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महंगाई-महंगाई तू कहां से आई ?

दिनेश शर्मा

मनमोहन सिंह-manmohan singh

मनोजकुमार की रोटी कपड़ा और मकान फिल्म के एक गाने की शुरुआती पंक्तियां हैं ‘पैले मुठ्ठी बिच पैसे लेकर, थैला भर शक्कर लाते थे, अब थैले में पैसे जाते हैं और मुठ्ठी में शक्कर आती है। हाय महंगाई-महंगाई-महंगाई तू कहां से आई तुझे तो मौत ना आई..’ इस समय देश में अगर किसी खबर की चर्चा है तो वह है महंगाई। सब्जी आटा दाल धीरे-धीरे आदमी के घरेलू बजट पर भारी पड़ते जा रहे हैं। सब्जी मंडियों में भाव को लेकर घमासान और घर की रसोई सूनसान है।
बड़ा गणित लगाया जा रहा है कि आखिर ये महंगाई कहां से आ रही है। मंथन चल रहा है मगर मर्ज पकड़ में नहीं आ रहा है। याद है ना? अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के समय में भी एक बार प्याज ने बड़ी जबरदस्त जम्प लगाई थी-हालत खराब हो गई थी सरकार की। प्याज सौ रुपए किलो से ऊपर पहुंच गई थी। उस समय दो राज्यों में विधानसभा चुनाव भी थे। दोनो जगह भाजपा साफ हो गई थी। जमाखोरों के खिलाफ कार्रवाई हुई तो हालात काबू में आए। मगर तब तक बहुत देर हो चुकी थी। खैर। दाल आटा सब्जी में महंगाई रंग दिखा रही है। महंगाई के कई कारण गिनाए जा रहे हैं। कोई डीजल-पेट्रोल के मूल्यों में बढ़ोतरी बता रहा है तो कोई कह रहा है कि उत्पादकता में आ रही लगातार गिरावट के कारण ऐसा हो रहा है। बहुतों का तर्क है कि आवश्यक वस्तु अधिनियम को लागू करने में जो ढील दी हुई है उससे जमाखोर आपे से बाहर हो गए हैं और कृत्रिम अभाव पैदा किये हुए हैं। पैट्रो मूल्यों में लगातार बढ़ोत्तरी का असर उत्पादन लागत पर पड़ना अवश्यंभावी है क्योंकि कृषि उत्पादन में जिन उपकरणों का इस्तेमाल होता है वे ज्यादातर बिजली डीजल से चलते हैं और डीजल के मूल्य में बढ़ोत्तरी का असर उत्पादन लागत पर जरूर आया है।
महाराष्ट्र में सब्जियों के बहुत महंगे होने का ठींकरा तो मौसम पर फोड़ा गया है लेकिन और जगहों पर तो मौसम का अभी कोई दोष नही है। जहां तक उत्तर प्रदेश का सवाल है तो वहां लगभग सभी जगहों पर और ज्यादातर सब्जियां तराई और खादर के विशाल भू भाग पर होती हैं। बहुत से किसानों ने अपनी भूमि के उपयोग को पूरी तरह आधुनिक बना कर एक सीजन में कई फसलें लेने की तकनीक विकसित कर ली है या फिर परंपरागत फसलों का बाजार में उत्पादन के बराबर भी मूल्य न मिलने के कारण ऐसी फसलें उगाना शुरू कर दी हैं जिनसे बाजार में खासा दाम मिल जाता है। इसलिए उस कृषि उत्पादन पर विपरीत असर है जो रोजमर्रा के उपयोग का है। अधिकांश जगहों पर ऊर्जा संकट है। इस कारण खेतों पर खड़े ट्यूववैल की बिजली का बिल नियमित और एकमुश्त तो देना पड़ रहा है मगर बिजली नहीं है। जब बाजार से मांग के अनुरूप आपूर्ति नहीं होगी तब भी मंडियां महंगाई से जरूर तिलमिलाएंगीं। खरीदार कहां से आएंगे?
आम आदमी बहुत दुखी है वह सब्जी मंडी में बड़े खरीददारों से बची हुई सब्जी खरीदने जाया करता था लेकिन बची हुई सब्जी भी इतनी महंगी हो गयी है कि उसकी हिम्मत वह सब्जी खरीदनें में जवाब दे गयी है। वह पूछता है कि महंगाईएकदम से कैसे बढ़ गयी है एक तो गरीब आदमी सब्जी से दूर है और अगर वह अपने बजट में कुछ पैसे बचा कर सब्जी दाल लाये भी तो कैसे? वह कहता है कि इस समय अगर नमक-प्याज नहीं होता तो परिवार को सब्जी और दाल खिलाना बड़ा मुश्किल होता क्योंकि वह ही इस समय सब्जी से भी सस्ता है और दाल से भी। वह नमक प्याज से दिन-भर की भूख शांत करता है। अगर ऐसे ही महंगाई जारी रही तो एक महीने बाद इसका और भी भीषण असर दिखाई पड़ने लगेगा। राज्य की सार्वजनिक वितरण प्रणाली किसी भी सरकार की जागरुकता का एक आईना होती है। यह प्रणाली खासतौर से समाज के मध्यम और निम्न वर्ग के लोगों को सस्ता खाद्यान्न उपलब्ध कराने की होती है। इस व्यवस्था में जो खाद्यान्न शामिल किया गया है वह आदमी की प्रारम्भिक जरूरतों को पूरा करता है जिससे आम आदमी में अपनी भूख और खाद्यान्न उपलब्धता में संतोष रहता है।
देखा यह जा रहा है कि खाद्यान्न का एक बड़ा भाग एक ऐसे वर्ग की चपेट में है जो जमाखोरों और मुनाफाखोरों के नाम से जाना जाता है। मगर सार्वजनिक वितरण प्रणाली के साथ हो रही इस सौदेबाजी को अगर सरकार नियंत्रित कर लेती तो महंगाई का अंसतोष उभर कर सामने नहीं आता। हालाकि यह असंतोष आम वर्ग में बराबर बना हुआ है चूंकि उसकी आवाज हुक्मरानों तक नही जाती है इसलिए इसका लाभ जमाखोर उठाते आ रहे हैं। भारत एक कृषि प्रधान देश कहा जाता है और इसकी अर्थव्यवस्था मुख्य रूप से कृषि पर आधारित है लेकिन यह कैसी विडम्बना है कि यहां पर लोगों को इसके बावजूद खाद्यान्न के लिए दूसरों का मुह देखना पड़ रहा है क्या आटा आज गरीब आदमी की जेब की पहुंच में है? उत्तर यहीं मिलेगा कि नहीं जब आटे की यह हालत है तो गरीब सब्जी कैसे खरीदें? अभी तो इस जनता को पता नहीं और कितनी महंगाई से जूझना पड़ेगा।
यह देश दुनिया के विख्यात अर्थशास्त्री और भारत के प्रधानमंत्री डा मनमोहन सिंह से कई यक्ष प्रश्न कर रहा है कि क्या यही अर्थशास्त्र है? आप जैसे निगाहबान की आंखों में यह महंगाई धूल झोकने में आखिर कैसे सफल हो गई? आप चार साल से भारत के सर्वशक्तिमान नेता हैं। आपने दरिद्रनारायण से लेकर पांचसितारा संस्कृति तक के लिए आर्थिक विकास की रणनीतियां बनाकर दुनिया को अपनी उंगलियों पर नचाया है तो फिर क्यों आज देश महंगाई के महा दैत्य से जूझ रहा है और वह इसे मिटाने के लिए किंकर्तव्य विमूढ़ होकर किस ब्रह्मास्त्र की प्रतीक्षा कर रहे हैं? क्या उनके पास अभी भी कोई ऐसा तीर बचा है जिसे वह चलाने की प्रतीक्षा कर रहे हैं और उसके चलते ही महंगाई की ताड़का का वध हो जाएगा? इस समय अपनी जरूरतों की चीजों को बाजार से लाने के लिए आम आदमी अपनी जेब की तरफ देख रहा है। उसे नहीं लग रहा है कि अब वह इस बाजार का सामना कर सकता है। उसे भारत की आर्थिक अर्थव्यवस्था के कड़वे सच का अभी तक पता नहीं था लेकिन अब पता चला है कि देश की अर्थव्यवस्था कितनी कमजोर भयानक और बियावान की तरह से है जिससे बाहर निकलना अब मुश्किल है। इसलिए इसका सबसे सही उत्तर डा. मनमोहन सिंह के पास हो सकता है जो न केवल एक प्रख्यात अर्थशास्त्री हैं बल्कि देश के प्रधानमंत्री के रूप में उनके पास असीमित शक्तियां हैं जिनका इस्तेमाल करके वह आम जनता को महंगाई से मोक्ष दिला सकते हैं।
नत्थू-कढेरा और बंसी अपने छप्पर के नीचे बैठे हुए महंगाई से घुट-घुट कर मर रहे हैं। उनके घर में खाना पकाने के लिए जिन जरूरी चीजों की जरूरत होती है वह उनकी पहुंच से बाहर चली गई है। सवा सौ रुपये किलो कड़वा तेल कभी नहीं सुना गया था। भारत की जनता ने पीने का पानी राशन में मिलने की कल्पना कभी नहीं की होगी। इंतजार कीजिए एक समय ऐसा भी आने वाला है जब देश में यह विचार भी सामने आएगा कि पीने का पानी मुहैया कराने के लिए राशनिंग की व्यवस्था होनी चाहिए क्योंकि पीने का पानी एक ऐसी जरूरत है जिसके लिए लोग अभी से ही पानी के टैंकों पर झपट पड़ते हैं। इसी देश में ऐसी खबरें कई जगह से आई हैं कि जहां पीने के पानी को लेकर हिंसक संघर्ष हुआ और कई जानें गईं। क्या यह वो ही भारत देश है कि जिसे सोने की चिडि़या कहा जाता था? नमक, गेहूं, आटा, और शक्कर यह जीवन की आधारभूत आवश्यकताएं हैं, देश की अस्सी प्रतिशत जनता को न किसी बिल्डर से मतलब है और न किसी भवन से। न एटमी डील से और न कुर्सी से, उसे रोटी, कपड़ा और मकान चाहिए। क्या इन चार साल में भारत के अर्थशास्त्री मनमोहन सिंह यह सब सुकून से मुहैया करा पाएं हैं? देश जान रहा है कि आपके क्या संकोच हैं, जिनमे से एक पर आप बोलने से बहुत डर रहे हैं। आखिर उस पर कब तक चुप रहेंगे? देश से कहते क्यों नहीं हैं कि असली समस्या तो जनसंख्या विस्फोट की है।
ऐसी अर्थव्यवस्था का इस देश को क्या लाभ जिसके बारे में आज देश की विधानसभाओं और लोकसभा में चर्चा होने पर उसके सदस्य केवल बगले झांकते नजर आते हैं। पता चले कि इस लड़खड़ाती अर्थव्यवस्था की और भी असली वजह क्या है ताकि आम आदमी भी उसे जान सके और हो सकता है कि उसका कोई समाधान उसके भी पास हो। हालांकि यह भी प्रश्न अपनी जगह कायम है कि देश के आम आदमी के किस सुझाव को आपने और देश के वित्तमंत्री पी चिदंबरम ने अपने बजट में शामिल किया है? आपने इस बार लोकसभा में अपने वित्तमंत्री से बजट पेश कराते हुए कहा था कि देश इक्कीसवीं सदी में जा रहा है, इस बार बजट में कोई भी कर नहीं लगा है।

देश ने तो समझा था कि भारत की अर्थ व्यवस्था को मनमोहन सिंह की जादूई छड़ी ने छू दिया है जिससे आज देश की जनता करों के बोझ से मुक्त हो गई है। लेकिन इसकी सच्चाई इस तरह से आनी शुरू हुई कि जैसे भुखमरी और अकाल शुरू होता है। देश में कांग्रेस के नेतृत्व में गठबंधन की सरकार चल रही है जिसमें अभी तक वामपंथी एक प्रमुख घटक के रूप में सरकार के साथ खड़े थे। वामपंथी एक लंबे काल से देश में महंगाई जैसे मुद्दों पर आंदोलन खड़े करते रहे हैं। आज उनके आंदोलन कुंद हो गए हैं या उन्होंने कोई समझौते कर लिए हैं? महंगाई के प्रश्न पर वह खामोश हैं और भारत अमरीका के बीच परमाणु समझौता उन्हें महंगाई से ज्यादा बड़ा दिखाई दे रहा है। क्या वामपंथियों ने महंगाई पर काबू का फार्मूला खोजने में सरकार की कोई मदद की? या उन्‍होंने मनमोहन सिंह के साथ बैठकर या इस देश के राजनीतिक दलों को एक साथ बैठाकर उनसे बात की कि देश की इस गंभीर समस्या के समाधान में उनका क्या योगदान है?
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का कहना था कि जब भी तुम्हें कोई फैसला करना हो तो गरीब से गरीब आदमी का चेहरा अपने सामने लाना और सोचना कि तुम्हारे फैसले का उस पर क्या असर पड़ेगा। मनमोहन सिंह जी! निःसंदेह आपकी ईमानदारी पर तो कोई शक नहीं है, लेकिन आपने अर्थशास्त्र और धर्म ग्रंथों को तो पढ़ा ही है, राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर को भी पढ़ा होगा जिन्होंने लिखा है कि-

‘जहां शस्त्रबल नहीं शास्त्र पछताते रोते हैं,
ऋषियों को भी सिद्घि तभी मिलती है तप में,
जब पहरे पर स्वयं धनुर्धर राम खड़े होते हैं।’

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