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उत्तराखंड में अभी तिवारी से बहुत पीछे हैं खंडूरी

अनिल कुमार

भुवनचंद खंडूरी-bhuwan chandra khanduri

देहरादून। उत्तराखंड में तिवारी से अभी बहुत पीछे माने जाते हैं खंडूरी। यहां भाजपा की सरकार बने अभी एक ही साल हुआ है, जिसका राजनीतिक रिपोर्ट कार्ड यह है कि भाजपा पौड़ी लोकसभा का उप चुनाव हारते-हारते बची है। मेजरजनरलभुवनचंद खंडूरी बेशक साफ सुथरी छवि के मुख्यमंत्री माने जाते हैं, कर्म में विश्वास रखते हैं, लेकिन वे अपने राज्य की जनता को प्रभावित नहीं कर पाएं हैं। तुलना की जा रही है कि इस अवधि में खंडूरी और तिवारी ने राज्य के विकास के लिए कितना काम किया है, तो पलड़ा नारायण दत्त तिवारी का ही भारी दिखता है। खंडूरी का यह सौभाग्य ही कहा जाएगा कि उन्हें उत्तर प्रदेश सरकार की उद्योगपतियों के बीच में खराब छवि का पूरा लाभ मिल रहा है, क्योंकि जो उद्योग उत्तर प्रदेश को जाते, वह वहां की सरकार की लूट-खसोट और उद्योगपतियों में हर तरह की असुरक्षा के कारण, उत्तराखंड के हरिद्वार जनपद में विकसित राज्य के बहादराबाद औद्योगिक क्षेत्र में आ रहे हैं। खंडूरी को विकास के साथ ही अपने राज्य में आने वाले लोकसभा के आम चुनाव का सामना करने की चुनौती आ रही है। जिसमें उनसे भाजपा को बहुत उम्मीदे होंगी और उन पर ज्यादा से ज्यादा सीटें जीतने का दबाव होगा।
भुवनचंद खंडूरी के सामने भारी राजनीतिक दबाव और उनसे निपटने की रणनीतियों का बड़ा भारी अभाव दिखाई देता है जिनके कारण खंडूरी को अपना ही लोकसभा उप चुनाव जीतने में पसीने आ गए। कांग्रेस के सतपाल महाराज जीत गए थे, अगर डाक के मतपत्र बीच में न आ गए होते। खंडूरी भूल गए हैं कि आज वे किसी की सरकार में मंत्री नहीं हैं बल्कि एक राज्य के मुख्यमंत्री हैं। केंद्रीय सड़क परिवहन मंत्री के रूप में वह प्रधानमंत्री के प्रति जवाबदेह थे लेकिन यहां वे जनता के प्रति जवाबदेह हैं। उनकी सफलता और विफलता का रिपोर्ट कार्ड उत्तराखंड की जनता ही तैयार करेगी न कि यहां की नौकरशाही। मगर वे फौजी फार्मूले से चलते हैं और जनता तिवारी फार्मूले को ज्यादा समझती है। कहने वाले नहीं चूकते हैं कि तिवारी तो कांग्रेस की गुटबाजी के कारण सत्ता से बाहर हुए लेकिन खंडूरी अपनी ही रणनीतियों के मुगालते में उत्तराखंड की सत्ता से बाहर होंगे। वे राज्य में जिस भ्रष्टाचार और व्यवस्था को ठीक करने निकले हैं उसे वह अकेले ठीक नहीं कर सकते हैं। उनका जनसंपर्क भी उतना प्रभावशाली नहीं माना जाता है। उनकी राज्य की नौकरशाही पर पूरी निर्भरता है जबकि राज्य के विकास और समस्याओं के निराकरण में जनप्रतिनिधियों की उपेक्षा झलकती है।
उत्तराखंड में फरवरी में स्थानीय निकायों के चुनाव होने थे जिन्हें राज्य सरकार ने स्थगित कर दिया अब वह चुनाव कोर्ट के आदेश से कराए जा रहे हैं इससे भुवनचंद खंडूरी सरकार को झटका लगा है। सरकार ने इन चुनावों को तयशुदा समय पर न करा कर नगरपालिकाओं में प्रशासक नियुक्त कर दिए थे जिससे जनप्रतिनिधियों मे भारी आक्रोश पनप गया था। राज्य मे ग्राम प्रधानों के चुनाव का समय भी आ गया है जिसमें इस सरकार की कड़ी परीक्षा होगी और यह चुनाव लोकसभा चुनाव का आईना भी होंगे।
पौड़ी लोकसभा के उपचुनाव में भाजपा का निराशाजनक प्रदर्शन हुआ है जबकि समझा जा रहा था कि यह सीट भाजपा भरी अंतर से जीतेगी लेकिन उसकी जीत का अंतर बहुत ही निराशाजनक रहा। खंडूरी सरकार को राज्य में जमीनों के दाम बढ़ाने और जाति एवं निवास प्रमाणपत्र के मुद्दे पर भारी विरोध का सामना करना पड़ा है इसमें भाजपा के भी लोगों का अंदरखाने समर्थन नही मिला है। खंडूरी पर आरोप है कि वे अपने फौजी अंदाज मे चल रहे हैं और जनप्रतिनिधियों की उपेक्षा करते हैं। यहां लोगों में और खासतौर से पहाड़ी क्षेत्रों में प्रशासन तंत्र के कारगर ढंग से कार्य न करने के कारण एक निराशा का वातावरण दिखाई पड़ता है। उत्तराखंड में प्रशासनिक तंत्र राज्य के लोकतांत्रिक ढांचे पर काफी भारी है। चाहे पहले नारायण दत्त तिवारी रहे हों या अब भुवन चंद खंडूरी हों। दोनों पर राज्य के विकास और रोजगार को लेकर भारी दबाव है। भुवन चंद खंडूरी ने सत्ता संभालते ही अपनी जिन प्राथमिकताओं को प्रकट किया था, फिलहाल उनके परिणाम खंडूरी के अनुकूल नहीं ही रहे हैं। अभी उन्हें आगे लोकसभा चुनाव का सामना भी करना है। वैसे भी गैर कांग्रेस सरकार होने के कारण उन्हें केंद्र से वैसी सहायता मिलने में भी दुश्वारियों का सामना होता है।
माना जाता है कि उत्तराखंड में कांग्रेस की नारायण दत्त तिवारी सरकार ने विकास के बहुत काम किए हैं। उनका चिरपरिचित जनसंपर्क आज याद किया जाता है। उन्होंने राज्य के पहाड़ और मैदानी क्षेत्रों में तालमेल बैठा कर जो विकास किया है उसे यहां के लोग याद कर रहे हैं। यह अलग बात है कि कांग्रेस इन कार्यों का कोई राजनीतिक लाभ ही नहीं उठा सकी और जबरदस्त गुटबाजी में सत्ता से बाहर हो गई, जिसके फलस्वरूप उत्तराखंड में आज भारतीय जनता पार्टी की सरकार है। कहने वाले कह रहे हैं कि भाजपा यहां इसलिए नहीं जीती कि लोग व्यक्तिगत रूप से नारायण दत्त तिवारी के खिलाफ थे, बल्कि इसलिए भाजपा सत्ता में लौटी क्योंकि तिवारी के खिलाफ राज्य कांग्रेस में रोज-की मुहिम और गुटबाजी सड़क पर उतर आई, जिसके कारण कांग्रेस की छवि बेहद खराब हो गई, जिसमें उत्तराखंड के विकास का कांग्रेस का मुद्दा बहुत पीछे चला गया। जिसका मुख्य विपक्षी दल होने के नाते भाजपा को सबसे ज्यादा राजनीतिक लाभ मिला। जहां तक किन्हीं को राजनीतिक रूप से उपकृत करने का सवाल है तो इसमें कुछ विवाद तिवारी के साथ हमेशा जुडे़ रहे हैं जिनकी उन्होंने कभी परवाह ही नहीं की।
हरिद्वार-नजीबाबाद राजमार्ग पर पांच जगह उफनती नदियों और बरसाती नालों के रपटे पर जल के तेज प्रवाह में हर साल न जाने कितनी जिंदगियां बह जाया करती थीं। इस मार्ग पर बड़े-बड़े पुलों का निर्माण हुआ है जिससे हरिद्वार (उत्तराखंड) को शेष उत्तर प्रदेश से जोड़ने वाला यह मुख्य राजमार्ग बहुत सुरक्षित हो गया है। इसी प्रकार कोटद्वार-नजीबाबाद मार्ग पर खो नदी पर ऐसे ही पुल बनवाए। उत्तराखंड से जुड़ने वाला यह दूसरा मार्ग व्यवसायिक दृष्टि से महत्वपूर्ण माना जाता है। कई बिजली परियोजनाएं, पर्यटन व्यवसाय को प्रोत्साहन, यह सब नारायण दत्त तिवारी सरकार की देन है। हरिद्वार के बहादराबाद औद्योगिक क्षेत्र में भी काफी औद्योगिक इकाईयां तिवारी सरकार के समय में ही आई हैं और तिवारी सरकार ने दुर्गम पहाड़ों तक जाने के लिए मार्गों और पुलों, स्कूलों और चिकित्सा की समस्या को काफी नहीं बल्कि बहुत हद तक सुलझाया है। केंद्र में यूपीए की सरकार होने का उन्होंने उत्तराखंड के विकास के लिए बहुत लाभ लिया। इसलिए भुवनचंद खंडूरी सरकार विकास के मामले में अभी नारायण दत्त तिवारी सरकार का कोई मुकाबला नहीं कर सकी है।
उत्तर प्रदेश में औद्योगिक वातावरण के समाप्त होते जाने का उत्तराखंड को काफी लाभ मिल रहा है। पश्चिम उत्तर प्रदेश में लघु उद्योग इकाईयां स्थानीय राजनीतिक, गुंडागर्दी के कारण बंद होने के कागार पर पहुंच गई हैं। यूपी की मुख्यमंत्री मायावती की विवादास्पद कार्यशैली, आरक्षण और विभिन्न अवसरों पर जबरन धन वसूली के कारण उत्तराखंड से लगेयूपी के सीमावर्ती जिलों की लघु उद्योग और चीनी उद्योग उत्तराखंड की ओर रुख कर रहे हैं। वहां का चीनी और गुड़ उद्योग वसूली और किसानों के शोषण के कारण मंदी के दौर में है। बिजनौर, मुजफ्फरनगर, मुरादाबाद गजरौला और इसके आसपास के क्षेत्रों में जिन उद्योगपतियों ने अपनी फैक्ट्रियां लगाई थीं, वह वहां बिजली, सुरक्षा और अन्य सुविधाओं के नहीं मिलने के कारण नुकसान और निराशा में हैं। उनके लिए सबसे ज्यादा उपयोगी उत्तराखंड ही नजर आ रहा है, जहां के बहादराबाद औद्योगिक क्षेत्र में जगह हासिल करने के लिए मारा-मारी है। उत्तराखंड की खंडूरी सरकार ने ऐसे उद्योगपतियों को अपने यहां संरक्षण सुविधा और वातावरण तो दिया हुआ है और खंडूरी सरकार के मंत्री, नेता और कार्यकर्ता कम से कम व्यवसाईयों व अधिकारियों से उत्तर प्रदेश के बसपाईयों की तरह से दबाव बनाकर धन वसूली नहीं कर रहे हैं। मुख्यमंत्री भुवनचंद खंडूरी की राजनीतिक परीक्षा का समय शुरू हो चुका है और देखना होगा कि वह इसमें कहां तक सफल होते हैं।

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