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सत्य और श्रद्धा की प्रीति

Saturday 11 May 2013 10:09:03 AM

हृदयनारायण दीक्षित

हृदयनारायण दीक्षित

‘विश्वास’ खूबसूरत धारणा है। देखे, सुने और जांचे को मानना विश्वास है और सुने-सुनाए को यों ही मान लेना अंधविश्वास। विश्वास हमारे इंद्रियबोध का परिणाम है। हमारे आंख, कान, नाक, जीभ और स्पर्श से बुद्धि को संवेदन मिलते हैं। बुद्धि उनका विवेचन करती है और विश्वास या अविश्वास प्रकट करती है। अविश्वास और विश्वास दोनो ही बुद्धिगत निर्णय हैं। वे इंद्रियबोध के ही परिणाम हैं। इंद्रियबोध से प्राप्त समझ बदला करती है, इसलिए विश्वास और अविश्वास भी बदला करते हैं, लेकिन भारतीय चिंतन में इससे भी परे एक धारणा है, इस धारणा का नाम है श्रद्धा। विश्वास या अविश्वास विषयगत होते हैं, हम किसी मनुष्य पर विश्वास कर सकते हैं और अविश्वास भी, लेकिन श्रद्धा अस्तित्वगत है। विराट अस्तित्व और उसकी महिमा का सहज स्वीकार और आदर ही श्रद्धा है। श्रद्धा विश्वास नहीं है, यह हमारे इंद्रियबोध का परिणाम नहीं है, यह अनुभूति परक है। पांच इंद्रिय द्वारों से परे परिशुद्ध अंतर्जगत की अनुभूति है यह, इसलिए श्रद्धा में बड़ी ऊर्जा है, श्रद्धा के योग्य है।
अस्तित्व अनंत है, विराट, असीम, रहस्यपूर्ण और आश्चर्यजनक। आधुनिक विज्ञान ने तमाम खोजें की हैं, ज्ञान का आकार लगातार बढ़ा है तो भी अज्ञात क्षेत्र की सीमा नहीं घटी। असल में अज्ञात क्षेत्रों की सूची अंतिम नहीं है, अज्ञात के बारे में हमे इतना ज्ञान तो होना ही चाहिए कि अमुक-अमुक क्षेत्र हमारे लिए अभी अज्ञात है। इस सूची के बाहर भी ढेर सारे अज्ञात क्षेत्र हैं। इसलिए ज्ञान यात्रा का कोई अंतिम छोर नहीं। उपनिषद के ऋषि और शिष्य इसी उधेड़बुन में थे। वे सबकुछ जान लेना चाहते थे। मुंडकोपनिषद में कथा है। विश्वविद्यालय के कुलपति शौनक के मन में भी यही जिज्ञासा उगी, वे महान तत्ववेत्ता अंगिरा के पास गए । उन्होंने विनम्रतापूर्वक यही प्रश्न पूछा “कस्मिन्नु विज्ञाते सर्वमिदं विज्ञातं भवतीति-क्या जान लेने पर यह सब जाना हुआ हो जाता है?” शौनक ‘यह सब’ समूचा संसार जानने के जिज्ञासु थे। ब्रह्मांड विराट है। उन्होंने परमसत्य की जिज्ञासा की, वही जान लिया जाए तो बाकी सब रहस्य अपने आप प्रकट हो जाते हैं। पहले ज्ञान की प्यास है, फिर ज्ञान प्राप्ति का संकल्प। फिर श्रेष्ठतर आचार्य से प्रश्न और जिज्ञासा, लेकिन साथ में अस्तित्व के प्रति श्रद्धाभाव भी है, हम जिसे जानना चाहते हैं, हमने उसके अस्तित्व को सहज स्वीकार कर लिया है। अब विश्वास या अविश्वास का प्रश्न नहीं।
ऋग्वेद विश्व का प्रथम ज्ञान अभिलेख है। ऋग्वेद (10.151) में श्रद्धा देवता हैं, देवता अर्थात प्रकृति की दिव्य शक्ति। यहां श्रद्धा हमारे अंतकरण का ही स्वीकार भाव नहीं है। प्रकृति के अणु-परमाणु में मौजूद एक अंतरंग दिव्यता है। ऋषि प्रकृति की कार्यवाही को यज्ञ की तरह संचालित देख रहे थे। अग्नि प्रकृति की विराट शक्ति हैं। वैदिक पूर्वजों ने उन्हें सूर्य में देखा, जल में देखा, वनो-उपवनों की काष्ठ लकड़ियों में भी देखा था, वे अग्नि मनुष्यों द्वारा स्तुतियां पाते थे, मनुष्य अग्नि जलाते भी थे, लेकिन ऋषि का भावबोध गहरा है। कहते हैं, यज्ञ की अग्निश्रद्धा से ही प्रज्जवलित किया जा सकती है और श्रद्धा से ही यज्ञ हवन में समिधा डाली जाती है।” (वही 1) ठीक बात है। श्रद्धा न हो तो यज्ञ अग्नि की जरूरत ही क्या है? तब यज्ञ अग्नि में समिधा डालने का प्रश्न ही नहीं उठता, ऋग्वेद में श्रद्धा ब्रह्मांड की सभी विभूतियों में श्रेष्ठतम है-श्रद्धां भगस्य मूर्धनि। वे श्रद्धा प्रकृति में हैं, वे सभी विभूतियों में शीर्षा हैं। उन्हीं का प्रवाह हमारे भीतर होना चाहिए। ऋग्वेद के अनुसार देवता भी श्रद्धा करते हैं। देवगण भी हरेक शुभ संकल्प के समय श्रद्धा की उपासना करते हैं। तो ऋषि भी श्रद्धा का आवाहन क्यों न करें? ऋषि स्तुति करते हैं, “हम प्रातःकाल श्रद्धा का आवाहन करते हैं, मध्यान्ह में श्रद्धा का आवाहन करते हैं, सायंकाल भी श्रद्धा की ही उपासना करते हैं। हे श्रद्धा! आप हम सबको श्रद्धा से परिपूर्ण करें - श्रद्धे श्रद्धापयेह नः।
श्रद्धा से श्रद्धा मांगना बड़ा रोचक विवरण है। हम विश्वास से विश्वास नहीं मांगते। विश्वास अस्तित्वगत नहीं है। यह हमारी अपनी समझ का ही निर्णय होता है। श्रद्धा अस्तित्व में है, प्रकृति में उपस्थित है, आस्तिकता के रूप में। हम सबके भीतर भी है ऋषि इसी श्रद्धा का आवाहन, उपासन, स्मरण और पुरूश्चरण करते हैं। ऋग्वेद का ब्राह्मण ग्रन्थ ऐतरेय ने लिखा था। ऐतरेय ब्राह्मण के एक दिलचस्प मंत्र में ‘श्रद्धा और सत्य’ की जोड़ी का उल्लेख है। ठीक बात है। सत्य के प्रति श्रद्धा होनी ही चाहिए। इसी तरह श्रद्धा के साथ सत्य भी। ऐतरेय ने बताया है, “श्रद्धा सत्यं तदित्युत्तमं मिथुनम् - श्रद्धा और सत्य का मिथुन उत्तम है। इन दोनो के मिथुन ‘श्रद्धायासत्येन मिथुने’ से स्वर्गलोक मिलते हैं।” ऐतरेय ने दोनो के सम्बन्धों के लिए मिथुन शब्द प्रयोग किया है। मिथुन यानी रति सम्बन्ध/परिपूर्ण प्रीति सम्बन्ध। श्रद्धा और सत्य को यों ही नहीं जोड़ना। दोनो को आनंदपूर्वक मिलाना, मिलाते हुए, मिलते हुए एक कर देना - श्रद्धया सत्येन मिथुने। सत्य बड़ा अनुभव है। पहले तो सत्य का साक्षात्कार ही कठिन फिर सत्य का सामना और भी कठिन। लेकिन श्रद्धा सब कुछ सम्हाल लेती है। श्रद्धा सत्य से साक्षात्कार की ही धीर प्रतीक्षा है।
सत्य पर समय का प्रभाव नहीं पड़ता। सत्य समय से अप्रभावित सत्ता है। सारा प्रत्यक्ष सत्य नहीं होता। प्रत्यक्ष का अर्थ है-जो हमारे सामने है, वही प्रत्यक्ष है। हमारा इंद्रियबोध चूक भी कर सकता है। हमारे सामने रूप, आकार होते हैं। रूप आकार परिवर्तनीय होते हैं। उन पर समय का प्रभाव पड़ता है। इसलिए वे सत्य नहीं होते। बेशक वे ‘कुछ समय के सत्य’ हो सकते हैं, लेकिन सत्य समय की सीमा में नहीं बंधता। वह सदा ‘नित्य’ रहता है। सत्य के दर्शन से सब कुछ एक साथ जान लिया जाता है, लेकिन इसके लिए बड़ा धीरज चाहिए। ज्ञान यात्रा में तमाम रूप खुलते हैं, वे तथ्य होते हैं। मन तथ्य को सत्य मानने लगता है। समय तथ्यों को मिटा देता है। तथ्य भी समय के भीतर ही होते हैं। कालचक्र उन्हें रौंदता हुआ आगे बढ़ता है। भारतीय चिन्तन में इसीलिए ‘धैर्य’ को धर्म का पहला और प्रमुख लक्षण कहा गया है। धैर्य असाधारण साधना है। धैर्य धारण करना बहुत कठिन तप श्रम है। लेकिन ‘श्रद्धा’ इस कठोर तप को आसान कर देती है। ऐतरेय ने ‘सत्य और श्रद्धा’ का मिथुन रूपक आंतरिक अनुभूति के आधार पर ही गढ़ा होगा। सत्य के शोध में श्रद्धा का साथ जरूरी है।
श्रद्धा यानी सत्य का स्वीकार। एक सत्य के प्रति प्रीति। अनन्तकाल की प्रतीक्षा। श्रद्धा आधी अधूरी नहीं होती, आधे अधूरे के लिए भी नहीं होती। यह पूर्ण होती है, पूर्ण के लिए ही होती है। श्रद्धा को पूर्ण अमृतघट चाहिए। वह पूर्ण है, पूर्णकामिता में ही उसका मधुरस - अभिषेक है। सिर्फ विश्वास से काम नहीं चलेगा। विश्वास बुद्धिगत है, श्रद्धा अनुभूतिपरक। वह स्वयं पूर्ण है, सत्य अभीप्सु है, संशयविहीन है। ऋषि ठीक कह गए हैं कि श्रद्धा और सत्य की जोड़ी स्वर्ग दिलाती है। स्वर्ग आखिर है क्या? वह पूर्ण आनंद का ही पर्याय है और हमारी कामनाओं की पूर्ति वाली आंतरिक चित्तदशा। श्रद्धा और सत्य की एकात्मक प्रीति मे ही जीवन का सर्वोत्तम प्रकट होता है। यों सत्य अपने आप में परिपूर्ण है। लेकिन सत्य की प्यास की आकुलता को धीरजपूर्ण प्रतीक्षा में बनाए रखने का काम श्रद्धा ही करती है। दुर्भाग्य से आधुनिक जीवन श्रद्धाविहीन हो गया है। यहां उधार के विश्वास हैं या जमे जमाए अंधविश्वास। सो श्रद्धा के गीत छंद उगते ही नहीं। सत्य अभीप्सा है ही नहीं। ज्ञान की प्यास होती भी है तो श्रद्धा के अभाव में जल्दी ही दम तोड़ देती है। जीवन, जगत् और विराट सत्य सत्ता के प्रति श्रद्धाभाव में ही जीवन की समसुरता, छन्दबद्धता और लयबद्धता है। श्रद्धालु एकाकी नहीं होते। उनकी श्रद्धा में वे समूचे ब्रह्माण्ड से जुड़े होते हैं। वे तनावग्रस्त नहीं होते। श्रद्धा उन्हें संभाल लेती है। श्रद्धा जीवन ऊर्जा की अनुपम शक्ति है।

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