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...तो पत्रकारों पर ये पाबंदी क्यों?

स्वतंत्र आवाज़ डॉट कॉम

Saturday 21 September 2013 08:55:40 AM

एक बड़े समाचार पत्र समूह ने अपने यहां कार्य करने वाले अधिस्वीकृत पत्रकार बंधुओं को यह कहकर सरकारी योजना के अंतर्गत लैपटॉप लेने से मना कर दिया है कि उनको सरकारी खैरात नहीं लेनी चाहिए और ना ही सरकारी टुकड़ों पर पलने की आदत डालनी चाहिए। मैं ऐसे समाचार पत्र का मालिकों व प्रबंधकों से पूछना चाहता हूं कि अगर ऐसा ही है तो वे खुद क्यूं केंद्र व राज्य सरकार के विज्ञापनों को अपने अखबार में छाप कर पैसा कमाते हैं, क्यूं वे सरकारी विज्ञापनों के लिए भागमभाग करते हैं और अगर कोई सरकारी अधिकारी व राजनेता विज्ञापन देने से इंकार करे तो अपना अखबारी डंडा चलाकर क्यूं धाक जमाते हैं? प्रबंधकों व मालिकों के लिए तो ऐसा करना सही है, क्योंकि इससे उनकी खुद की जेबें भरती हैं और योग्यता से बहुत कम कीमत पर काम करने वाले पत्रकार भाईयों के लिए ऐसा करना गलत है।
क्या ऐसी दोहरी नीति ठीक है? यहां यह भी गौर करने की बात है कि अगर कोई पत्रकार भाई अपने मालिकों के इस आदेश के विपरीत जाकर अपने हक के अनुसार लैपटॉप ले लेता है, तो उसको नौकरी से निकाल दिया जाएगा। इस समाचार पत्र ने एक समय पर अपने पत्रकारों पर प्रेस कांफ्रेस के दौरान दिए जाने वाले उपहारों व नाश्तों तक पर रोक लगा रखी थी, जबकि इनके मालिक खुद बड़े-बड़े नेताओं उद्योगपतियों से उपहार लेते हैं और काफी मौकों पर उनको उपहार पहुंचाते भी हैं।
एक और तथ्य सामने आया है कि कईं बड़े समाचार पत्र समूह ऐसे हैं, जो अपने यहां लंबे समय से कार्यरत पत्रकारों को अधिस्वीकृण करवाने से भी मना कर रहे हैं और काफी संपादक व सीनियर पत्रकार अपने अधीनस्थ साथियों को अधिस्वीकृण होने नहीं दे रहे हैं। यह भी एक गलत बात है, क्योंकि सीनियर संपादकों को यह लगता है कि कहीं मेरा गौरव कम न हो जाए और मेरे अधीनस्थ कार्य करने वाला पत्रकार मेरे बराबर का न हो जाए।
विभिन्न मुद्दों पर आवाज़ उठाने वाले व समाज की विभिन्न कमजोरियों पर बेबाक टिप्पणी करने वाले साथ ही जुल्म के खिलाफ और शोषण के खिलाफ एवं कम मजदूरी के खिलाफ बोलने वाले पत्रकारों का कईं मामलों में शोषण होता है पर बेरोज़गारी के इस दौर में यह मजबूरी है कि वे अपने ही खिलाफ होने वाले इस जुल्म के खिलाफ बोल नहीं पाते हैं। यह जानकार आश्चर्य होगा कि महज तीन हजार से पांच हजार रूपए में भी पत्रकार मित्र काम कर रहे हैं और काफी ऐसे भी मिल जाएंगे जिनको इतना मेहनताना भी महीने भर में मिल नहीं पाता है, अगर हम पांच हजार महीने की तनख्वाह भी मानें तो प्रतिदिन का 167 रूपया बनता है, जबकि राजस्‍थान में न्यूनतम मजदूरी की दर अकुशल मजदूर की 166 रूपए अर्धकुशल की 176 रूपए व कुशल मजदूर की 186 रूपए तय की गई है। इस हिसाब से देखा जाए तो पत्रकार को अकुशल मजदूर माना जा रहा है और जहां पांच हजार से कम का वेतन मिल रहा हैं, वहां तो हालात और भी खराब हैं।
यह भी बात गौर करने की है कि पत्रकार अपने समाचार पत्र के लिए सिर्फ पत्रकारिता ही नहीं करता वरन् विज्ञापन संग्रहण का कार्य भी उसके जिम्मे ही होता है, जिसमें से उसको कुछ कमीशन दे दिया जाता है। साथ-साथ समाचार पत्र के प्रबंधक व मालिक अपने इस पत्रकार नौकर से किसी भी तरह का दूसरा कार्यालयी कार्य भी करवा सकते हैं, जिसको करने के लिए वह बाध्य है। ऐसी स्थिति में प्रबंधकों व मालिकों द्वारा सिद्धांतों के नाम पर पत्रकारों को अपने हक से वंचित करना कहां तक न्यायसंगत है? सरकार की कोई योजना अगर सिर्फ पत्रकारों के लिए बनी है तो नि:संदेह उसका फायदा पत्रकार ही उठाएंगे दूसरा कोई नहीं, जैसे-सरकारी विज्ञापन का फायदा सिर्फ अखबारों को ही मिलता है। ऐसी स्थिति में अखबार के मालिकों को सोचना चाहिए कि उनका यह कदम कितना हितकारी है?
श्याम नारायण रंगा 'अभिमन्यु'
पुष्करणा स्टेडिम के पास
स्वतंत्रता सेनानी ब्रजरतन व्यास ब्रजूभा द्वार के बाहर, बीकानेर

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