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अपने राष्ट्रधर्म से दूर क्यों भागे अटल ?

दिनेश शर्मा

अटल बिहारी वाजपेयी-atal bihari vajpayee

नई दिल्ली। भारतीय जनता पार्टी के भीष्म पितामह अटल बिहारी वाजपेयी के बारे में जनसामान्य की धारणा बदल रही है। सही मायनों में उनके प्रधानमंत्रित्व काल विश्लेषण अब हो रहा है। परमाणु परीक्षण, कारगिल संघर्ष, अपह्त हवाई जहाज छुड़ाने के बदले में खतरनाक पाकिस्तानी आतंकवादियों को कंधार ले जा कर छोड़ना और उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी की नेता मायावती की तीन बार सरकार बनवाना, अटल बिहारी वाजपेयी की बड़ी गलतियां मानी जा रही हैं, इनका खामियाजा आज हिंदुस्तान की जनता भुगत रही है। इन गलतियों से फैले आतंकवाद, विघटनकारी राजनीति और भ्रष्ट राजनेताओं के गठजोड़ ने जन सामान्य को हिला दिया है। अटल बिहारी वाजपेयी ने देश-दुनिया में भले ही निजी तौर पर सम्मान अर्जित किया हो और उनकी मर्जी के बिना आज भी भाजपा में कोई बड़ा फैसला न हो पाता हो लेकिन वृहद इतिहास में इस सबका कोई खास मतलब नहीं रह जाता है। उनसे पूछा जा रहा है कि अमरीका से एटमी करार पर यूपीए सरकार के विश्वास मत के दौरान अटल बिहारी वाजपेयी अपने राष्ट्रधर्म से क्यों भाग खड़े हुए? जबकि उन्हीं के सामने, इसी सदन में लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी ने अपने वामदलों के भारी दबाव और पार्टी में आलोचनाओं की कोई परवाह ही नहीं की और यूपीए का खुलकर साथ दिया। माकपा ने बाद में उन्हें पार्टी से बर्खास्त भी कर दिया। फिर अटल बिहारी वाजपेयी और सोमनाथ चटर्जी में से किसने अपना राष्ट्रधर्म निभाया। आज देश की जनता सोमनाथ चटर्जी को अपना हीरो मान रही है जबकि अटल बिहारी वाजपेयी को बुरा भला कह रही है।
अटल बिहारी वाजपेयी देश में दलगत राजनीति से बहुत ऊपर माने जाते रहे हैं। उनसे यह उम्मीद नहीं थी कि वे देश हित से जुड़े मामले पर आए एक प्रस्ताव पर सरकार के विरोध में मतदान करने आएंगे। वे भूल गए कि एटमी करार की नीव उन्हीं की सरकार में पड़ी थी। इसी एटमी डील पर आगे बढ़ने के परिणामस्वरूप यूपीए सरकार का यह विश्वासमत संसद के पटल पर रखा गया था। मतदान हुआ और इसमें देश में घोषित राष्ट्रवादी भाग खड़े हुए। यूपीए सरकार बच गई तो उस एटमी करार का मार्ग भी प्रशस्त हो गया जिसके लिए संसद में विश्वासमत हासिल करने की नौबत आई। इस प्रस्ताव पर देश अटल बिहारी वाजपेयी की ओर देख रहा था लेकिन उस दिन वाजपेयी संसद में देश की ओर से मुह फेरे हुए बैठे थे। यह एक बड़ा अवसर था जिसमें वाजपेयी और सोमनाथ में सोमनाथ जीते और वाजपेयी हारे। रही बात वाजपेयी के प्रधानमंत्री कार्यकाल और उनके पद की जिम्मेदारियों की तो इस पद पर पांच साल सरकार चलाने की उनकी सफलता में भी निराशा ही हाथ लगेगी। घूम फिर कर प्रश्न लौटता है कि उन्होंने देश को क्या दिया है? वह भारतीय जनता पार्टी जिसे देश की जनता ने केंद्र तक की सत्ता सौंपी थी वह आज तिल-तिल कर मर रही है इसके लिए अगर अटल बिहारी वाजपेयी को जिम्मेदार नहीं माना जाए तो क्यों नहीं? अटल बिहारी वाजपेयी की कार्यप्रणाली और उनकी नीतियों की बहुत से लोग सराहना करते रहे हैं लेकिन किसी ने इस बात पर सार्वजनिक रूप से विचार प्रकट किया कि अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्री रहते उनके सामने जो चुनौतियां आई थीं उनका सामना करने में वह पूरी तरह विफल रहे।
पोखरन में परमाणु परीक्षण के बाद अंतरराष्ट्रीय समुदाय के सामने भारत भले ही महाशक्ति के छठे ताज की और देखता हुआ नजर आया हो लेकिन परमाणु परीक्षण के बाद भारत पर लगे अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंधों ने भारत को काफी कमजोर किया। जहां तक पाकिस्तान की बात है तो वह उस समय भी बर्बाद था और आज भी बर्बादी की कगार पर है इसलिए उसका कुछ नहीं बिगड़ा। भारत का बिगड़ा, जो इस भारतीय उपमहाद्वीप में ही नहीं बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एक जिम्मेदार देश के रूप में माना जाता है। उसकी तुलना पाकिस्तान से नहीं की जा सकती। अटल बिहारी वाजपेयी अपनी रणनीतियों और कूटनीतिक तरीके से अंतरराष्ट्रीय समुदाय के सामने भारत के पक्षों को रखने में पूरी तरह से नाकाम रहे। यह कौन सी नीति थी कि कुछ आतंकवादी भारत में किसी हवाई जहाज का अपहरण करें और वह भारतीय आकाश से उस हवाई जहाज को ले जाते हुए कंधार में अपनी मनमर्जी का सौदा करें और भारत उस सौदे में उन आतंकवादियों को छोड़े जिनके विरुद्ध भारत का बच्चा-बच्चा नफरत और हिकारत की नजर से देखता हो। उन आतंकवादियों को केंद्र का एक मंत्री सरकार की गाड़ी में बैठाकर छोड़ने गया। उनको जिनके खिलाफ भारत की अदालतों में आपराधिक षड्यंत्र और देशद्रोह की कार्रवाईयां चल रही थीं।
कारगिल में भारत ने क्या पाया? जनता चाहती थीं कि भारतीय सेना को जब इस संघर्ष में उतार दिया गया है तो फिर यह झगड़ा हमेशा के लिए खत्म हो जाना चाहिए लेकिन इसी भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने न केवल ऊहापोह में न जाने कितने भारतीय सैनिक इस संघर्ष में मरवा दिए अपितु जिसे कारगिल की जीत का नाम दिया गया वह भारत की करारी पराजय थी। उस समय के पाकिस्तानी जनरल परवेज मुशर्रफ की आत्मकथा पढ़ लीजिए-कारगिल का काफी सच उसमें लिखा गया है। उस समय अधिकांश देशवासियों की यही प्रतिक्रिया थी कि अगर आगे बढ़कर बीच से लौटने का ही समझौता करना था तो इतने सैनिकों को इस संघर्ष की आग में झोंकने की क्या जरूरत थी? भारतीय सेना ने किन स्थितियों में इस संघर्ष का सामना किया ऐसी स्थितियां किसी भी देश की सेना के सामने कभी नहीं आई होंगी। भारत की सेनाओं ने लक्ष्य पर जाने के बाद पीछे मुड़कर नहीं देखा लेकिन भारतीय सेनाओं को पीछे मुड़ने के लिए अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने मजबूर किया और जो गोलियां भारतीय सैनिक अपने सीने पर ले रहे थे वह गोलियां एक राजनीतिक फैसले के बाद मजबूरी में उनकी पीठ पर बरस रहीं थी। सेना के रूप में पाकिस्तानी आतंकवादियों और उस समय के सैनिक शासकों ने जो बयान दिए वह इतने खौफनाक थे जिनमें यह विश्वास करना वाजिब है कि वास्तव में भारतीय राजनेताओं के कारण भारतीय सेना को भारी नुकसान उठाना पड़ा। आज भारतीय जनता पार्टी के कुछ बड़े और बेशर्म नेता किताबें लिख-लिखकर दुनिया को वीरगाथा सुना रहे हैं और सरकार में अपने कुकर्मो के रहस्योद्घाटन कर रहे हैं इसे आप क्या अटल बिहारी वाजपेयी की रणनीतियों की विजय कहेंगे?
भारतीय जनता पार्टी और मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी के बीच छत्तीस का आंकड़ा रहता है। उत्तर प्रदेश में इसका एक प्रमुख कारण अयोध्या में राम मंदिर निर्माण और उसके विवादास्पद ढांचा गिराने को लेकर हिंसक संघर्ष की शुरूआत रहा है। मुलायम सिंह यादव ने इस मामले में मुसलमानों का भारी समर्थन हासिल किया और भारतीय जनता पार्टी ने मुलायम सिंह यादव से बदला लेने के लिए बहुजन समाज पार्टी की अध्यक्ष मायावती को ऐसे समय पर उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बनवा दिया जब भारत में और खास तौर से उत्तर प्रदेश में पुरानी और नई पीढ़ी के बीच राजनीतिक संक्रमण का एक दौर चल रहा था। भारतीय जनता पार्टी के समर्थन से मायावती के मुख्यमंत्री बनते ही उत्तर प्रदेश का दलित समाज जातीय आधार पर बहुजन समाज पार्टी के नेतृत्व में एकत्र होता चला गया और उसी रफ्तार में भारतीय जनता पार्टी के दलित वोट बैंक का सफाया होता चला गया। माना जाता है कि मायावती की सरकार बनवाने का फैसला अटल बिहारी वाजपेयी का था जिनकी राय और बात के सामने उस समय भारतीय जनता पार्टी के किसी नेता ने विरोध प्रकट नहीं किया। यदि उस समय मायावती की सरकार नहीं बनने दी जाती तो हो सकता है कि आज देश में कांग्रेस का कहीं अता पता नहीं होता और उसकी जगह आज भारतीय जनता पार्टी खड़ी होती। तब मायावती जैसी जातीय नेता भी कहीं पर कुछ ही सीटों के साथ अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रही होतीं।
भाजपा नेता की इस गलती ने ही मायावती के लिए राजनीतिक सफलताओं के द्वार खोल दिए और दूसरी जातियों में यह महत्वाकांक्षा पैदा कर दी कि बहुजन समाज पार्टी के दलित वोटों के साथ मिलकर एक अच्छा राजनीतिक खेल खेला जा सकता है। भारतीय जनता पार्टी इसमें पूरी तरह सिमट गई और जब दूसरी बार उत्तर प्रदेश विधानसभा का चुनाव हुआ तो त्रिशंकु विधानसभा की स्थिति आ पहु़ची जिसमें भारतीय जनता पार्टी के हाथ से सत्ता खिसक कर, अटल बिहारी वाजपेयी के ही आशीर्वाद से या यह कहें कि जिद के कारण फिर से मायावती को उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनवाकर सत्ता सौंप दी गई। इसका परिणाम यह हुआ कि भारतीय जनता पार्टी का उप्र राज्य और मजबूत आधार वाले उत्तर भारत में जनाजा निकल गया। भाजपा नेतृत्व को यहां भी मायावती का आगे समर्थन नहीं करने की सीख नहीं मिली और तीसरी बार भी अटल बिहारी वाजपेयी देश के प्रधानमंत्री होने के दौरान उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी के नेताओं के मुंह में ताला लगाकर मायावती को मुख्यमंत्री बनवा दिया गया।
आज भारतीय जनता पार्टी उत्तर भारत में ध्वस्त होने की कगार पर पहुंच गई है और अपना काम पूरा करके अटल बिहारी वाजपेयी भी वानप्रस्थ आश्रम में चले गए हैं। मायावती की तीसरी बार सरकार बनवाने का फैसला भी अटल बिहारी वाजपेयी का ही माना जाता है। मायावती को देखिए कि आज जिस भाजपा के कारण वह देश के प्रधानमंत्री पद की कुर्सी की तरफ देख रही हैं, उसी के वोट बैंक को उन्होंने खाली करने का काम किया है। अब तो वह अटल बिहारी वाजपेयी सहित सभी नेताओं को सरेआम जलील कर भी रही हैं और अपने को सफल रणनीतिकार बताकर उन्होंने न केवल राजनीति लूटी बल्कि उसके सहारे अपने मां-बाप, भाभियों, भाईयों और अपने रिश्तेदारों के लिए करोड़ों रुपयों की संपत्ति भी बटोरी। इस पर अटल बिहारी वाजपेयी कभी नहीं बोले और यदि भाजपा के किसी नेता ने बोलने की कोशिश की तो उसे भाजपा से ही बाहर कर दिया गया। भाजपा नेता कल्याण सिंह और भाजपा नेत्री उमा भारती इसका उदाहरण हैं। आज मायावती देश के सबसे भ्रष्ट राजनेताओं में मानी जा रही हैं और केंद्र सरकार से लेकर देश की अन्य संस्थाएं मायावती के भ्रष्टाचार पर चर्चा कर रही हैं जिससे राजनीतिक जीवन में अब पिद्दी से पिद्दी नेता भी मायावती से भ्रष्टाचार की प्रेरणा ले रहा है। यह स्थिति नहीं आई होती अगर अटल बिहारी वाजपेयी मायावती जैसी भ्रष्ट नेताओं को प्रश्रय नहीं देते इसलिए अटल बिहारी वाजपेयी भी मायावती के भ्रष्टाचार के लिए उतने ही दोषी माने जाते हैं जितने कि भ्रष्टाचार करने वाली मायावती।
अटल बिहारी वाजपेयी दुनिया का नोबेल पुरस्कार और भारत रत्न पुरस्कार पाने की होड़ में भी खड़े देखे गए हैं। यह पुरस्कार उन्हें क्या इसलिए मिलना चाहिए कि उन्होंने परमाणु विस्फोट किया है, कंधार ले जाकर आतंकवादी छोड़े थे, कारगिल संघर्ष कराया था और मायावती को मुख्यमंत्री बनवाया था? जहां तक उनकी विदेशनीति का प्रश्न है तो जिस समय वह विदेश मंत्री थे उस समय की स्थितियों में आज की स्थितियों में समानता नहीं की जा सकती। जनसंघ के अध्यक्ष प्रो. बलराज मधोप एक ऐसे नेता थे जो अटल बिहारी वाजपेयी की नीतियों से कभी सहमत नहीं रहे। उन्होंने अटल बिहारी वाजपेयी का कई अवसरों पर इसलिए विरोध किया क्योंकि वह कुछ ऐसे समझौतों की तरफ बढ़ रहे थे जिनसे राष्ट्रवाद को नुकसान होना था। उसकी परिणति आज सबके सामने है और राष्ट्रवाद का जितना नुकसान अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्रित्व काल में हुआ है उतना कभी नहीं हुआ है। देश के भारत रत्न सम्मान को लेकर पिछले महीनों में जो विवाद हुआ, उसकी शुरूआत भी अटल बिहारी वाजपेयी का नाम आते ही हुई थी। इनका नाम आते ही सारे राजनीतिक दलों ने तमाशा खड़ा कर दिया और ऐसे-ऐसे नाम सामने आ गए कि यह पुरस्कार भारी विवाद से ग्रस्त हो गया। भारतीय जनता पार्टी के एक और हिंदू नेता लालकृष्ण आडवाणी ने इस मामले में आग में घी डालने जैसा काम किया कि उन्होंने अटल बिहारी वाजपेयी की इस पुरस्कार की पैरवी करके इसे और ज्यादा हास्यास्पद बना दिया।
यह देश आज अटल बिहारी वाजपेयी के प्रति सम्मान प्रकट करता है और सम्मान प्रकट करने वालों में वह समाज सबसे अधिक है जिसे अटल बिहारी वाजपेयी की राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर की नीतियों की सफलता या विफलता को समझना नहीं आता है। अटल बिहारी वाजपेयी को वो लोग अधिक समझते हैं जो जानकार हैं कि उनके राजनीतिक और प्रशासनिक फैसलों से देश को क्या फायदे और क्या दीर्घकालिक नुकसान हुए हैं। अटल बिहारी वाजपेयी के लिए कुछ राजनेताओं में भले ही कोई असहजता नहीं हो लेकिन देश की ज्वलंत समस्याओं को लेकर अगर आप दिमाग और दिल से मंथन करें तो जितना नुकसान देश को अटल बिहारी वाजपेयी से हुआ उतना नुकसान भारत का विभाजन कराने वाले मोहम्मद अली जिन्ना से भी नहीं हुआ है।

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