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एक मैं और दूसरा संसार !

हृदयनारायण दीक्षित

Saturday 30 November 2013 05:18:04 AM

मोटे तौर पर संसार में दो घटक हैं। एक मैं और दूसरा संसार। ईश्वर प्रत्यक्ष नहीं है। तर्क से सिद्ध करना असंभव। प्रतितर्क भी कमजोर नहीं है। ईश्वर की खोज के सारे उपकरण संसारी हैं। योग, ध्यान, ज्ञान, भक्ति, उपासना आदि कर्मो का क्षेत्र यह संसार ही है। मूलभूत प्रश्न यह है कि विश्व जनसंख्या का अधिकांश भाग ईश्वर के प्रति आस्थालु या जिज्ञासु क्यों हैं? सीधा उत्तर है कि मनुष्य आनंद का प्यासा है और ईश्वर के संबंध में अब तक उपलब्ध सारे कथन उसे आनंददाता बताते हैं। सुख प्राप्ति के अनेक उपकरण हैं-अनुकूल राज और समाज, घर, धन, अनुकूल परिजन, धन संपदा आदि। कह सकते हैं कि ईश्वर भी इसी तरह का आनंददाता उपकरण हैं। आनंद मुख्य है, ईश्वर आनंद प्राप्ति का अदृश्य, अज्ञात आस्था केंद्र। ईश्वर की खोज का काम मंगल ग्रह पर यान भेजने या हिंग्स जैसे वैज्ञानिकों द्वारा सृष्टि सृजन का मूल तत्व पता करने से भी बड़ा है। ईश्वर सर्वोच्च जिज्ञासा है और इसकी खोज सर्वोच्च विलासिता।
संसार की अनुकूलता सुख देती है। इसलिए संसार का ज्ञान जरूरी है। संसार का सम्यक ज्ञान ही विज्ञान है। मैं स्वयं भी संसार की एक इकाई हूं, लेकिन इस इकाई का ज्ञान पदार्थ विज्ञान से नहीं मिलता। शरीर रचना को समझने के लिए काय-विज्ञान (एनोटामी) है। शरीर में असंख्य कोष हैं, जटिल भाव व क्षेत्र हैं। शारीरिक संरचना के घटक कमोवेश सभी मनुष्यों में एक जैसे हैं, लेकिन हरेक मनुष्य के अहंकार, मन, बुद्धि आदि घटक भिन्न-भिन्न हैं। मनुष्य अति जटिल बहुकोषीय संरचना है। सुख, आनंद, स्वस्ति या शांति के लिए स्वयं का विज्ञान जानना जरूरी है। स्वयं का ज्ञान ही अध्यात्म है। तैत्तिरीय उपनिषद् में बताते हैं अब अध्यात्म का वर्णन है। मनुष्य में नीचे का जबड़ा पूर्व रूप है, ऊपर का उत्तर रूप। दोनो के मिलन स्थान पर वाक् संधि है। जिह्वा संधान है। अध्यात्म यहां पूरा हुआ।'' उपनिषद् गुरू शिष्य का संवाद है। संवाद का मुख्य उपकरण वाक् है। वाक् और उसके संबंधी उपकरण यहां अध्यात्म हैं। अध्यात्म भी लक्ष्य नहीं उपकरण ही है।
सूचनाओं का अंबार आधुनिक मनुष्य की समस्या है। दुनिया की तमाम जानकारियां हमारी पकड़ में हैं। इन सबका उपयोग संभव नहीं। हम गपशप में उद्धरण देकर अपना ज्ञान झाड़ सकते हैं। इस तरह स्वयं को विद्वान और ज्ञानी समझने की भूल भी करते हैं। इसके ठीक उलट मनुष्य की सबसे बड़ी समस्या है कि वह अपने अंत: क्षेत्र से बहुत कम परिचित है। हम अपना रक्तचाप या मधुमेही स्तर याद रखते हैं। क्रोध नापने का कोई यंत्र है नहीं। हम अपने क्रोध और बोध के तल से अपरिचित हैं। हम अपने भीतर के भय से मुठभेड़ करते हुए कभी जीते या हारे नहीं हैं। हम भय की गिरफ्त में हैं। हमने उसे चुनौती दी ही नहीं। हम अपने अहंकार से मित्रता साधने में विफल रहे हैं, वह हमकों हांक लेता है, बैलों की तरह। हम विश्व के महाद्वीपों, राष्ट्र राज्यों, राजव्यवस्थाओं भिन्न भिन्न सभ्यताओं दर्शन और जीवनशैलियों को रट चुके हैं, लेनिक स्वयं से अपरिचित हैं। स्वयं से हमारी कोई जान पहचान ही नहीं। भारतीय चिंतन में स्वयं बोध को ही अतिरिक्त महत्व दिया गया। आस्था को नहीं। स्वयं की अंत:प्रेरणा पर सम्यक विश्वास का नाम ही आस्तिकता है और इसके बोध का उपकरण है अध्यात्म।
भारत में 'अध्यात्म' को ईश्वर संबंधी विषय या आस्था माना जाता है, लेकिन वैदिक साहित्य से लेकर महाभारत काल तक अध्यात्म का अदृश्य ईश्वर से कोई लेना देना नहीं है। अध्यात्म, निरी सांसारिक जानकारी है, लेकिन संसार की जानकारी नहीं। स्वयं का ज्ञान ही अध्यात्म है। गीता (8.3) में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को बताया स्वभावों अध्यात्म उच्यते - स्वभाव को ही अध्यात्म कहा जाता है।'' गीता महाभारत का ही भाग है। शांतिपर्व (अध्याय 313) में अध्यात्म की मजेदार चर्चा है। यहां हरेक इंद्रिय को अध्यात्म कहा गया है। इंद्रियों की गतिविधि लक्ष्यहीन नहीं होती। इसलिए इंद्रिय सक्रियता के लक्ष्य को 'अधिभूत' कहा गया है। फिर इसका संबंध देवताओं से भी जोड़ा गया है। जैसे हाथ अध्यात्म है, कर्त्तव्य कर्म अधिभूत हैं और इंद्र इसके देवता हैं।'' इंद्र ऋग्वेद के देवता हैं। हाथ भौतिक अंग है। पालन हाथ का काम है, इंद्र से जोड़ना वैदिक परंपरा है। इंद्र से न जोड़े तो भी फर्क नहीं पड़ता, लेकिन तब भावशक्ति बेकार हो जाती है। कर्त्तव्य बोझ बन जाता है। इसी तरह मन अध्यात्म है। मन्तव्य इसका अधिभूत कार्य है और चंद्रमा देवता है। यहां भी देवतंत्र की वैदिक परंपरा है। चंद्रमा विराट पुरूष का मन है-चंद्रमा मनसो जाता।
भारतीय परंपरा के अध्यात्म में आस्था नहीं, वैज्ञानिक विवेक और प्रकृति की शक्तियों के प्रति ही गाढ़ी प्रीति है। जिह्वा के बारे में कहते हैं जिह्वा अध्यात्म है। रस अधिभूत-लक्ष्य है। जल इसके देवता हैं।'' जल देवता प्रत्यक्ष हैं ही। त्वचा भी अध्यात्म है, स्पर्श अधिभूत है, वायु इसके देवता हैं। जल या वायु को देवता कहना भी वैदिक परंपरा है। सबके रोचक है अहंकार। यहां अहंकार भी अध्यात्म है, अभिमान अधिभूत है और रूद्र इसके देवता। रूद्र भी वैदिक अनुभूति हैं। अहंकार को भी अध्यात्म स्वीकार करने का साहस अनूठा है। अहंकार हमारा अंग है। इसका विकृत होना दुखदाई है और स्वाभाविक होना स्वयं का स्वीकार है। आगे बुद्धि को भी अध्यात्म बताते है, बोधत्व अधिभूत है और आत्मा इसके देवता है। श्री कृष्ण वाली मूल बात यही है-स्वभाव ही अध्यात्म है। मन, अहंकार और बुद्धि आदि आंतरिक व हाथ, स्पर्श आदि वाह्य उपकरणों की समझ ही अध्यात्म है, लेकिन जानकारी पर्याप्त नहीं। जानकारी सूचना है, सूचना ज्ञान होती नहीं। अध्यात्म 'स्वभाव' का बोध है। स्वभाव का बोध कोई दूसरा नहीं करा सकता। हमारी अंतर्यात्रा में विज्ञान कोई सहायता नहीं कर सकता। यह विषय का अध्ययन करता है। अध्यात्म का अर्थ स्वभाव को समझना है। स्व से साक्षात्कार स्वयं द्वारा ही संभव हो सकता है।
अंग्रेजी में अध्यात्म का अनुवाद 'स्प्रिट' किया गया। स्प्रिट में अध्यात्म का बोध नहीं है। स्प्रिट प्राण का निकटवर्ती हो सकता है, समानार्थी तो भी नहीं। स्प्रिट आत्म या आत्मा का भी पड़ोसी नहीं है। भारतीय चिंतन का आत्म अंग्रेजी में 'सेल्फ' से प्रकट होता है और आत्मा सोल से। स्प्रिट से बनी स्प्रिचुएलटी भी अध्यात्मिकता नहीं है। अध्यात्मिकता शुद्ध रूप में स्वयं बोध से निर्मित प्रकृति है। वृहदारण्यक उपनिषद् शतपथ ब्राह्मण का भाग है। इस उपनिषद् (2.3.4) में कहते हैं अब अध्यात्म का विवेचन है। जो प्राण से और शरीर के भीतर आकाश से भिन्न हैं वह मूर्त या मर्त्य के इस सत् के सार है।'' यहां आकाश और प्राण छोड़कर बाकी देह अध्यात्म है। शंकराचार्य ने इसी मंत्र के भाष्य में कहा है, शरीरांभक भूतों का रस अध्यात्म है।'' शरीर केवल देह नहीं। इसके भीतर भी बहुत बड़ा संसार है। शरीर और उसके भीतर का संपूर्ण रस अध्यात्म है। भौतिक और आध्यात्मिक में कोई अंतर्विरोध नहीं। प्राय: आध्यात्मिक और भौतिक को परस्पर विरोधी माना जाता है। सच यह है कि भौतिक का सूक्ष्मतर भाग अध्यात्म है और अध्यात्म का स्थूलतर-स्थूलतम भौतिक है। दोनो एक ही हैं। ऋग्वेद में कहा गया है-एक सद्, विप्रा बहुधा वदंति-एक सत्य को विद्वान अनेक तरह से बताते हैं।

हिन्दी या अंग्रेजी [भाषा बदलने के लिए प्रेस F12]