवसर हर वर्ग को है, परन्तु फिर भी आज हम एकता में विभिन्नता का जो विकराल रूप देख रहे हैं वह हमारे लिए न केवल चिन्ताजनक है, बल्कि देशहित के विरूद्ध भी। आज भी योग्यता एवं कौशल से परिपक्व छात्र-छात्रायें, देश के नागरिक एवं मतदाता, देश के 50 प्रतिशत आरक्षित मूलाधिकारों से वंचित होकर मानसिक उत्पीड़न का शिकार बन रहे है। यह असहनीय वातावरण न केवल आम नागरिक को प्रभावित कर रहा है, बल्कि शासन-प्रशासन राजनीति में हमारी पहचान, हमारी जाति बन गई है। हम भारतीय कहलाने के अधिकार से वंचित होते जा रहे हैं। हमने संविधान में मात्र 63 वर्षो में लगभग 74-75 संविधान संशोधन कर देश के संविधान को सभी क्षेत्रों में 50 प्रतिशत आरक्षित कर दिया है, यानि संविधान निर्माताओं के स्वर्णिम स्वप्न एवं संविधान की अवधारणा पर हमला बोलकर लोकतन्त्र की आधारशिला को पूर्णतया अपने ही हाथों हिलाकर रख दिया है। भारत में दलित आरक्षण सहित देश की लगभग 56 हिन्दू एवं मुस्लिम जातियों को पिछड़ी जाति में बांटकर देश के संविधान को 50 प्रतिशत आरक्षित कर दिया है, जो देश के आम नागरिकों को प्राप्त समान मूलाधिकारों का खुलेरूप में उल्लंघन है और हम यह कहने लायक नहीं रह गये हैं कि हम अपने ही लोकतान्त्रिक, प्रजातान्त्रिक देश के नागरिक हैं, जिन्हें समान मूलाधिकार प्राप्त है।
किसी
भी देश में लिखित मूलाधिकारों के आधार पर ही न्यायपालिका का गठन होता है और सर्वोच्च न्यायालय ही देश के मूलाधिकारों के एकमात्र संरक्षक हैं न कि विधायिका। होना तो यह चाहिए था कि विधायिका किसी विधेयक को सदन में रखकर उसे कानूनी रूप देने से पूर्व देश की संविधान पीठ के पास समीक्षा या पुष्टि के लिए भेजती ताकि न्यायपालिका यह देख सके कि प्रस्तावित विधेयक में कोई ऐसी बात तो नहीं जिससे देश के नागरिकों के मूलाधिकारों का हनन हो रहा हो। आज न्याय प्राप्त करने के लिए नागरिकों को विधायिका के पास नहीं बल्कि न्यायपालिका की शरण लेना पड़ती है। अभी दो वर्ष पूर्व प्राइवेट इंजीनियरिंग और मेडिकल कालेजों में आरक्षण दिये जाने के सरकार ने आदेश दिए, जिसे लेकर नागरिक न्यायपालिका की शरण में गये और देश की संविधान पीठ ने 7 बार ऐसे आरक्षण पर रोक लगा दी। इस पर लोकसभा में हंगामा हुआ और देश के सभी राजनैतिक दलों ने स्वार्थ-वश एकमत से विधेयक को सदन में मंजूरी देकर कानून का दर्जा दे दिया। इस पर तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश को क्षुब्ध होकर विवशतापूर्वक यह कहना पड़ा कि यदि विधायिका न्यायपालिका के अधिकारों को भी अपने हाथ में लेना चाहे तो ले ले। यह बात एक अरब की आबादी वाले संसार के सबसे बड़े लोकतन्त्र के मुख्य न्यायाधीश को कहनी पड़ी। इस पीड़ा से देशवासियों का सर भले ही शर्म से झुक गया हो। लेकिन हमारे देश के राजनेताओं का सर नहीं झुका।
आज
जातीय आधार पर दलों का गठन हो रहा है। जाति, धर्म और वर्ग के समीकरण मतदाताओं पर भारी पड़ रहे हैं। पिछड़ी एवं दलित जाति में जिसकी जनसंख्या का अनुपात अधिक है, वही अपना दल भी गठित कर रहा है। सत्ता पर उसका कब्जा हो जाता है और जनसंख्या के आधार पर शिक्षा एवं नौकरी का लाभ भी उसी को मिल रहा है, बाकी जातियां आया राम गया राम की भेंट चढ़ जाती हैं। स्थानान्तरण, पोस्टिंग, प्रोन्नति, जातीय पहचान बन गए हैं। आज आरक्षण के लाभ हानि का कोई मापदण्ड नहीं रह गया है। एक परिवार का सदस्य यदि आरक्षण का लाभ उठाकर समाज में बराबरी का दर्जा पा गया है तो उसकी औलाद दर औलाद आरक्षण प्राप्त करने का अधिकार समझ बैठी है, वह आरक्षण के लाभ से मुक्त नहीं होता। आज आरक्षण के कारण बहुसंख्यक जाति, जातीय एवं धार्मिक समीकरण के आधार पर मतदाता को विवश कर सत्ता में सर्वसमाज के हितों की रक्षा का नारा लगाकर सत्ता पर कब्जा कर लेती हैं।

इसी आधार पर उत्तर प्रदेश की मुख्यमन्त्री बड़े गर्व से यह कहती हैं कि यदि मैं सत्ता से हटी तो मेरे स्थान पर मेरी ही जाति का मुख्यमंत्री होगा। वे अन्य दलित वर्ग एवं जातियों को खुलेरूप में अपमानित करती हैं, वहीं दूसरी ओर दलित एक्ट लगाकर किसी भी सवर्ण को अपमानित करने में उन्हें दलितों का अपमान दिखाई पड़ता है। इस प्रकार एक तरफ अपनी जाति को गौरवान्वित करने और दलितों को अपमान के अधिकार दोनों ही उनके पास सुरक्षित हैं। यह कैसा समान न्याय का अधिकार है? यह कैसे समान मूलाधिकारों का संरक्षण है? आज महिलाओं को पंचायत राज में 50 प्रतिशत आरक्षण प्रदान किया गया है, जबकि सभी राजनीतिक दलों संसद एवं विधान मण्डल, पुलिस, पैरामिलिट्री फोर्सेज राज्य एवं केन्द्रीय सरकारी और गैर सरकारी सेवाओं में महिलाओं ने स्वयं अपना अधिकार अपने कौशल और योग्यता के आधार पर प्राप्त कर रखा है। इंजीनियरिंग, मेडिकल सहित सभी क्षेत्रों में महिला, पुरुष के बराबर खड़ी हैं।
आरक्षण
और असमान्य नागरिकों के प्रति बाधित मताधिकार के आधार पर ही केन्द्र में 30-40 दलों के प्रतिनिधि संसद में हैं इसी प्रकार हर राज्य में भाषा एवं जाति प्रांत के आधार पर छोटे-छोटे क्षेत्रीय राजनैतिक दल सत्ता में हैं और राष्ट्रीय स्तर पर भी अपना दल घोषित किये हुए हैं। केन्द्र में मिलीजुली सरकारें गठित हो रही हैं, जो राज्यों को नियंत्रित रखने और अपनी नीति एवं जनसमस्याओं की अनदेखी कर लागू कराने में इसलिए विफल हो रही हैं कि केन्द्र राज्य पर और राज्य केन्द्र पर आरोप लगा रहे हैं, जिसके परिणामस्वरूप मतदाताओं और नागरिकों के अधिकार एवं समस्यायें एक स्वप्न बनकर रह गये हैं। राज्य सरकारें विधानसभा का सत्र दो तीन माह नहीं मात्र एक से दो सप्ताह के लिए बुलाती हैं जिसमें मुख्यमंत्री एवं मन्त्रीगण अपने विभागों से संबंधित सवालों का जवाब विधायकों को न दे सकें। सदन में प्रस्तुत विधेयक को बिना चर्चा पारित कराने के प्रयास में और नागरिक समस्याओं पर चर्चा न हो सके। इस तरह विधायक, मात्र हस्ताक्षर कर वेतन लेने भर का रह गया है, ऐसे सदन और सरकार का कोई औचित्य नहीं है, जो जनता को जवाबदेह न हो। अभी हाल ही में समलैंगिकता को न्यायपालिका ने नागरिकों के समान अधिकार के रूप में मान्यता दी है इसी प्रकार आवश्यक है कि लाखों नागरिक जो दलित एक्ट का शिकार हो रहे हैं उसे भी समाप्त करना जरूरी है।
लोकतन्त्र
एवं प्रजातन्त्र की जड़ आधारशिला एवं अवधारणा, पंचायतीराज एवं स्थानीय निकाय कहे जाते हैं। राजनैतिक दलों ने इन संस्थाओं में भी 50 प्रतिशत आरक्षण कर इन्हें भी स्वतन्त्र मताधिकार एवं प्रत्याशी चयन से वंचित कर दिया। इन संस्थाओं में एक नहीं दो प्रकार के आरक्षण एक साथ दिये गये हैं जिसमें अध्यक्ष एवं सदस्य दोनों ही चक्रानुसार आरक्षित किये जाते हैं, जिससे किसी चयनित सदस्य एवं अध्यक्ष को यह भरोसा नहीं होता। अगला अध्यक्ष सदस्य दलित महिला, दलित पुरुष, पिछड़ी महिला एवं पिछड़ा पुरुष, सामान्य महिला एवं सामान्य पुरुष में से होगा। इसलिए अपने अधिकारों एवं कार्यों के प्रति उदासीन रहते हैं। अगले आने वाले चुनाव में वे भाग ले भी सकेंगे या नहीं। इसलिए वह जनता को जवाबदेह नहीं होता। किसी भी संस्था का अध्यक्ष पद आरक्षित नहीं हो सकता क्योंकि उसके पास न्यायिक एवं प्रशासनिक अधिकार होते हैं। जैसे-विधानसभा में सदस्य आरक्षित होते हैं परन्तु मुख्यमंत्री विधानसभा अध्यक्ष एवं मंत्रीगण आरक्षित नहीं हैं। केन्द्र एवं राज्य में विभिन्न राजनैतिक दल अपने चुनाव घोषणा पत्र से हटकर या तो अच्छा मंत्रालय की मांग करते हैं और कर रहे हैं और अगर वह न मिले तो अपने बेटी-बेटे, नाती-नवासे, पोती-पाते, भाई-भतीजे को मंत्री पद दिलवाकर जनता को यह खुला पैगाम देने लगे हैं कि हम आपके बड़े हितैषी हैं। हम जल्दी ही प्रधानमन्त्री बनेंगे, हम हटेंगे तो हमारी जाति का मुख्यमंत्री होगा। यह सब कुछ हमें विवशता पूर्वक सहन करना पड़ रहा है।
संविधान
में देश के नागरिकों के मूलाधिकार को उस समय निलम्बित करने की व्यवस्था है जब देश में आंतरिक या बाह्य विद्रोह या हमले का खतरा हो। इसका प्रयोग भी इंदिरा गांधी ने सन् 1974 में कानून स्वीकृत करा किया था कि देश के प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति पर मुकदमा नहीं चल सकता, साथ ही आपातकाल की घोषणा कर न केवल विपक्षी नेताओं को जेल में डाल दिया था, बल्कि उसका परिणाम जनता को भी भुगतना पड़ा था। जब आपातकाल हटा और देश में आम चुनाव कराये गये तो जनता ने कांग्रेस पार्टी का सफाया कर न्यायालय के निर्णय को उचित ठहराकर सत्ता से हटा दिया। उस समय उच्चतम न्यायालय न इस ओर ध्यान नहीं दिया कि क्या किसी व्यक्ति विशेष को संरक्षण देने एवं राजनैतिक कार्यों से आपातकाल लगाया जा सकता है।
संविधान
निर्माताओं ने दलित समाज को 40 वर्ष तक आरक्षण दिये जाने की व्यवस्था इसलिए की थी कि 40 वर्ष में यह समाज, समाज में समान अधिकार प्राप्त कर लेगा और ऐसा हुआ भी, लेकिन वोट की राजनीति के कारण सरकारों ने 10-10 वर्ष बढ़ाकर अभी तक उसे कायम रखा है। मतदाता इस योग्य भी नहीं रह गया है कि यदि न्यायपालिका, सरकार के बनाये कानून पर रोक लगाए और विधायिका उसे स्वीकार न करे तो वह सन् 1977 की तरह ऐसी सरकार को सत्ता से हटा दे। देश के सर्वोच्च न्यायालय को विधायिका के ऐसे किसी भी कानून को पूरी तरह निरस्त करने का अधिकार है, जिससे नागरिकों के मूलाधिकारों का हनन हो रहा हो और चाहे वह विधेयक न्यायालय के समक्ष पेश न भी किया गया हो। यह आलेख आरक्षण का वह रूप प्रस्तुत करना चाहता है जोकि विकृत है और देश के हित में नही कहा जा सकता।

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