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भूखंड के मुआवजे की सुनवाई जिला जज के यहां

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लखनऊ। आरटीआई एक्टिविस्ट नूतन ठाकुर के उजरियांव लखनऊ में स्थित भूखण्ड के मुआवजे की सुनवाई अब जिला जज के यहां होगी। जिसमें मुआवजे की राशि को लेकर फैसला होना है। नूतन ठाकुर का कहना है कि उन्हें अधिग्रहित हुए अपने भूखंड के मुआवजे के रूप में जो धनराशि मिल रही है वह बहुत कम है जबकि एलडीए उससे कहीं ज्यादा राशि में वहां पर अपनी संपत्तियां बेच रहा है। यह प्रकरण अन्य तमाम ऐसे लोगों के लिए न्याय का मार्ग खोलता है जिनके इसी प्रकार के आवेदन पत्रों को जिला मजिस्ट्रेट कार्यालय (लखनऊ या अन्यत्र) जान-बूझ कर और जबरदस्ती रोके हुए हैं और नियमानुसार आगे सक्षम न्यायालय में मुआवजे के पुनर्विचरण हेतु नहीं भेज रहे हैं।

नूतन ठाकुर ने बताया कि उन्होंने उजरियांव गांव, तहसील एवं जिला लखनऊ में स्थित अपने भूखंड के मुआवजे के समुचित नहीं होने की दशा में उच्च न्यायालय, इलाहाबाद की लखनऊ खंडपीठ में वाद संख्या 11143/2009 दायर किया था। यह भूखंड अमर शहीद पथ गोमती नगर विस्तार योजना फेज वन के अंतर्गत वर्ष 2005 में लखनऊ विकास प्राधिकरण के लिए अधिग्रहित किया गया था, इस मामले में अपर जिलाधिकारी भूमि अध्याप्ति, लखनऊ ने दिनांक 24/09/2009 को मात्र 18.50 रुपए प्रति वर्ग फीट की दर से मुआवजे के भुगतान का आदेश किया था। इसके विपरीत वहीं पर एलडीए 450 रुपए प्रति वर्ग फीट के हिसाब से भूमि बेचे जा रहा है, डीएम का सर्कल रेट 250 प्रति वर्ग फीट है।

इस अनुपात में हमें मिलने वाले मुआवजे को काफी कम मानते हुए मैंने अपर जिलाधिकारी भूमि अध्याप्ति, लखनऊ के यहां अध्याप्ति अधिनियम 1894 की धारा 18 के अंतर्गत प्रतिकार के पुनर्निर्धारण और उच्चीकरण के लिए मामले को सक्षम न्यायालय को रेफर करने के लिए आवेदन किया था। अपर जिलाधिकारी भूमि अध्याप्ति के स्तर से काफी समय तक कोई कार्रवाई नहीं होने पर मैंने उच्च न्यायालय में वाद दायर किया। इस वाद में मैंने उच्च न्यायालय से निवेदन किया था कि धारा 18, भूमि अध्याप्ति अधिनियम के अंतर्गत प्रतिकर के पुनर्निर्धारण के लिए मेरे आवेदन को सक्षम न्यायालय को भिजवाने के निर्देश दें।

इस पर उच्च न्यायालय ने दिनांक 12 अप्रैल 2010 को यह आदेश दिया था कि किसी अन्य विधिक अड़चन के नहीं होने पर उनके आवेदन को सक्षम न्यायालय को प्रेषित कर दिया जाए। लेकिन जिला मजिस्ट्रेट लखनऊ के स्तर पर इस पर मामले में टालमटोल की गयी जिस पर मुझे बाध्य हो कर पुनः उच्च न्यायालय में अवमानना याचिका संख्या 1998/2010 दायर करनी पड़ी। इस अवामानना याचिका में शासकीय अधिवक्ता ने यह तर्क दिया कि चूंकि मेरे नाम से भू-राजस्व में नामांतरण नहीं है, अतः मैं इस अधिनियम की धारा 3 के तहत ‘पर्सन इंटरेस्टेड’ नहीं मानी जाऊंगी, किंतु उच्च न्यायालय ने स्पष्ट कर दिया कि धारा 3 में जिला मजिस्ट्रेट को ‘पर्सन इंटरेस्टेड’ के सम्बन्ध में निर्णय करने का अधिकार नहीं है और उसे तत्काल ही किसी व्यक्ति द्वारा मुआवजे के सम्बन्ध में प्रस्तुत आपत्ति को सक्षम न्यायालय को बढ़ा देना अनिवार्य है। इस पर जिला मजिस्ट्रेट कार्यालय ने मेरा प्रतिवेदन जिला न्यायाधीश, लखनऊ के समक्ष मुआवजे की धनराशि के सम्बन्ध में पुनार्विचारण हेतु प्रेषित कर दिया है।

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