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पुलिस-पब्लिक में टकराव को समझें!

गौरी भारद्वाज

Monday 24 March 2014 03:01:55 PM

police-publice

पुलिस और पब्लिक हमारे ही देश का नहीं वरन पूरी दुनिया के लिए एक अत्यंत संवेदनशील विषय है, जिसे कुछ ही लाइनों में व्यक्त नहीं किया जा सकता, किंतु यह समझ लेना और उसे व्यवहार में लाना बेहद महत्वपूर्ण है कि समाज में शांति और कानून व्यवस्था की स्थापना में इन दोनों की सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका है। ये दोनों एक दूसरे के कोटिपूरक हैं, परस्पर विरोधी नहीं। बड़ी स्पष्ट बात है कि पुलिस सुरक्षा प्रदान करने और कानून का पालन कराने के लिए है, तो समाज का यह कर्तव्य है कि वह पुलिस को उसकी जिम्मेदारियों के निर्वहन में अपेक्षित सहयोग प्रदान करे। दोनों के बीच जो टकराव की ‌स्थिति है, उसके कारणों के पीछे अकेले पुलिस और पब्लिक नहीं है, बल्‍कि उसका राजनीतिक रूप से दुरूपयोग एक बड़ा कारण है, जिससे एक अनुशासित बल पब्लिक में अपनी साख खोता जा रहा है। पब्लिक आज पुलिस के व्यवहार से अपना धैर्य खो रही है। वह पुलिस और सीधे थानों पर हमले कर रही है। पुलिस के लिए इससे ज्यादा निराशाजनक स्थिति और क्या होगी कि उस पर वही विश्वास नहीं कर रहे हैं, जिनके लिए वह बनाई गई है।
पुलिस-पब्लिक में आजकल हम आपसी सहयोग के बजाय दोनों के बीच टकराव और उससे जुड़ी खबरें ज्यादा सुन रहे हैं, यह दोनों के लिए समानरूप से अत्यंत चिंता का विषय है। जहां समाज एवं कानून के हित में आपसी तालमेल मजबूत होना चाहिए था, वहां एक दूसरे के प्रति अविश्वास बहुत बढ़ गया है और इसका समाज या पुलिस पर ही नहीं, बल्कि न्यायपालिका पर भी भारी दबाव महसूस किया जा रहा है। पुलिस में भ्रष्टाचार या फर्जी मुकद्मों की खींचतान पब्लिक पर नकारात्मक असर डाल रही है और अपने को इससे बचाने के लिए पब्लिक दूसरे तरीकों का इस्तेमाल कर रही है। वह तत्काल न्याय के लिए दबंगों का सहारा लेना ज्यादा उपयुक्त समझ रही है। आपसी मामूली घटनाओं को, जिन्हें केवल बातचीत से समझा बुझाकर रोका जा सकता है, पुलिस उसमें भी नाकाम सी दिख रही है, इसीलिए आम जनता अपनी छोटी-मोटी समस्याओं के समाधान के लिए पुलिस पर नहीं बल्कि न्यायालय पर ज्यादा भरोसा कर रही है। कई बार आंदोलनों से निपटने में भी पुलिस संवेदनहीन दिखाई पड़ती है, जिससे पुलिस एवं पब्लिक के बीच गंभीर टकराव होता है, तथापि पुलिस-पब्लिक का रिश्ता कभी टूट नहीं सकता, लेकिन इस रिश्ते में जो गतिरोध चल रहा है, उसे पुलिसिंग कम्युनिटी जैसे तरीकों से ही रोका जा सकता है।
पब्लिक यह आशा करती है कि पुलिस तुरंत घटनास्थल पर पहुंचे, किंतु ऐसा अब कम ही हो रहा है। पुलिस और पब्लिक के बीच का संख्या अनुपात भी इसकी एक बड़ी वजह है। जनसंख्या वृद्धि का प्रभाव अस्पतालों और नागरिक सुविधाओं पर भी स्पष्ट रूप से देखा और महसूस किया जा सकता है। पुलिस कहां-कहां पहुंचे, यह भी एक गंभीर सवाल है। पुलिस से जनता की अपेक्षाएं इतनी ज्यादा हैं कि पुलिस उन्हें पूरा करने में असहाय महसूस करती है। आज यह धारणा बन गई है और पब्लिक को यह शिकायत भी है कि पुलिस एक वर्ग विशेष एवं साधन संपन्न या ताकतवर लोगों के लिए तो तुरंत चल पड़ती है और जहां उसकी तात्कालिक रूप से आवश्यकता है, वहां पहुंचने में वह बहुत देर लगाती है। पुलिस से पब्लिक की शिकायतें तो इतनी हैं कि उन्हें गिनाते रहिए। पुलिस-पब्लिक के रिश्तों में ये ऐसी खामियां हैं, जिन्हें दूर करने की कोशिशें व्यवहारिक नहीं हैं, केवल औपचारिकता और कानून बनाकर ही जिम्मेदारी पूरी मान ली जा रही है। यदि हम सामाजिक दृष्टिकोण से पुलिस-जनता के रिश्तों को गहराई से देखें तो यह पाते हैं कि देश के विभिन्न राज्यों के क्षेत्र विशेष में पुलिस का कार्य काफी चुनौतीपूर्ण हो चुका है। नक्सल या सांप्रदायिक समस्याएं यूं तो सामाजिक उपेक्षा की देन हैं, किंतु इससे सीधे निपटने की जिम्मेदारी पुलिस पर ही आती है। जो समस्याएं सामाजिक ण्वं राजनीतिक संक्रमण से पैदा हुई हैं, उनको सरकारें पुलिस से नियंत्रित कराती हैं, पुलिस को राजनीतिक समस्याओं से बलपूर्वक निपटने में लगाया जाता है। पुलिस का कार्यक्षेत्र विस्तृत हो गया है, जिसमें उसके पब्लिक से रिश्ते गड़बड़ा रहे हैं। पुलिस तात्कालिक समस्याओं के समाधान के लिए जिस विवेक का इस्तेमाल करती है, उसमें भी कई स्तरीय हस्तक्षेप है।
मानना होगा कि पुलिस का सिपाही ही पब्लिक के सबसे ज्यादा करीब है और वह पब्लिक के टेंपरामेंट को बहुत अच्छी तरह से समझता है। वह समस्या को जड़ से जानता है, जबकि उसके अधिकारी वर्ग का केवल पर्यवेक्षण कार्य ही होता है। कानून व्यवस्था को संभालने के लिए सिपाही ही मोर्चे पर होता है। अब यहां एक बड़ा सवाल है कि पुलिसिंग की नीतियां बनाते समय एक सिपाही के अनुभव का कितना लाभ उठाया जाता है? जहां तक हम समझते हैं कि पुलिस पब्लिक रिश्तों की इस पहली सीढ़ी के महत्व पर नीति नियंताओं के पास ही इसका सही जवाब है। हमें पुलिस-पब्लिक के रिश्तों पर विचार करते हुए इस तथ्य पर पूरा ध्यान देना होगा। हमें समाज के लोगों के बीच कार्यशालाएं आयोजित करनी होंगी। हमें स्कूल-कालेजों में बच्चों और युवाओं को जागरूक करते हुए पुलिस-पब्लिक के रिश्तों पर उनकी जिम्मेदारियों एवं कठिनाइयों पर चर्चा करनी होगी। उनमें विश्वास जगाना होगा। इसके लिए यहां सकारात्मक दृष्टिकोण ही सार्थक होगा। हमें पब्लिक से सीधे जुड़े ट्रैफिक पुलिस के सिपाही को पूरा सहयोग करना होगा, जो हमारे यातायात का सुगम बनाने के लिए है। हम आमतौर पर यातायात कानून तोड़ने में अपनी शान समझते हैं, जबकि इसका पालन करना आम जनता की सहजता जीवन रक्षा एवं सुविधा के लिए बेहद जरूरी है।
आज केवल इस बात की आवश्यकता नहीं है कि पुलिस की संख्या बढ़ा दी जाए और उसे अति आधुनिक शस्त्रों से लेस किया जाए, बल्कि इसकी आवश्यकता है कि ये दोनों पक्ष एक दूसरे को समझें और सहयोग करें। पुलिस का अपने निजी उद्देश्यों की पूर्ति के लिए दुरूपयोग रुके। देश के पास 64 प्रतिशत युवाओं की शक्ति है, जिसमें पुलिस भी है। इसका उपयोग यदि हम केवल बल प्रयोग के लिए ही करेंगे तो इससे काम नहीं चलेगा। पुलिस बल को सामाजिक क्षेत्र के कल्याणकारी कार्यों में भी लगाया जाना चाहिए। पुलिस को सरकार के दूसरे विभागों में भी प्रशिक्षित किया जाना चाहिए एवं उनकी मनोदशा में संतुलन बनाए रखने के लिए उन्हें मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी समृद्ध किया जाना जरूरी है। पब्लिक एक अनियंत्रित समाज है, जिसमें परिवार के भीतर से ही अनुशासन की शिक्षा देकर बेहतर तरीके से जागरूक किया जा सकता है और पुलिस कानूनी अधिकार प्राप्त एक अनुशासित संगठन है, जो हमें एहसास कराता है कि हम सार्वजनिक रूप से जो गलती कर रहे हैं या जो अपराध कर रहे हैं, उसे रोकना पुलिस का कार्य है। पुलिस कानून का पालन कराती है, वह समाज का ही एक बड़ा हिस्सा है। एक दूसरे का सहयोग करना दोनों के अच्छे रिश्तों के लिए जरूरी है। पुलिस-पब्लिक संबंधों में विश्वास से ही सामाजिक शांति, सहयोग एवं प्रगति की आशा की जा सकती है। 

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