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राजकमल प्रकाशन के मंच पर उतरीं चिंताएं!

राजकमल प्रकाशन ने मनाया अपना 73वां स्थापना दिवस

राजकमल को हिंदी एवं भारतीय साहित्य के प्रसार का श्रेय

स्वतंत्र आवाज़ डॉट कॉम

Tuesday 3 March 2020 04:15:49 PM

rajkamal prakashan celebrated its foundation day

नई दिल्ली। हिंदी पुस्तकों और विविध साहित्य सामग्री के विख्यात प्रकाशक राजकमल प्रकाशन प्रबंधन ने राजकमल प्रकाशन की पूर्व प्रबंध निदेशक शीला संधु को प्रकाशन की उत्तरोत्तर प्रगति का श्रेय दिया है। अवसर था राजकमल प्रकाशन का तिहत्तरवां स्थापना दिवस, जो नई दिल्ली में इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में मनाया गया। इस अवसर पर भविष्य के स्वर विचार पर्व कार्यक्रम हुआ, जिसमें अलग-अलग परकोटे से जुड़े सात विख्यात वक्ताओं ने भविष्य की सम्भावनाओं पर अपने विचार रखे। राजकमल प्रकाशन की पूर्व प्रबंध निदेशक शीला संधु और साहित्य, कला, राजनीति एवं मीडिया जगत से अनेक गणमान्य व्यक्ति उपस्थित थे। राजकमल प्रकाशन के प्रबंध निदेशक अशोक महेश्वरी ने राजकमल प्रकाशन की इतिहास पुस्तिका ‘बढ़ते कदम बनती राहें’ शीला संधु को भेंट की और कहा कि राजकमल की परम्परा और मान बढ़ाने में शीला संधु का उल्लेखनीय योगदान है, जिसमें उन्होंने साहित्येत्तर विधाओं में इस पुस्तक प्रकाशन को जारी रखा। उन्होंने आगे कहा कि आलोचना पुस्तक परिवार, ग्रंथावली प्रकाशन, राजकमल पेपर बैक्स जैसी महत्वपूर्ण योजनाओं की शुरुआत भी शीला संधु के कार्यकाल में ही हुई है।
राजकमल प्रकाशन की स्थापना 28 फरवरी 1947 को हुई थी। यह प्रकाशन भारत की आज़ादी के संग ही अस्तित्व में आया। राजकमल प्रकाशन का इतिहास आधुनिक हिंदी प्रकाशन और आधुनिक हिंदी लेखन का भी इतिहास है। करीब 73 वर्ष से राजकमल प्रकाशन हिंदी साहित्य और भारतीय साहित्य के हिंदी प्रदेशों कस्बों और गांवों-गांव तक प्रचार-प्रसार में तत्परतापूर्वक अपनी भूमिका निभा रहा है। इस प्रकाशन यात्रा का अपना एक संघर्ष है और उसकी अपनी एक कहानी है, इतिहास है, जो एक तरह से हिंदी के लोकवृत्त का इतिहास माना जाता है। राजकमल प्रकाशन ने हमेशा वर्तमान और भविष्य के बदलावों को सकारात्मक तरीके से पहचाना है। विचार और पुनर्विचार की निरंतरता से ही कोई भी समाज आगे बढ़ता है, अगर ऐसा न होता तो वह धीरे-धीरे खोखला होता चला जाता है। हिंदी समाज आज जिस संक्रमणकाल से गुजर रहा है, उसमें भविष्य पर विचार करने की आवश्यकता है।
राजकमल प्रकाशन के स्थापना दिवस पर जसिंता करकेट्टा ने बड़े ही उत्तम और बेबाक विचार रखे। जसिंता करकेट्टा आदिवासियों के बीच शिक्षा और संस्कृति पर काम कर रही हैं, उन्होंने 'भविष्य का समाज: सहजीविता के आयाम' विषय पर कहा कि भारत की मूल संस्कृति सहजीविता की संस्कृति है, क्योंकि यहां गणराज्य होते थे, जिन्होंने इतिहास लिखा है, उन्होंने यहां के मूलवासियों के नज़रिए से इतिहास नहीं लिखा, अपने तरीके से इतिहास लिखा है, लेकिन इसके बावजूद देश के लोगों ने आज भी देश की मूल संस्कृति को बचाकर रखा है। उन्होंने कहा कि वे लगातार उन संस्कृतियों के छीने जाने या मिटाए जाने के ख़िलाफ लड़ाई लड़ रहे हैं, जो लिखा नहीं गया है, उसे लोगों ने अपने जनजीवन में बचाकर रखा है। जसिंता करकेट्टा ने कहा कि देश में दो तरह का इतिहास है, एक वह जो लिखा गया है और एक वह जो जीवित इतिहास है, जीवित इतिहास आदिवासियों के पास है, जो कई वर्ष से तथाकथित मुख्यधारा की संस्कृति के खिलाफ लगातार लड़ रही है।
कवि सुधांशु फिरदौस 'स्मृतिलोप का दौर: भविष्य की कविता' विषय पर बोले। उन्होंने कहा कि तात्कालिकता और कविता से बहुत काम लेने की विवशता धीरे-धीरे सृजनात्मक स्पेस को संकुचित करते जा रही है, इसलिए कविता के लिए भविष्य में फॉर्म के रूपमें चुनौती बढ़ती जा रही है। सुधांशु फिरदौस ने कहा कि इसमें दबाव प्रदत्त उछल-कूद की संभावना तो है, लेकिन कोई बड़ी उड़ान नहीं दिख रही है, फिक्र में उलझे आदमी से एक मुद्दा छूटता है, तबतक दूसरा मुद्दा उसे अपनी गिरफ्त में ले लेता है, ऐसी ऊब-डूब में कोई विचार लम्बे समय तक सोच का हिस्सा नहीं बन पाता है। लोगों में कलात्मक कौशल का संप्रेषण एवं आत्मविश्वास बढ़ाने के लिए निरंतर कार्यरत जिज्ञासा लाबरू ने 'मुखर बचपन, सुंदर भविष्य' विषय पर अपने विचार व्यक्त किए। उन्होंने कहा कि दुनिया में नफरत और हिंसा बढ़ रही है, तकनीकी सुविधाएं इनसानी रिश्तों के समय और सुख को छीन रही हैं। जिज्ञासा लाबरू ने कहा कि सभी टीवी, वीडियो गेम, मोबाइल एप्प और सोशल नेटवर्किंग में उलझे हुए हैं, ऐसे में कला ही ऐसा माध्यम है, जो हमें अपने अंतःकरण की प्रस्तुति करने में समर्थ बनाती है। उन्होंने कहा कि जब मैंने वंचित बच्चों के साथ काम करना शुरु किया तो मेरे सबसे पहले अनुभवों में था इन बच्चों के लिए देखे गए सपनों का बेहद छोटा होना।
जिज्ञासा लाबरू ने कहा कि हमारे सपने मानो नौकरी और परीक्षा में अच्छे अंकों की चादर में तंग आकर रह गए हैं, परंतु अपनी पहचान, अपनी आवाज़ की खोज करने पर हम सबका बराबर का अधिकार है। दास्तानगोई के जाने माने फ़नकार हिमांशु बाजपेयी ने 'क़िस्सागोई: वाचिक परंपरा का नया दौर' विषय पर कहा कि जब मीडिया और बाज़ार मिलकर लोगों को एक ख़ास तरह की जानकारी दे रहे हों, हर शहर से उसका मूल किरदार छीनकर सबको अपने मुताबिक बना रहे हों तब किस्सागोई इसके ख़िलाफ एक मजबूत एहतेजाज है, क्योंकि किस्सागोई लोगों को उनकी मौलिकता, विशिष्टता और परंपरा का एहसास करवाती है, उन कहानियों को लोगों तक ले जाती है, बाज़ार, मीडिया या राजनीति जिन कहानियों को लोगों तक पहुचने से रोकते हैं। सिनेमा विश्लेषक मिहिर पंड्या ने 'सिनेमा की बदलती ज़मीन: भविष्य का सिनेमा' विषय पर कहा कि अगर हमारा सिनेमा अपने दर्शक को ऐसी कहानियां दे, जिसमें उसका आत्म झलकता हो, उसकी बोली-बानी में उसके हिस्से की बात हो, ऐसी भाषा, ऐसा भाव जो उसकी ज़मीन का हो और जिसे किसी विदेशी सिनेमा से हासिल करपाना असंभव हो, वही सिनेमा इस ग्लोबलाइज़्ड दौड़ में लम्बे समय तक टिका रह पाएगा।
कवि और आलोचक मृत्युंजय ने 'फैन कल्चर का दौर: भविष्य का आलोचक' विषय पर कहा कि आज के पेशेवर आलोचक के सामने चुनौती यह है कि वह रचना के प्रभामंडल का पुनर्निर्माण करे, लेकिन यह काम पुराने तरीके से होना असम्भव है। मृत्युंजय ने कहा कि पाठक और आलोचक ने पुराने गढ़ों को तोड़ दिया है, बिना उससे बहस-मुबाहिसा किए, बिना उसकी आलोचना किए, रचना की आलोचना अब शायद ही सम्भव हो। उनका कहना था कि अगर पेशेवर आलोचकों ने यह नहीं किया तो वे अपनी अलग जगह से रचना के उस प्रभामंडल के बारे में बात करते रहेंगे, जो अब सिर्फ़ उन्हीं को दिखता है, जिसे वे अब किसी को दिखा नहीं पाते हैं। उन्होंने कहा कि पाठकों के बीच में से एक होना इस नए पाठक आलोचक समुदाय से बात करने का पहला चरण है, उसकी पसंद का विश्लेषण इस प्रक्रिया का दूसरा चरण होगा, उनसे बहस-मुबाहिसा करते हुए उनकी व्यक्तिवत्ता का सम्मान करते हुए आलोचक को स्वयंभू उत्कृष्ट सिंहासन से उतर आना होगा, तभी जाकर आलोचक इस पाठक-आलोचक समुदाय के मूल्यबोध को किसी बड़े आख्यान में बदल पाएगा। कथाकार चंदन पांडेय ने 'पॉपुलर बनाम पॉपुलिस्ट: आख्यान की वापसी' विषय पर अपने विचार रखे। उन्होंने कहा कि फासीवाद के जिस नए संस्करण से हम मुब्तिला हैं, उससे लड़ने के लिए सबको अपना किरदार निभाना होगा।
फासीवाद की जड़ें इतनी गहरी हैं कि रचनाकर्मियों को नित प्रतिदिन यह सोचना होगा कि ऐसा क्या लिखा जाए जो फासीवाद को कमजोर करे। उन्होंने कहा कि अब अगर आख्यान को वापसी करनी है तो उसे उस बोझ पर हमला करना होगा, जो फासीवादियों के सर पर है, हमें उस बोझ को जानना होगा, उस गठरी में जाति और नफरत के दो बक्से हैं यह तो दूर से दिख रहा है, लेकिन और क्या है यह जानना होगा। उन्होंने कहा कि प्रेम संसाधनों की हड़प, नौकरियां, आख्यान की वापसी अगर होनी है तो वहीं से होगी। कार्यक्रम में वक्ताओं ने यह तथ्य प्रमुखता से उभारा कि राजकमल को हिंदी और भारतीय साहित्य के प्रसार का श्रेय जाता है। राजकमल प्रकाशन के प्रबंध निदेशक अशोक महेश्वरी ने आभार व्यक्त करते हुए कहा कि जबतक लेखकों और पाठकों का भरोसा उनपर है, राजकमल प्रकाशन का भविष्य उज्ज्वल है।

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