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समलिंगियों का यह भयानकतम दुश्चक्र!

प्रभु जोशी

Sunday 15 December 2013 01:24:22 AM

lesbians

भारत के सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के बाद बुद्धिजीवियों की एक बिरादरी समलिंगियों के अधिकारों को लेकर चर्चा करने में जुट गई है। वे इस कानून को ‘राज्य’ का मानवता के विरुद्ध किया जा रहा जघन्य अपराध मानते हैं। इसमें अमेरिकी समाज का उदाहरण दिया जा रहा है, मगर यहां यह भी देखना जरूरी है कि पिछले कुछ दशकों में अमेरिकी समाज में समलैंगिकता को वैध बनाने के लिए कैसी रणनीतिक कवायदें की गईं। यह सब एक सुनिश्चित योजना के तहत हुआ। दरअसल, समलैंगिकता किसी भी व्यक्ति में जन्मते नहीं होती। वह बचपन के निर्दोष कालखंड में अज्ञानतावश हो जाने वाली किसी त्रुटि के कारण आदत का हिस्सा बन जाती है। इस तरह यह ‘नादानी में अपना लिए जाने वाली’ वैकल्पिक यौनिकता है, जिसे चिकित्सीय दृष्टि ‘प्राकृतिक’ या ‘नैसर्गिक’ नहीं मानती। जब व्यक्ति इसमें फंस जाता है तो बुनियादी रूप से उसके लिए यह एक किस्म की यातना ही होती है, जिसमें उसके समक्ष बार-बार अपना यौन सहचर बदलने की विवशता भी जुड़ी होती है। इसके अलावा, इसमें विपरीत सेक्स के साथ किए गए दैहिक आचरण की-सी संतुष्टि भी नहीं मिल पाती।
तमाम सर्वेक्षण और अध्ययन बताते हैं कि कोई भी व्यक्ति स्वेच्छया समलैंगिक नहीं बनता। किशोरवय में पहली यौन-उत्तेजना और आकर्षण विपरीत सेक्स को लेकर ही उपजता है, समलैंगिक के लिए नहीं। न्यूयॉर्क के अलबर्ट आइंस्टाइन कॉलेज ऑफ मेडिसिन के प्रोफेसर डॉ चार्ल्स सोकाराइड्स की स्पष्टोक्ति है कि यौन-उद्योगों से जुड़े कुछ तेज-तर्रार शातिरों की यह एक धूर्त वैचारिकी है, जो समलैंगिकों को विकृतिग्रस्त बताती है इसलिए इससे सहमत नहीं हुआ जा सकता। अमेरिकी समाज में समलैंगिकता की समस्या के विख्यात अध्येता डॉ चार्ल्स अपनी पुस्तक ‘होमोसेक्सुअल्टी: फ्रीडम टू फॉर’ में कहते हैं-‘अमेरिकी समाज में यह तथाकथित समलैंगिक क्रांति’ (?) यों ही हवा में नहीं गूंजने लगी, बल्कि यह कुछ मुट्ठी भर शातिर बौद्धिकों की मानववाद के नाम पर शुरू की गई वकालत का परिणाम थी, जिनमें से अधिकतर खुद भी समलैंगिक थे। ये लोग यौनिक अराजकता को नारी स्वातंत्र्य को दिए जा रहे मुंहतोड़ उत्तर की शक्ल में पेश कर रहे थे।
पश्चिम में, जब पुरुष की बराबरी को मुहिम की तहत स्त्री ‘मर्दाना’ बनने के नाम पर, अपने कार्य-व्यवहार और रहन-सहन में भी इतनी अधिक ‘पुरुषवत’ या ‘पौरुषेय’ होने लगी कि उसका समूचा वस्त्र विन्यास भी पुरुषों की तरह होने लगा, तो स्त्री की जो ‘स्त्रैण-छवि’ पुरुषों को यौनिक उत्तेजना देती थी, धीरे-धीरे उसका लोप होने लगा। वेशभूषा की भिन्नता के जरिए, किशोरवय में लड़के और लड़की के बीच, जो प्रकट फर्क दिखाई देता था, वह धूमिल हो गया। इस स्थिति ने लड़के और लड़के के बीच यौन-निकटता बढ़ाने में मदद की, जिसने आखिरकार उन्हें समलैंगिकता की ओर हांक दिया। निश्चय ही इसमें फैशन-व्यवसाय की भी काफी अहम भूमिका थी। इसके साथ ही अमेरिकी समाज में एकाएक यौन-पंडितों की एक पूरी पंक्ति आगे आ गई, जिसमें अल्फ्रेड किन्से, फ्रिट्स पर्ल और नार्मन ब्राऊन जैसे लोग थे। इन्होंने एक नई स्थापना दी कि अगर ये संबंध ‘फीलगुड’ हैं, तो इसमें अप्राकृतिक जैसा क्या है? ‘फीलगुड’ की वकालत करने वालों में विख्यात मनोवैज्ञानिक और समाजशास्त्री हर्बर्ट मार्क्यूज भी शामिल हो गए, जिनकी पुस्तक ‘वन डाइमेंशनल मैन’ फ्रायड की वैचारिकी से भी अधिक सम्मान और ख्याति प्राप्त कर चुकी थी। इन सब लोगों ने संगठित होकर, अपने तर्कों के सहारे समलैंगिकता के साथ जुड़ा ‘अप्राकृतिक-मैथुन’ वाला लांछन भी पोंछ दिया।
समलैंगिकता के इन पैरोकारों में से कुछ लोगों के साथ समलैंगिक होने की कुख्याति भी जुड़ी थी, लेकिन इन लोगों ने अपने कथित बौद्धिक आंदोलन को शक्ति-संपन्न बनाने के लिए यह किया। इन्होंने अभी तक ‘कुटेव’ समझी जाने वाली अपनी लत को महिमामंडित करते हुए सार्वजनिक कर दिया और कहा: ‘हम समलैंगिक हैं और इसको लेकर हममें कोई अपराधबोध नहीं है, यह हमारी इच्छित-यौन स्वतंत्रता है, क्योंकि यौनांग का अंतिम अभीष्ट आनंद ही होता है और इसमें भी हम आनंद प्राप्त करते हैं।’ इस समूचे विवाद में रस लेकर, उसे तूल देने के लिए कुछ प्रकाशकों ने ‘मेक द होल वर्ल्ड गे’ यानी ‘समूचे संसार को समलैंगिक बनाओ’ के नारे को घोषणा-पत्र का रूप देकर छाप दिया। डेनिस अल्टमैन की पुस्तक ‘होमो-सेक्सुअलाइजेशन ऑफ अमेरिका’ भी इसी वक्त आई। अल्टमैन खुद समलैंगिक थे। उन्होंने 1982 में कहा-‘समलैंगिक संबंध अमेरिका में राज्य की सीमा से अधिक हस्तक्षेप के कारण आततायी बन चुकी विवाह-संस्था की नींव हिला डालने वाला है। शादी के साथ जुड़ चुकी घरेलू हिंसा वाले कानून के पचड़ों से बचने का एकमात्र निरापद रास्ता है-स्विंगिंग-सिंगल हो जाना।’ यह आकस्मिक नहीं था कि इन तमाम धुरंधरों ने व्याख्याओं का अंबार लगा दिया कि समलैंगिकता, निर्मम परंपरागत यौनिक-बंधन से मुक्ति का मार्ग है। यह मनुष्य के स्वभाव का पुनराविष्कार है।
कुल मिलाकर समलैंगिकता से जुड़े सामाजिक-सांस्कृतिक संकोच के ध्वंस के लिए तरह-तरह के विचारधारात्मक प्रहार किए जाने लगे। कुछ चर्चित कानूनविदों ने चर्चा में आने के लिए बहस को अपनी ओर से कुछ ज्यादा ही सुलगा दिया। लगे हाथ टेलीविजन चैनलों और हॉलीवुड के फिल्म निर्माताओं ने इस पूरे विवाद और विषय को लपक लिया और धड़ाधड़ समलैंगिक जीवन को आधार बना कर, उनके अधिकारों को वैध मांग के रूप में प्रस्तुत करना शुरू कर दिया। नामचीन प्रकाशकों ने इसे अपने व्यापार का स्वर्णिम अवसर मान कर बाजार को समलैंगिकता के पक्ष-विपक्ष पर एकाग्र पुस्तकों से पाट दिया। इस सारे तह-ओ-बाल और गहमागहमी को पॉल गुडमैन जैसे शिक्षाविदों ने शिक्षा के क्षेत्र में हांक दिया और अचानक सेक्स एजुकेशन की जरूरत और अनिवार्यता के पक्ष में लंबे-लंबे लेख और विमर्श होने लगे। अमेरिकी टेलिविजन के लिए यह विषय ‘दमदार और दामदार’ भी बनने लगा। नैतिकता का प्रश्न उठाने वालों को ‘होमो-फोबिया’ का शिकार कह कर, उनकी आपत्तियों को खारिज किया जाने लगा। उन्होंने कहा कि समलिंगी ठीक वैसे ही हैं, जैसे कि कोई गोरा होता है या काला, इसलिए इन्हें सभी किस्म की स्वतंत्रताओं को ‘एंजाय’ करने का पूरा अधिकार है। यह किशोरवय की दैहिकता से फूटती यौन-उत्तेजना का नया प्रबंधन था। यह युवा होने की ओर बढ़ने वाला वर्ग ही समलैंगिकता की सैद्धांतिकी का राजनीतिक मानचित्र बनाने वाला था। इसलिए यह वर्ग ही आंदोलन का अभीष्ट था। वे कहने लगे, समलैंगिकता आबादी रोकने में एक अचूक भूमिका निभाती है, तभी ‘फिलाडेल्फिया’ नामक फिल्म आई, जिसमें सुनियोजित मनोवैज्ञानिक युक्तियां थीं, जो करुणा का कारोबार करती हुई निर्विघ्न ढंग से ‘ब्रेनवॉश’ करती थीं।
डॉ चार्ल्स कहते हैं कि मैंने चार दशकों के अपने चिकित्सीय अनुभव में पाया कि वे अपनी समलैंगिक जीवन पद्धति से सुखी नहीं हैं। वे उस कुचक्र से बाहर आना चाहते हैं। एक हजार में से नौ सौ सत्तानबे लोग अपनी समलैंगिकता को लेकर दुखी हैं। बहरहाल, उपचार के बाद ऐसे सैकड़ों रोगी हैं, जिन्होंने विवाह रचाए और वे सुंदर और स्वस्थ्य संतानों के पिता हैं। मैंने यह भी पाया कि दरअसल, समलैंगिक बनने में उनके माता-पिताओं की भूमिका ज्यादा रही है, जिन्होंने किशोरवय में पूर्ण स्वतंत्रता की मांग करने वाले अपने बच्चों के साथ सख्त सहमति प्रकट करने के बजाय उनकी ‘स्वतंत्रता का सम्मान’ करने का जीवनघाती ढोंग किया। समलैंगिकों में से अधिकतर ने कहा कि वे झूठी स्वतंत्रता में जी रहे हैं, जबकि यह एक दासत्व ही है। यह वैकल्पिक जीवन पद्धति नहीं, सिर्फ आत्मघात है। समलैंगिकता जन्मना नहीं है। यह मीडिया के बढ़-चढ़ कर बेचे गए झूठ का परिणाम है।’ एक जगह डॉ चार्ल्स कहते हैं-‘दरअसल हकीकत यह है कि समलैंगिकों के अधिकारों की ऊंची आवाजों में मांग करने वाले मुझे चुप कराना चाहते हैं, क्योंकि वे यौन उद्योग की तरफ से और उनके हितों की भाषा में बोल रहे हैं। वे मनुष्य के जीवन से उसकी नैसर्गिकता का अपहरण कर रहे हैं। वे मानवता के कल्याण नहीं, अपने लालच में लगे हुए हैं और उसी के लिए लड़ रहे हैं। उन्हें प्रकृति या ईश्वर ने समलिंगी नहीं बनाया है, इन्हीं लोगों ने बताया है। सोचिए, तब क्या होगा, जब सहमति से होने वाले सेक्स के लिए उम्र की सीमा चौदह वर्ष निर्धारित कर दी जाएगी। इस मांग से हमारे विद्यालय पशुबाड़े में बदल जाएंगे।’
दुर्भाग्यवश हिंदुस्तान में एड्स और सेक्स टॉय के व्यापार के लिए राज्य खुद ही समलैंगिक संबंधों को कानून की परिधि से बाहर निकालने का इरादा प्रकट कर रहा है। वह समलिंगियों की ‘ऑफिशियल आवाज़’ बन रहा है, ताकि अरबों डॉलर का यौन उद्योग यहां भी अपनी जड़ें जमा सके। यह सब धतकरम एड्स की आड़ में हो रहा है, जिसके चलते वहां की विकृति एड्स की स्वीकृति बन जाए। हम अभी भारत की आबादी के एक बहुत बड़े हिस्से को रोटी, कपड़ा, मकान तो छोड़िए, पीने योग्य पानी तक नहीं दे सके हैं, ऐसे में इन लड़ाइयों को स्थगित करके समलैंगिकता की लड़ाई लड़ना कितना विवेकपूर्ण कहा जा सकता है? क्या हम इसको लेकर कोई विवेक-सम्मत विरोध नहीं कर सकते? जनसत्ता से साभार।

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