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ज्ञानपीठ कहानीकार अमरकांत का निधन

स्वतंत्र आवाज़ डॉट कॉम

Wednesday 19 February 2014 06:54:20 PM

amarkaant

इलाहाबाद। ज्ञानपीठ पुरस्कार जैसे अनेक प्रतिष्‍ठित पुरस्‍कारों से सम्‍मानित प्रख्यात कहानीकार अमरकांत का सोमवार प्रातःकरीब सवा नौ बजे निधन हो गया, वे घर में स्‍नानागार में नहाते वक्‍त गिर गए और वहीं पर उनकी मृत्‍यु हो गई। अमरकांत 88 वर्ष के थे और वर्ष 1989 से आस्टियोपोरोसिस रोग से भी पीड़ित थे। इसके बावजूद वे अंतिम समय तक रचनाशील रहे। उनका जन्म 1 जुलाई 1925 को उत्तर प्रदेश के बलिया जिले में नगरा कस्‍बे के पास भगमलपुर गांव में हुआ था। इनका वास्तविक नाम श्रीराम वर्मा था और इनके पिता सीताराम वर्मा पेशे से वकील थे। इनकी माता अनंती देवी एक गृहिणी थीं। उनके परिवार में दो पुत्र और एक बेटी एवं उनका पूरा परिवार है। इलाहाबाद में अशोक नगर में पंचपुष्‍प अपार्टमेंट में उनका आवास है। मंगलवार को दारागंज घाट पर उनका अंतिम संस्‍कार कर दिया गया।
'जिंदगी और जोंक', 'देश के लोग', 'मौत का नगर', 'मित्र मिलन और अन्य कहानियां', 'कुहासा', 'तूफ़ान', 'कलाप्रेमी', 'एक धनी व्यक्ति का बयान', 'सुख और दुःख का साथ', 'जांच और बच्चे' अमरकांत के प्रमुख कहानी संग्रह हैं। इसके अतिरिक्त इनकी 'प्रतिनिधि कहानियां' और 'संपूर्ण कहानियों' का भी प्रकाशन हो चुका है। 'कुछ यादें और बातें' एवं 'दोस्ती', 'डिप्‍टी कलक्‍टरी', 'हत्‍यारे', इनके प्रख्यात संस्मरण पुस्तकें हैं। उन्‍होंने उपन्यास भी लिखे हैं, जिनमें 'सूखा पत्ता', 'कंटीली राह के फूल', 'सुखजीवी', 'काले-उजले दिन', 'ग्राम सेविका', 'बीच की दीवार', 'सुन्नर पांडे की पतोह', 'आकाश पक्षी', 'इन्हीं हथियारों से', 'लहरें', 'विदा की रात' प्रमुख हैं। 'इन्हीं हथियारों से' उपन्यास पर अमरकांत को साहित्य अकादमी पुरस्कार दिया गया, जबकि इनके समग्र लेखन पर ज्ञानपीठ पुरस्कार प्रदान किया गया। उन्‍हें व्‍यास सम्‍मान और सोवियत लैंड नेहरू पुरस्‍कार से भी सम्‍मानित किया जा चुका है।
अमरकांत साहित्‍य जगत में अपनी कालजी रचनाओं से सदैव छाए रहे ने कुछ महत्वपूर्ण बाल साहित्य की भी रचना की, जिसमें 'नेउर भाई', 'बानर सेना', 'खूंटा में दाल है', 'सुग्गी चाची का गांव', 'झगरू लाल का फैसला', 'एक स्त्री का सफ़र', 'मंगरी', 'बाबू का फैसला', और 'दो हिम्मती बच्चे' प्रमुख हैं। मार्कंडेय और शेखरजी के साथ अमरकांत ने इलाहाबाद में रहते हुए नयी कहानी आंदोलन की वास्तविक छवि बनाई। अमरकांत कहा करते थे कि लेखक को न तो विपरित स्‍थितियों से घबराना चाहिए और ना ही आलोचना से दुःखी होना चाहिए, लेखन के प्रति समर्पण ही रचनाकार को स्‍वीकार्यता दिलाता है, लेखक का असली जज आलोचक नहीं, बल्‍कि पाठक होता है, इसलिए लेखक को साफ नजरिए के साथ अपनी रचना के प्रति ईमानदार होना चाहिए।
अमरकांत ने बलिया से हाईस्कूल की परीक्षा पास की और 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन में कूद पड़े। तथापि उन्‍होंने इंटर और फिर इलाहाबाद विश्वविद्यालय से बीए किया। उसके पश्चात आगरा से अपने लेखन और पत्रकार जीवन की शुरुआत की। वे इलाहाबाद से निकलने वाली पत्रिका 'मनोरमा' के संपादन से एक अरसे तक जुड़े रहे। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लगभग चालीस वर्ष लेखन और संपादन करने के पश्चात इन दिनों स्वतंत्र रूप से लेखन कर रहे थे। अमरकांत इस समय 'बहाव' नामक पत्रिका का संपादन कर रहे थे। स्‍वतंत्र आवाज़ डॉट कॉम की ओर से अमरकांत जी को विनम्र श्रद्धांजलि।

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