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भाग्यश्री काले

कुम्हारवाड़ा धारावी मुंबई-kumbharwada dharavi mumbai

मुंबई। मुंबई के धारावी में कुम्हारी पेशे से परिवार को पालते हुए पचास बरस से ज्यादा पूरे कर लिए हैं मनसुख भाई ने। पहले हाथ से और अब बिजली से चलने वाले चाक पर ही उम्र निकल गई है, मगर बड़ी ही मेहनत के इस काम की कीमत नहीं मिलती है। पहले भी नहीं मिलती थी, आज भी नहीं, भले ही सारी दुनिया में आवश्यकता और बाजार की लहर चल रही है। कुम्हारी कला की हर लागत, यहां तक की इसमें इस्तेमाल होने वाली मिट्टी भी महंगी हो गई है। बिजली का बिल भी चाक की तरह घूमता है, बाजार में मिट्टी के बर्तन लेकर जाने के भी अपने खर्चे हैं, उसमें भी दुकानदार हों या फुटकर ग्राहक ठोक-बजाकर छांटकर बर्तन खरीदते हैं, फिर भी इन सारी दुश्वारियों को दबाए ये कुम्हार दिन-रात मिट्टी के बर्तनों की जरूरतों को पूरा करने के लिए जुटे रहते हैं और रोज न जाने क्या-क्या पेशेवर कष्ट उठाते हैं।

मुंबई में न कभी दिन होता है और न कभी रात। यहां की जीवनशैली बहुत ज्यादा उतार-चढ़ाव वाली है। यह कहानी ऐसी ही जीवनशैली से चलती धारावी की है, जहां एक से बढ़कर एक अमीर और एक से बढ़कर एक ग़रीब रहता है, इन्हीं में रोज कुंआ खोद कर पानी पीने वालों की जिंदगी भी आप इन कुम्हारों में देख सकते हैं। इनका काम ऐसा कि जिसमें मुंबई के मौसम की बड़ी ही भूमिका है, या यह कहिए कि मौसम ही इनका असली भाई-बाप है। दूसरे नंबर पर उपभोक्ता आते हैं और मुनाफे का नंबर आखीर में लगता है, वरना बराबरी या नुकसान पर बाजार छूटता है। एक प्रशिक्षु संवाददाता के रूप में सामान्य जनजीवन की कठिनाईयों से जूझते मेहनतक़शों के बीच जाकर मैने पाया कि मिट्टी की तरह मथी इनके जीवन की सच्चाईयां और इनके संघर्ष भी किसी पाठ्यक्रम के सदृश्य हैं, बिल्कुल एक धधकता आवा। आदिकाल से हमारी विभिन्न काल की सभ्यताओं के ये चश्मदीद गवाह, पीढ़ियों से झोपड़ियों में ही बसते और रहते आ रहे हैं। सरकार के पास इनके लिए काग़जी योजनाओं के अलावा कुछ नहीं है।
बहरहाल इनसे और अधिक रू-ब-रू होने के लिए मैं इनके बीच गई और विभिन्न कोणों से इनती मेहनत की तस्वीरें भी उतारीं। भिन्न-भिन्‍न डिजाइनों के मिट्टी के बर्तन बनाना और सभी उपभोक्ता वर्गों की जरूरतों को समझकर चलना इन्हें बख़ूबी आता है। यह इनके लिए रोजमर्रा का काम होता है। कुछ खास बर्तन यहां सभी कुम्हार बनाते हैं। कुछ दशक पहले कुम्हारी कला पर चित्र उकेरने का खूब चलन था, मगर समय और जल्दबाजी की दुनिया में ये सब सिमटता जा रहा है। आज यदि कुम्हारी कला को कला की दृष्टि से निहारना हो तो किसी ऐतिहासिक कला संग्रहालय में जाना होगा। हालांकि धारावी में भी कुछ पुराने मिट्टी के बर्तन देखने को मिलने हैं, लेकिन जब कहीं किसी पुरानी जगह पर खुदाई होती है, तो इस शानदार प्राचीन कला के टुकड़ों में खूबसूरत अवशेष देखने को मिल जाते हैं।

मिट्टी के बर्तनों का इतिहास समृद्धशाली है और इनका चलन तो आदिकाल से है और उस पर चित्रकारी या नक्काशी भी हर काल की सभ्यता का पुष्ट प्रमाण मानी जाती है। अनेक कालों की सभ्यताओं की जानकारियों का पुख्ता आधार रही है-कुम्हारी कला। देश के विभिन्न भागों में खुदाई से मिले मिट्टी के बर्तनों के अवशेष राष्ट्रीय धरोहरों के रूप में देखे जाते हैं। कुम्हारी कला को ग्रामीण लघु उद्योगों की श्रेणी में रखा गया है, लेकिन इसकी कीमत किसी कानून से तय नहीं है। आज भी बहुत से कुम्हार परंपरागत रूप से दीवाली या कुछ विशेष अवसरों पर मिट्टी के बर्तन-खासतौर से सुराही, मटके, मटकी, घड़े, दिए, गोलक, खिलौने इत्यादि बनाकर लोगों के घरों पर पहुंचाते हैं और बदले में जो भी धनराशि मिलती है, उससे खुश हो लेते हैं। इस परंपरा में अब काफी कमी भी आ गई है, क्योंकि इन बर्तनों की लागत, समय और मेहनत का उतना मूल्य नहीं मिल पा रहा है। पेशेवर आजीविका को बदलकर दूसरे मुनाफे वाले रोज़गार की ओर रूख करने के भी कई जोखिम हैं।

सरकार ने ऐसी कलाओं के प्रोत्साहन एवं कुटीर उद्योगों को बढ़ाने के लिए कोई खास उपाय नहीं किए हैं, जिस कारण इन कुम्हारों का इस पेशे से मनोबल टूट रहा है, यह अलग बात है कि सरकार हर साल देश-विदेश में विशेष मेलों में कुम्हारी कला की नुमाईश लगवाकर वाह-वाही लूटती है। सरकार की ओर से रोजी-रोटी के इन पेशेवर और परंपरागत पेशों की उपेक्षा आज हर तरफ मार कर रही है। यदि इन्हें प्रोत्साहन मिलता रहता तो ये निराश नहीं दिखते, अपने पेशे से नहीं भागते और काश! इस पेशे को और ज्यादा विकसित कर पाते। यदि आप सरकार की ओर से इन्हें मिलने वाली सहायता का विश्लेषण करें तो पाएंगे कि इसमें तो कच्ची मिट्टी भी नहीं आती। मिट्टी खोदने के लिए जगह नहीं है और हर जगह की मिट्टी भी कुम्हारी कला में प्रयोग में नहीं लाई जा सकती। यह बेहद मुश्किल काम हो चला है, तब भी कुम्हार शिल्पियों का उत्साह देखते बनता है और जब तक चल रहा है वे इस पेशे में खुशी-खुशी दिन-रात लगे दिखेंगे।

मुंबई शहर यानी मायानगरी में हर कोई पैसा कमाने के लिए आता है। यहां खूब अमीर भी हैं और खूब ग़रीब भी पाए जायेंगे। मुंबई ऐसा भी शहर है, जो हर किसी मेहनत करनेवालों को रोज़गार प्राप्त करा देता है। मुंबई शहर के सबसे ज्यादा जनसंख्या वाले धारावी में ज्यादा लोग बिजनेस करते हैं। यहां बहुत सारे छोटे कारखाने हैं, जहां कमर का बेल्ट, छोटे क्लिप्स, कपड़ा इत्यादि घरेलू सामान तैयार किया जाता है। धारावी एक बिजनेस सेंटर कहा जाता है। यहां हर एक घर में कोई न कोई व्यवसाय है। धारावी में करीब 85% व्यवसाय घर में ही चालू है, इनमें ही कुम्हारी काम भी है। यहां कुंभारवाड़ा एक ऐसी जगह है, जहां, ज्यादा संख्या में गुजराती कच्छ समुदाय के लोग रहते हैं। यह मुंबई की सबसे बड़ी कुंभार कॉलोनी (कुम्हार को मराठी में कुंभार कहते हैं) कहलाती है। यह पूर्वी एक्सप्रेस हाईवे और नव विकसित बांद्रा-कुर्ला परिसर के साथ स्थित है। यहां अलग तरह की मिट्टी से वस्तुएं बनाते हैं ये कुंभार। कुंभारवाड़ा में इनकी तकरीबन बारह सौ झोपड़ियां हैं, जिनमें ये रहते हैं और वहीं अपना कुम्हारी काम करते हैं। इनके काम की अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ज्यादा मांग है। यहां कई कुंभार परिवार पीढ़ियों से यह व्यवसाय करते आ रहे हैं। इनका यह काम साल के बारहों महीने चलता है, लेकिन बारिश के मौसम में इनका व्यवसाय कम रहता है।

कुंभारवाड़ा में मनसुख भाई अपने हाथ से मिट्टी की वस्तुओं को आकार देते हैं। वे ये व्यवसाय पिछले तीस सालों से करते आ रहे हैं। इनके बाप-दादा भी यही व्यवसाय करते थे। इन्हें अपने बिजनेस से बहुत ज्यादा लगाव है। इनका पूरा परिवार इस व्यवसाय में इनकी मदद करता है। इसी व्यवसाय के लाभ से वे अपने बच्चों की शिक्षा और उनके दैनिक जीवन का खर्च उठाते हैं, उन्हें किसी भी प्रकार की कमी पड़ने देते। मनसुख भाई के मुताबित अगर कोई भी काम दिल से किया जाए तो उसमे सफलता तो अवश्य मिलती है, हम अपने व्यवसाय से खुश हैं और ज्यादा नहीं, तो अपना और बच्चों का पेट भर सकें, इतना तो कमां ही लेते हैं, लेकिन अधिकांश कुम्‍हार इतने भी खुशक़िस्मत नहीं हैं। कह नहीं सकते कि इस काम में कितना लाभ-हानि हुई, क्योंकि हम जो वस्तुएं बनाते हैं, वो कच्ची मिट्टी होती है, अगर वो आवे यानी भट्टी में पककर बिना टूटे हुई बाहर आ जाए तो काफी लाभ हो जाता है, अगर भट्टी से निकलने के बाद टूट जाए तो सारी मेहनत बेकार हो जाती है। मनसुख भाई के मुताबित यह एक ऐसा व्यवसाय है, जो नई कलाओं को जन्म देता है। यह कला देखने के लिए काफी विदेशी लोगों का आना जाना रहता है। कई सारे स्कूल के बच्चे भी पिकनिक के लिए यहां आते हैं, उन्हें देखकर हमें भी काफी खुशी मिलती है और उत्साह बढ़ जाता है।

आमतौर पर देखा जाता है कि कुम्हारी कला से जुड़े लोगों का जीवन झोपड़ियों और भट्टी के पास ही गुजरता है। कई-कई दिन मिट्टी में काम करते हुए बीत जाते हैं। दूर से मिट्टी खोदकर लाना और उपयुक्त मिट्टी तलाश करना बेहद कठिन काम है। यदि इनके स्वास्‍थ्य का परीक्षण कराया जाए, तो इनमें अधिकांश लोगों में फेफड़े का संक्रमण पाया जाता है, जोकि मिट्टी की धूल के नज़दीक रहने से होता है, इसलिए कहा जाता है कि कुम्हारी कला के कई दर्दनाक पहलू भी हैं। सरकार ने इस कला में लगे लोगों के पुनर्वास और उनकी मेहनत के वाजिब हक पर भी कभी ध्यान नहीं दिया है, यही कारण है कि मिट्टी के बर्तनों से दूसरों के घरों की शोभा बढ़ाने वाले कुम्हार का घर आज तक झोपड़ी और मिट्टी की चट्टान ही है।

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