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‘कायदे आज़म पाकिस्तान मोहम्मद अली जिन्ना’

शाइस्ता इकरामुल्ला

मोहम्मद अली जिन्ना’ - mohammad ali zinha

सरकार की ओर से मुझे निमंत्रण मिला था कि मैं सन फ्रांसिस्को में होने वाले अंतरराष्ट्रीय शांति सम्मेलन में हिंदुस्तान की नुमाइंदगी करूं। लेकिन हमारी राजनीतिक पार्टी के लीडर मुझ से कह रहे थे कि मुझे नहीं जाना चाहिए। उन का तर्क था हमारी पार्टी आल इंडिया मुस्लिम लीग-भारत के ब्रिटिश शासकों से असहयोग करने का फैसला कर चुकी है सो एक अनुशासित लीगी होने के नाते मैं सरकारी प्रतिनिधि मंडल में शामिल नहीं हो सकती थी। मेरी बड़ी तबीयत थी जाने की-इसीलिए मैंने कहा, ‘क्या ऐसा नहीं हो सकता कि मैं चली जाऊं और राजनीति पर कुछ न बोलूं।’

‘तो फिर तुम किस विषय पर बात करोगी?’ मुहम्मद अली जिन्ना ने तलखी से पूछा, ‘चांद पर बैठे आदमी के बारे में।’ फिर उन के चेहरे पर नरमी उतर आई। ‘मैं जानता हूं, कि मेरी बात से तुम्हें कित्ती निराशा हुई है-लेकिन मामला सिद्धांत का है। मैं वादा करता हूं एक दिन तुम अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में अवश्य भाग लोगी। पूरी शान के साथ अपने देश की नुमाइंदगी करोगी।’

यह बात 1945 की है। लेकिन यह आह्लाद मुझे चमत्कृत कर गया। पाकिस्तान के संस्थापक और करोड़ों मुसलमानों के मान्य जश्‍न कायदे आज़म मुहम्मद अली जिन्ना अपनी कनिष्ठतम सहयोगियों में से एक को यह जश्‍न कीमती सब़कदेने की जहमत खुद उठा रहे थे कि प्रतिबद्धता के लिए किस अनुशासन और जश्‍न कुरबानी की जरूरत होती है।

जश्‍न कायदे आज़म हर किसी के सामने इतने खुलेपन से पेश नहीं आते थे। वह एक संकोची व्यक्ति थे, और अधिकांश गंभीर लोगों की तरह मुसकराते भी बहुत कम थे। उनकी असाधारण प्रतिभा और एकांतिक प्रवृत्तियों के कारण ज्यादातर लोग उनसे खौफ खाते थे। अनेक वरिष्ठ मुस्लिम लीगी पहले से वक्त लिए बिना उनसे मिलने की जुर्रत नहीं रखते थे। हां, अपने नौजवान समर्थकों के प्रति जश्‍न कायद का दया और धैर्य भाव जरूर उजागर हो ही जाता था। मैं हर टेढ़े और विवादास्पद मुद्दे पर उन की राय जानने में जुटी रहती थी। सो बिना कोई खबर किए भी मिलने पहुंच जाया करती थी। लेकिन एक बार भी ऐसा नहीं हुआ कि उन्होंने मुझे कभी टाला हो।

एक बार जिन्ना साहेब ने सुना कि ऑल इंडिया मुस्लिम स्टूडेंट्स फेडरेशन का सेक्रेटरी मुहम्मद नौमान उनकी बड़ी अच्छी नकल भी उतार लेता है, तो जश्‍न कायद ने उसे बुलवा भेजा। ‘जरा मुझे भी तो दिखाओ,’ जश्‍न कायद ने हुक्म फरमा दिया। नोमान कुछ शर्मिंदा सा उनकी नकल उतारने लगा। उसने खत्म किया तो जश्‍न कायद ने मुसकराते हुए कहा, ‘बहुत अच्छे।’ फिर उन्होंने उसे अपना अस्त्राखानी हैट और एक आंख पर लगाने वाला चश्मा भी दे दिया। ‘इन्हें रख लो,’ उन्होंने सलाह दी। ‘इन से तुम और भी असली लगोगे।’

मैं जब भी जश्‍न कायदे आज़म से मिलती तो मुझे अपने अंदर एक आश्वासन का भाव उभरता हुआ लगता, क्योंकि वह अपनी मान्यताओं की विश्वसनीयता के प्रति पूरी तरह आश्वस्त होते थे। किसी भी तरह से उनसे कम निष्ठावान और कम प्रतिभाशाली व्यक्ति में ऐसा आत्मविश्वास छलावा लग सकता था, लेकिन जश्‍न कायद में यही चीज़ सामने वाले को आश्वस्त कर देती थी। हर एक को यह पक्का विश्वास था कि हमें मिले उनके नेतृत्व में मुसलमानों के सांस्कृतिक और राजनीतिक अधिकार सुरक्षित थे, जश्‍न कायद के इसी करिश्मे ने अनेक युवा मुसलमानों को राजनीति के क्षेत्र में खींच लिया था। मैं ही उनसे न मिली होती तो शायद एक वरिष्ठ अधिकारी की पत्नी और एशोआराम की जिंदगी जीने की आदी मैं आजादी की लड़ाई में कभी शामिल न हुई होती।

पच्चीस दिसंबर 1876 को जन्मे मुहम्मद अली जिन्ना भाई (बाद में उन्होंने अपना नाम संक्षिप्त करके जिन्ना रख लिया था) कराची के एक संपन्न व्यापारी के सबसे बड़े बेटे थे। उनके अब्बा इस बात से बहुत परेशान रहते थे कि जिन्ना अकसर ही स्कूल नहीं जाते और घर रहकर अपने मन से और अपनी ही रफ्तार से पढ़ाई करते। अंततः पिता ने जिन्ना को लंदन की एक व्यापारी कंपनी में प्रशिक्षु के रूप में भर्ती करा दिया। जिन्ना की अम्मी उन्हें इसी शर्त पर विदेश भेजने को तैयार हुईं कि वह विलायत जाने से पहले निकाह कर लें। इस तरह 1892 में 16 वर्षीय मुहम्मद अली की शादी मां बाप की पसंद की लड़की से हो गई। बाद में उनकी बहन फातिमा जिन्ना ने लिखा भी, ‘शायद उनकी जिंदगी का यही एक अकेला अहम फैसला था जिसे लेने का इख्तियार उन्होंने अपने मां-बाप को दिया था।’
लंदन पहुंचने के थोड़े अरसे बाद ही मुहम्मद अली जिन्ना व्यापार छोड़कर कानून की पढ़ाई में लग गए। वह बौद्धिक रूप से ऐसा चुनौतीपूर्ण व्यवसाय अपनाना चाहते थे जिसके माध्यम से सार्वजनिक जीवन में प्रवेश कर सकें। पिता को खबर लगी तो उन्होंने गुस्से में भरकर तुरंत वापस लौटने का आदेश दे दिया। लेकिन यह बेकार गया, क्योंकि पिता ने उन्हें पहले ही इतना पैसा दे दिया था कि वह तीन वर्ष तक आराम की जिंदगी जी सकें।

अपने लंदन प्रवास के दौरान जिन्ना हाउस ऑफ कामंस में होने वाली बहसों को सुनते और उदार राजनीतिज्ञों ने उनके मन पर गहरी छाप भी छोड़ी वहां उन्हें थिएटर से भी प्रेम हो गया। जीवन भर वह शेक्सपीयर के भक्त रहे। जश्‍न कायद भारतीयों की उस पीढ़ी से थे जो इंग्लैंड में शिक्षा दीक्षा के बाद जीवन के ब्रिटिश तौर तरीके पूरी तरह अपना लेती थी। बदन पर सेविल रो का शानदार सूट पहने, दाई आंख पर चश्मा लगाए वह किसी कुलीन अंग्रेज जैसे लगते थे। उनकी कई बातें यूरोपीय रंगत लिए थी। वह समय प्रबंधन पर बहुत ध्यान देते थे और व्यापारिक मामलों में बहुत सावधानी बरतते थे।
इंग्लैंड में साढ़े तीन बरस बिताने के बाद जुलाई 1896 में जिन्ना जहाज से कराची के लिए चल दिए। घर पहुंचे तो स्थितियां गंभीर थीं। पत्नी और मां का इंतकाल हो चुका था। उनके पिता का व्यवसाय लगभग चौपट ही हो गया था। हालांकि कराची के दो कानूनी सलाहकार फर्मे उनकी सेवाएं लेने को उत्सुक थीं, पर इस युवा बैरिस्टर ने बंबई में अपना भाग्य आजमाने की सोची।

वकील के रूप में जम जाने के बाद जिन्ना ने राजनीति में सक्रिय रूचि लेनी आरंभ कर दी। यह एक विडंबना थी कि वह 1906 में हिंदुओं का ही प्रभुत्व रखने वाली भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी के सदस्य बने और हिंदू-मुस्लिम एकता के उत्साही समर्थक थे। वह कहते भी थे कि दोनों समुदाय इकट्ठे हो जाएं तो गोरों पर हिंदुस्तान से चले जाने के लिए अधिक दबाव डाला जा सकता है। लेकिन कांग्रेस से कई बार प्रताडि़त होने के बाद वह धीरे-धीरे यह माने लगे कि हिंदू बहुल हिंदुस्तान में मुसलमानों को उचित प्रतिनिधित्व कभी नहीं मिल सकेगा। सो वह एक नए राष्ट्र-पाकिस्तान-की स्थापना के घोर समर्थक और प्रचारक बन गए, जिसे हिंदुस्तान के मुस्लिम बहुल वाले तत्कालीन प्रांतों को मिलाकर बनाया जाना था।
दोनों समुदायों के बीच खाई बढ़ी तो जश्‍न कायदे आज़म कई बार मोहनदास कर्मचंद गांधी से भी टकराए। ऊपरी तौर पर दोनों में अनेक समानताएं थीं। दोनों की मातृभाषा गुजराती थी, दोनों ने लंदन में रहकर वकालत पढ़ी थी। लेकिन जश्‍न कायद का स्वभाव तर्क और कारण का समर्थक था जबकि गांधी जी, उनके शब्दों में, अपनी ‘अंतरात्मा की’ सुनने के आदी थे। एक बार कायद ने महात्मा पर अपने वचन से फिर जाने का आरोप लगाया तो गांधी जी ने उत्तर दिया कि उनके ‘अंतस के प्रकाश’ ने उन्हें अपना मत बदलने का निर्देश दिया था। ‘भाड़ में गया अंतस का परकाश वरकाश,’ जिन्ना इस पर गुस्से से विफर पड़े थे- ‘आखिर वह सीधे-सीधे अपनी गलती मान क्यों नहीं लेते।’

ये दोनों राजनीतिक रीति-नीति के मामले में भी परस्पर विरोधी विचारों के थे-जश्‍न कायद का मत था कि परिवर्तन क्रमिक और व्यवस्थित होना चाहिए। गांधी जी का हथियार था सिविल नाफरमानी। यों इसके बारे में जश्‍न कायद ने सही भविष्यवाणी भी की थी कि उसके कारण हिंसा और कटुता बढ़ेगी। कांग्रेस के 1920 के अधिवेशन में, जहां गांधी जी की नीतियों को प्रबल समर्थन मिला, जश्‍न कायद ने उनका सख्त विरोध किया था। ‘आपका रास्ता गलत रास्ता है,’ उन्होंने गांधी जी से कहा था। ‘संवैधानिक रास्ता ही सही रास्ता है।’

सरकार की निरंकुश नीतियों के विरुद्ध जश्‍न कायद नियमित रूप से विरोध प्रकट करते रहते थे। वह कहते थे कि निवारक नजरबंदी, राजनीतिक सेंसरशिप और शांतिपूर्ण जनसभाओं को भंग करना उन्हीं अधिकारों का उल्लंघन था जिनके लिए खुद अंग्रेजों ने प्रथम विश्व युद्ध में संघर्ष किया था। सरकार ने इनके राजनीतिक विरोधियों का दमन किया तब भी जिन्ना ने सरकार की भर्त्सना की।

हालांकि मुसलमानों के अधिकारों और स्वाधीनता का ही प्रतिनिधित्व करते थे जश्‍न कायद, लेकिन वह रूढि़वादी कभी नहीं रहे। कुछ लोगों ने इसी रूप में जब उनका अभिनंदन किया तो उन्होंने कहा, ‘मैं तुम्हारा धार्मिक नेता नहीं हूं।’ जश्‍न कायद ने अपनी बहन को लड़कियों को कैथोलिक बोर्डिंग स्कूल में भेजकर मुस्लिम पंरपरा की अवमानना की थी- उन दिनों प्रतिष्ठित मुसलमान अपनी लड़कियों को घर में ही शिक्षा दिलवाते थे। बाद में उन्होंने बहन को दंत चिकित्सा विज्ञान पढ़ने के लिए भी प्रोत्साहित किया था। उनके समर्थन के कारण ही अनेक मुस्लिम महिलाएं-मेरी जैसी तरह से राजनीतिक रूप से सक्रिय हो सकी थीं।

धार्मिक कट्टरवादी भले ही जश्‍न कायद को नापसंद करते हों, पर मुस्लिम जनता उन्हें बहुत प्यार करती थी। उन की जनसभाओं में हजारों लाखों गरीब, अनपढ़ लोग उमड़ पड़ते। ‘अल्ला-ओ-अकबर’ तथा ‘जश्‍न कायद आज़म जिंदाबाद’ के गगनभेदी नारे लगाते। जिन्ना उर्दू ठीक से नहीं बोल पाते थे, इसलिए प्रायः अंग्रेजी में ही भाषण दिया करते थे। उन का एक शब्द न समझे बिना भी विशाल भीड़ उनकी साफ और नपी तुली आवाज को पूरी तवज्जो से सुना करती थी।
जन साधारण पर जश्‍न कायद का गहरा प्रभाव था और इससे उन्हें बड़ी शक्ति भी हासिल हो गई थी, लेकिन उन्होंने अपनी इस स्थिति का दुरुपयोग कभी नहीं किया। सन 1942 में लीग के इलाहाबाद अधिवेशन में यह प्रस्ताव आया कि बरतानवी हुकूमत से बातचीत करने के लिए जश्‍न कायद मुस्लिम लीग के अकेले नुमाइंदे होंगे और मुस्लिम राष्ट्र के भविष्य को लेकर फैसला करने का पूरा अधिकार भी उन्हें दिया गया। इस प्रस्ताव के तुरंत बाद मुस्लिम लीग के एक तेज तर्रार नेता मौलाना हसरत मुहानी ने विरोध प्रकट करते हुए बुलंद आवाज में कहा, ‘जश्‍न कायद कोई तानाशाह नहीं है। उसे इतना अधिकार नहीं दिया जाना चाहिए।’

इस पर जो बावेला मचा उसके बीच जश्‍न कायद अचानक माइक्रोफोन पर दिखाई दिए, वह सबसे शांत रहने की अपील कर रहे थे। ‘मौलाना को अपनी बात कहने का पूरा हक है,’ उन्होंने कहा। ‘मतदान के समय आप भी ऐसा कर सकते हैं।’ फिर क्या था, प्रस्ताव भारी बहुमत से पारित हो गया, लेकिन वस्तुस्थिति यह रही कि जश्‍न कायद ने मुस्लिम लीग की कौंसिल की सहमति के बिना कभी कोई कदम नहीं उठाया।
जश्‍न कायद के लिए ईमानदार विरोध तो एक अलग बात थी मगर जान बूझकर किए गए अपमान को वह कभी बरदाश्त नहीं करते थे। सन् 1918 में उनकी दूसरी शादी के तुरंत बाद जिन्ना तथा उनकी पत्नी रत्ती की बंबई के गवर्नर लार्ड विलिंगडन ने रात्रि भोज पर आमंत्रित किया। रत्ती जिन्ना ज्यादा ही खुले गले की पोशाक पहने थीं। भोज की मेज पर लेडी विलिंगडन ने विशेष रूप से श्रीमती जिन्ना के लिए यह कहते हुए शाल मंगवाया, ‘कहीं इन्हें ठंड न लग जाए।’ जश्‍न कायद तुरंत उठ खड़े हुए। बोले, ‘मिसेज जिन्ना को ठंड लगेगी तो वह खुद कहकर अपने लिए शाल मंगा लेंगी।’ फिर वह अपनी बेगम को तुरंत गवर्नर हाउस से बाहर ले गए और विलिंगडन दंपति जब तक गवर्नर हाउस में रहे, जिन्ना वहां दोबारा नहीं गए।

सन् 1929 में रत्ती की मृत्यु के बाद फातिमा जिन्ना अपने भाई की गृहस्थी संभालने लगीं और अगले दो दशकों के दौरान निर्णायक राजनीतिक संघर्षों में लगातार उनके साथ बनी रहीं। सन् 1936 में कायद को लीग का नेतृत्व संभालने के लिए न्यौता दिया गया। उन का लक्ष्य था, मुसलमानों को संगठित करना ताकि जब ब्रिटिश हुक्मरान अंततः सत्ता सौंपें तो वे बहुसंख्य हिंदुओं के कारण राजनीतिक दबाव में न आ जाएं। यह बहुत टेढ़ा काम था, क्योंकि उस समय मुसलमान गरीब होने के साथ-साथ असंगठित भी थे। एक बार किसी ने उनसे प्रश्न किया था कि रात को गांधी जी तो जल्दी सो जाते हैं, लेकिन आप इतनी देर तक क्यों जागते रहते हैं? कायद ने जवाब में कहा कि ‘मिस्टर गांधी सो सकते हैं, क्योंकि उन का देश जाग रहा है, मुझे इसलिए जागना पड़ता है कि मेरा मुल्क सोया हुआ है।’ सन् 1937 के प्रांतीय धारा सभा चुनावों में मुस्लिम लीग को चौथाई से भी कम सीटें मिलीं तो जश्‍न कायद ने बड़े पैमाने पर सदस्यता अभियान छेड़ दिया। तीन वर्षों में ही मुस्लिम लीग के सदस्यों की संख्या कुछेक हजार से बढ़कर लगभग दस लाख हो गई।

कायद से मैं पहली बार अक्टूबर 1940 में मिली थी। मेरे पिता जब ब्रिटिश सरकार के सलाहकार थे और उनको उम्मीद थी कि मुस्लिम लीग और सरकार के बीच किसी प्रकार की सहमति कराने में उन्हें सफलता मिल जाएगी। उन्होंने मुझसे कहा कि वह कायद से मिलने जा रहे हैं। सो मैं भी साथ चलूं। मैं कुछ हिचकिचाहट के साथ तैयार हुई क्योंकि मैंने सुन रखा था कि कायद उग्र स्वभाव के व्यक्ति हैं और मैं फटकारे जाने से डरती भी थी।
लेकिन मेरा ख्याल एकदम ही गलत था। कायद और उनकी बहन फातिमा इतने मिलनासार निकले कि कायद से कोई भी सवाल करने में मुझे जरा हिचक नहीं हुई। वह नपे तुले शब्दों में मेरे सवालों के जवाब देते जा रहे थे तो मैं सम्मोहित सी सब सुन रही थी। इस मुलाकात ने मेरे मन पर इतना गहरा असर डाला कि कुछ दिन बाद फातिमा ने मुझसे मुस्लिम वीमेंस स्टूडेंट फेडरेशन की स्थापना में मदद करने को कहा तो मैंने तुरंत हामी भर दी।

लीग के कामों में जैसे-जैसे मेरी दिलचस्पी बढ़ी। कायद से मुझे और भी बहुत कुछ पता चला। चालीसादि के शुरू के दिनों में हिंदू मुसलमानों के बीच तनाव बढ़ता जा रहा था। उन्हीं दिनों ‘हिंदुस्तान टाइम्स’ ने एक लेख में मुझ पर आरोप लगाया कि एक सरकारी अफसर की बीवी होने के बावजूद मैं राजनीति में भाग ले रही हूं। यह आरोप अनुचित था क्योंकि अनेक हिंदू अधिकारियों की पत्नियां कांग्रेस पार्टी के लिए काम कर रही थीं और उन पर कोई उंगली नहीं उठाई जा रही थी। रोष से भरी हुई मैं जश्‍न कायद से मिलने जा पहुंची। ‘अखबार तो हर रोज मेरे बारे में इससे भी खराब खराब बातें छापते हैं,’ उन्होंने सहज भाव से कहा। ‘ऐसी छोटी-छोटी बातों पर परेशान होना ठीक नहीं।’ बाद में भी जब-जब मेरी आलोचना हुई तो कायद ने उचित परामर्श देकर मुझे असहज होने से रोका।

सन् 1945-46 के चुनावों में लीग ने 85 प्रतिशत मुस्लिम प्रांतीय सीटों पर विजय पाई- यह इसका ज्वलंत प्रमाण था कि भारत में स्थित मुसलमानों का बहुमत पाकिस्तान की स्थापना चाहता था। यह एक महत्वपूर्ण जीत थी। लेकिन मुझे उन जाती दिक्कतों का कोई गुमान नहीं था जिनसे कायद जूझ रहे थे। चालीसादि के आरंभ से ही उनका स्वास्थ्य ठीक नहीं चल रहा था। जून 1946 में एक्स-रे से पता चला कि उन का तपेदिक काफी बढ़ चुका था। लेकिन इस निदान को एक गोपनीय रहस्य बनाए रखा गया, क्योंकि अगर कांग्रेसी नेताओं को यह पता चल जाता कि कायद मरने वाले हैं तो शायद ब्रिटेन के साथ अंतिम बातचीत के दौर को वे और टाल देते। जश्‍न कायद के बिना लीग शायद ब्रिटिश दबाव के आगे झुक जाती और पाकिस्तान कभी न बन पाता।

खेद है कि 14 अगस्त 1947 को नए राष्ट्र के उस महान जन्मदिन पर मैं कराची में नहीं रह सकी। मैं सितंबर के मध्य में पाकिस्तान पहुंची और जश्‍न कायद से मिली जो कि अब पाकिस्तान के गवर्नर जनरल थे। वह बहुत गहरे तनाव में थे। बंटवारे के कारण बड़े पैमाने पर खून खराब हुआ था और पाकिस्तान अपनी ध्वस्त अर्थ व्यवस्था के साथ-साथ भारत से आए लाखों मुस्लिम शरणार्र्थियों का बोझ भी ढो रहा था। जश्‍न कायद ने इस सारी स्थिति पर मुझसे मेरी राय पूछी। ‘मुझे दिल्ली की गलियां याद आती हैं,’ मैंने कहा। वह कुछ पल मौन रहकर बोले, ‘मैं तुम्हारी बात समझता हूं, लेकिन क्या तुम आत्मा को खोकर सिर्फ पत्थर और मकबरों से जुड़ने को तैयार होतीं?’

अगस्त 1948 में मुझे राष्ट्र संघ के पेरिस सम्मेलन के लिए जाने वाले प्रतिनिधिमंडल का सदस्य चुना गया। मैं समझ गई कि जश्‍न कायद वह वादा पूरा कर रहे हैं जो उन्होंने मुझसे 1945 में किया था। राष्ट्र संघ में अपनी भूमिका के बारे में उन की राय जानने का मौका मुझे नहीं मिला। बारह दिसंबर को लंदन में मैंने खबर सुनी कि गए दिन कराची में उनका निधन हो गया। उनके आखिरी दो शब्द थे, ‘अल्लाह... पाकिस्तान।’ और वह इन्हीं के लिए जिए भी थे।
कायद कहा करते थे उन्होंने एक भीड़ में से राष्ट्र का निर्माण किया है। हमारे अंदर जो कलह और विरोध है, उसे देखते हुए कभी-कभी मैं सोचती हूं कि हम फिर वही पुरानी भीड़ बन चुके हैं। निस्संदेह हमें जश्‍न कायद जैसा दूसरा लीडर नहीं मिल सकता। लेकिन आज हम कम से कम एक स्वतंत्र राष्ट्र हैं और हम उनकी मिसाल सामने रखकर एक ऐसे पाकिस्तान का निर्माण भी कर सकते हैं जो उनके खयालों के अनुरूप हो।

(शाइस्ता इकरामुल्ला 1947 से 1954 के बीच पाकिस्तानी संविधान सभा की सदस्य थीं और 1964 से 1967 में मोरक्को में अपने देश की राजदूत भी। शाइस्ता इकरामुल्ला ने यह लेख कायदे आज़म के बारे में अगस्त 1991 में लिखा था।)

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