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उत्तराखंड के पहाड़ों में कब जाएगी रेल?

हेमपंत

हेमपंत

पहाड़ों पर रेल/mountain train

देहरादून। पहाङों पर रेल सेवा शुरु करने की मांग को लेकर वहां के लोग लंबे समय से संघर्ष कर रहे हैं लेकिन दिल्ली में बैठे नेता हैं मंत्री हैं और अफसर हैं जो कि राजनीति में जनमानस की तर्कपूर्ण और जायज मांगों को नज़र अंदाज करते रहते हैं। उत्तराखंड की जनता लंबे समय से पहाड़ों में रेलमार्ग बनाए जाने की मांग करती आ रही है पर केंद्र सरकार में बैठे लोग उत्तराखंड के दुर्गम पहाड़ी क्षेत्रों को रेलमार्ग से जोड़ने में कोई रुचि नहीं दिखा रहे हैं। रेलवे बोर्ड ने ऋषिकेश-कर्णप्रयाग को "इकोनोमिकली फीजीबल" न मानते हुए इस योजना से अपने हाथ खींचे हुए हैं। अब जबकि जम्मू-कश्मीर और उत्तरपूर्व के कई हिस्से रेलमार्ग से जोड़ दिए गये हैं तो समान भौगोलिक स्थिति वाले इलाके उत्तराखंड के लोग भी अपने क्षेत्र को शीघ्र ही रेलमार्ग से जोड़ने की मांग कर रहे हैं। रोजगार के साधनों की शून्यता व सीमित कृषि उपज के कारण इस क्षेत्र के लोग लम्बे समय से मैदानों की तरफ़ पलायन करने के लिये मजबूर हैं। रोजगार और आने जाने के सीमित संसाधनों के कारण सीमान्त क्षेत्र के लोगों के बङी संख्या में पलायन करने से दर्जनों पहाड़ी गांव खाली हो चुके हैं।
उत्तराखंड के कुल 13 जिलों में से 11 जिलों में पहाड़ी इलाका है। यह जिले उद्योग-शून्य, कृषि क्षेत्र में पिछड़े लेकिन खनिज संपदा, प्राकृतिक सुषमा, वन संपदा व औषधीय वनस्पतियों से परिपूर्ण हैं। अगर इन सभी वस्तुओं का सुनियोजित तरीके से दोहन किया जाये तो उत्तराखंड भारत के सर्वाधिक विकसित प्रदेशों में अपनी उपस्थिति दर्ज करा सकता है। नैनीताल और मंसूरी जैसे कुछ हिल-स्टेशन जिन्हें अंग्रेज विकसित कर गए, उन्हीं को स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद की सरकारों ने बढावा दिया है, जबकि हिमालय की तलहटी में सैकड़ों ऐसे पहाड़ी स्थान हैं जो नैनीताल और मंसूरी को सुन्दरता में कहीं पीछे छोड़ सकते हैं। इन दुर्गम स्थानों को विकसित करने के लिये जम्मू कश्मीर की तरह सुगम यातायात उपलब्ध कराना अतिआवश्यक है। इस समय भी उत्तराखंड में ट्रैकिंग, राफ़्टिंग, सफारी और तीर्थयात्रा आदि के लिये लगभग एक करोड़ों लोग प्रतिवर्ष आते हैं, यदि नये पर्यटक स्थल और सुगम रेलयात्रा का प्रबंध हो तो यह संख्या आने वाले समय में अवश्य ही कई गुना बढ़ जायेगी।
उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों में सड़कों के रखरखाव पर सालाना करोड़ों रूपए की धनराशि खर्च करने पर भी सड़कों की स्थिति बहुत दयनीय है। इन सड़कों पर भीषण दुर्घटनाएं अक्सर होती रहती हैं। हर साल सैकड़ों लोग इन हादसों में अपनी जान गंवाते हैं। यहां आने वाले पर्यटक और तीर्थयात्री पहाड़ों की लाजवाब प्राकृतिक छटा के साथ ही इन कष्टदाई सड़कों को भी नहीं भुला पाते। सामरिक दृष्टि से भी इस पहाड़ी इलाके को रेलमार्ग से जोड़ा जाना अत्यन्त जरूरी है। यह पहाड़ी क्षेत्र चीन, नेपाल और तिब्बत की सीमा से सटा है। चीन, भारतीय सीमा के बहुत करीब तक रेलमार्ग व वायुमार्ग से अपनी पहुंच को सुगम बनाने में सफलता प्राप्त कर चुका है। आध्यात्मिक दृष्टि से अतिमहत्वपूर्ण कैलाश पर्वत की यात्रा के लिये भी अगले साल तक चीन हवाई यात्रा शुरु करने की योजना बना चुका है। उत्तराखंड में कहा जा रहा है कि भारत सरकार को शीघ्र ही इस विषय को गंभीरता से लेना होगा अन्यथा आने वाले समय में चीन इस अन्तर्राष्ट्रीय सीमा पर कठिनाइयां पैदा कर सकता है।
वर्तमान में उत्तराखंड के कुमाऊं मण्डल के काठगोदाम, रामनगर और टनकपुर और गढ़वाल मण्डल के कोटद्वार और ऋषिकेश तक ही रेलमार्ग पहुंचे हैं। यह सभी स्टेशन मैदानी इलाकों के अन्तिम छोर पर हैं, अर्थात पहाड़ों में एक किलोमीटर का भी रेलमार्ग नही है। आश्चर्यजनक बात यह है कि इन स्थानों तक भी रेलमार्गों का निर्माण आज से लगभग 70-80 साल पहले ब्रिटिश शासन काल में ही हो चुका था। स्वतन्त्र भारत में उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्र में रेल पहुंचाने की कोशिश के अन्तर्गत एक मीटर भी रेल लाइन नहीं बिछ पाई। टनकपुर-बागेश्वर रेललाइन का सर्वे सन् 1912 में ही हो चुका था। पुन: सन् 2006 में इस मार्ग का सर्वे करवाया गया है। वर्ष 1960-70 के दशक में पद्मश्री देवकी नंदन पांडे ने पहाड़ों में रेलमार्ग बनाये जाने की मांग पहली बार उठाई थी, उसके बाद अब कई संघर्ष समितियां इस मुद्दे पर सड़क से लेकर संसद तक, हर मंच पर पहाड़ की इस मांग को उठा चुकी हैं, लेकिन कोरे आश्वासनों के सिवा कुछ हाथ में नहीं आया है। बागेश्वर-टनकपुर रेलमार्ग संघर्ष समिति के सदस्य जन्तर-मन्तर में दो बार आमरण अनशन कर चुके हैं। लेकिन प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के आश्वासनों से ही उन्हें सन्तोष करना पड़ा।
उत्तराखंड की जनता मुख्यत: (1)टनकपुर से बागेश्वर (2) ऋषिकेश से कर्णप्रयाग (3) टनकपुर से जौलजीबी और (4) रामनगर से चौखुटिया तक रेलमार्ग बनाने के लिये संघर्षरत हैं। एक चौंकाने वाला तथ्य यह है कि इन मार्गों के निर्माण की योजनाएं भी ब्रिटिश शासन काल में ही बन चुकी थीं और बाकायदा सर्वे भी पूरे कर लिये गये थे। प्रस्तावित टनकपुर-बागेश्वर रेलवे लाईन के मार्ग में धौलीगंगा, टनकपुर और पंचेश्वर जैसी वृहद विद्युत परियोजनायें चल रही हैं। इसके अतिरिक्त इस मार्ग में पड़ने वाले अत्यन्त दुर्गम और पिछड़े इलाके जैसे-बागेश्वर के कत्यूर, दानपुर, कमस्यार, खरही अल्मोड़ा के रीठागाड़ और चौगर्खा, पिथौरागढ़ के घाट, गणाई और गंगोल और चम्पावत के गुमदेश और पंचेश्वर इलाके की लगभग 10 लाख जनता इस सुगम परिवहन से जुड़ सकेगी। लोकसभा चुनाव के पहले कौसानी प्रवास के दौरान तत्कालीन रेलमंत्री लालू प्रसाद यादव ने ऋषिकेश-कर्णप्रयाग और टनकपुर-बागेश्वर मार्ग का नया सर्वे कराने की बात कहकर पहाड़ के लोगों के मन में कुछ आशा जगाई थी। कुमाऊं विश्वविद्यालय नैनीताल के डा जीएल साह ने टनकपुर से बागेश्वर तक तीन माह के अथक परिश्रम के बाद भूगर्भीय सर्वेक्षण करते हुए एक रिपोर्ट रेल मंत्रालय को भेजी थी। इस सर्वे में कंप्यूटर, उपग्रह चित्र और भौतिक सर्वेक्षणों को आधार बनाया गया था, लेकिन यूपीए सरकार के अंतिम रेल बजट में प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी के आश्वासनों के बावजूद इन योजनाओं के लिये कोई बजट आवंटित नही किया गया, इन योजनाओं का उनके भाषण में कुछ उल्लेख भी नहीं था, इससे उत्तराखंड की जनता को भारी निराशा हुई।
ऋषिकेश-कर्णप्रयाग रेलमार्ग बनने पर गढ़वाल मण्डल के पहाड़ी जिलों में उद्योग धंधों व पर्यटन के विकास से भारी संख्या में रोजगार के साधन पैदा होने की आशा की जाती रही है। इस मार्ग के बनने पर गंगोत्री-यमुनोत्री-बद्रीनाथ- केदारनाथ की महत्वपूर्ण चारधाम तीर्थयात्रा बहुत सुगम हो जायेगी। उत्तराखंड की स्थाई राजधानी के लिए उपयुक्त समझा जाने वाला गैरसैंण भी ऋषिकेश-कर्णप्रयाग रेलमार्ग से सिर्फ 50 किमी की दूरी पर है। अब रेलवे बोर्ड ने ऋषिकेश-कर्णप्रयाग को "इकोनोमिकली फीजीबल" न मानते हुए इस योजना से अपने हाथ खींच लिये हैं। अगर प्रदेश सरकार रेलवे को 50% धन (कम से कम 1000 करोड़ रुपए) दे तो रेलवे बोर्ड इस योजना पर काम करने को राजी है, लेकिन इतनी बड़ी धनराशि की व्यवस्था करना इस नवनिर्मित राज्य की सरकार के लिये शायद संभव नही होगा।
टनकपुर से बागेश्वर तक की इस प्रस्तावित योजना में कुल 137 किलोमीटर लम्बी रेल लाइन बिछाई जानी है, जिसमें से 67 किमी लाइन अंतराष्ट्रीय सीमा (भारत-नेपाल) के समानान्तर बननी है। पंचेश्वर के बाद यह रेलमार्ग सरयू नदी के समानान्तर बनना है। इस रेल लाइन के बिछाने पर विस्थापन भी नहीं के बराबर होना है, क्योंकि महाकाली और सरयू दोनों नदियां घाटियों में बहती हैं। ये घाटियां भौगोलिक स्थिति से काफी मजबूत हैं। इस प्रस्तावित योजना में सिर्फ चार बड़े रेल पुलों का निर्माण करने की जरूरत पड़ेगी। पर्वतीय रेल व सड़क योजनाओं में मुख्य तकनीकी पक्ष ऊंचाई ही है, लेकिन इस लाइन को टनकपुर (समुद्र तल से ऊंचाई 800 मीटर) से बागेश्वर तक पहुंचने में 137 किमी की दूरी में मात्र 610 मीटर की ऊंचाई ही पार करनी होगी। अन्य पर्वतीय रेल योजनाओं की ऊंचाई की तुलना की जाये तो कालका से शिमला तक से 98 किमी की दूरी तय करने में 1433 मीटर की ऊंचाई पार करनी पड़ती है। इससे स्पष्ट है कि तकनीकी रूप से भी टनकपुर से बागेश्वर रेलमार्ग का निर्माण करना इस युग में कोई दुष्कर कार्य नहीं है।
यह बात तो रही उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों में प्रस्तावित नये रेलमार्गों की। उत्तराखंड के मैदानी भाग, जहां तक वर्तमान में रेल सुविधा उपलब्ध है, उसमें भी बढ़ती जरुरतों के अनुसार उच्चीकरण और नई सेवाओं की सख्त जरूरत है। वर्तमान में टनकपुर जो कि कुमाऊं का प्रवेश द्वार माना जाता है, छोटी लाइन से जुड़ा है और सिर्फ लखनऊ और बरेली के लिये ही यहां से यातायात उपलब्ध है। टनकपुर को ब्रोड गैज की लाइन से जोड़कर देहरादून व दिल्ली के लिये रेलसेवा शुरु करने पर इस क्षेत्र के लाखों लोगों को फायदा मिलेगा। देहरादून, रामनगर, ऋषिकेश, कोटद्वार और काठगोदाम को भी डबल लाइन से जोड़ने की मांग जनता लम्बे समय से कर रही है। हल्द्वानी-काठगोदाम से मुम्बई के लिये सीधी ट्रैन चलाये जाने की मांग पर भी कोई ठोस कार्यवाही नहीं हो पा रही है।
एक तरफ़ जब भारत के मुख्य शहरों में लोग मेट्रो रेल में सफर कर रहे हैं और रेलमन्त्री देश में बुलेट ट्रैन चलाने की बात कह रहे हैं वहीं उत्तराखंड के लोगों के लिये रेल से अपने क्षेत्रों में पहुंचना एक सपना ही रह गया है। एक ऐसा सपना जो लगभग 100 साल पहले अंग्रेजों ने पहाड़ को दिखाया था। देश आजाद हुआ, उत्तराखंड के लोगों ने भी कुर्बानी दी थी और उम्मीद थी कि पहाड़ी इलाकों में रहने वाले सामान्य जनमानस के संघर्ष भरे दिन खत्म होंगे, लेकिन इन्तजार का यह अन्तहीन सिलसिला शायद तभी खत्म होगा जब वोटों की राजनीति से ऊपर उठ कर इस देश के नीतिनियंता महानगरों और "अपने" राज्यों से कुछ क्षण के लिये नजरें हटा कर पहाड़ के लोगों को भी देखेंगे जो खुद को उपेक्षित महसूस करने लगे हैं, वरना, वही जुलूस, अनशन, धरना, प्रदर्शन, नारेबाजी करते करते निराशा में पहाड़ भी टूट ही जाएगा।

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