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बूढ़े श्रीकृष्‍ण पर काशीनाथ की रचना

कोलकाता में काशीनाथ सिंह का महत्वपूर्ण पाठ

डॉ महेंद्र प्रसाद कुशवाहा

Tuesday 1 October 2013 08:12:50 AM

kashinath singh

कोलकाता। अपनी हर रचना में अपने ही रूप का खंडन करने के लिए मशहूर हिंदी के प्रसिद्ध कथाकार काशीनाथ सिंह ने महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के कोलकाता केंद्र में 23 सितंबर 2013 को अपने अप्रकाशित उपन्यास ‘उपसंहार’ के अंतिम अंश का पाठ किया। इस उपन्यास में काशीनाथ सिंह ने अपने उस हर अंदाज और शिल्प को तोड़ा है, जिसके लिए उन्हें जाना जाता है। पहली बात तो यह कि यह पहला मौका था, जब काशीनाथ सिंह ने प्रकाशन से पूर्व अपनी किसी रचना का सार्वजनिक रूप से पाठ किया, दूसरी बात उपन्यास के विषय-वस्तु और कहन शैली में भी काशीनाथ सिंह ने इसमे आमूल-चूल परिवर्तन किया है।
इस आधार पर यदि कहें तो कहा जा सकता है कि कृष्ण के पुनर्जन्म के साथ-साथ एक तरह से एक नए काशीनाथ सिंह का जन्म भी इस रचना के माध्यम से हुआ है। कृष्णचरित पर आधारित यह उपन्यास न केवल हिंदी साहित्य के लिए, अपितु संपूर्ण भारतीय साहित्य के लिए ‘मील का पत्थर’ साबित होना चाहिए, मैं जब ऐसा कह रहा हूं तो सिर्फ इसलिए कि संभवतः कृष्ण के वृद्धावस्था के जीवन पर और महाभारत के युद्ध के बाद उनके द्वारिका लौट गए जीवन पर आधारित यह संभवतः संपूर्ण भारतीय साहित्य का पहला उपन्यास है। कृष्ण के चरित पर अनेक रचनाएं साहित्य में मिलती हैं, किंतु सभी रचनाओं में हमें लीलाधारी कृष्ण, नटखट कृष्ण, कंस के संहारक कृष्ण, महाभारत के कृष्ण आदि रूपों का वर्णन मिलता है। महाभारत के बाद द्वारिका लौट गए कृष्ण के जीवन को किसी रचनाकार ने अपनी रचना का आधार नहीं बनाया है।
यह महत्वपूर्ण कार्य काशीनाथ सिंह ने इस उपन्यास के माध्यम से किया है। स्वयं काशीनाथ सिंह कहते हैं-“इसमें महाभारत के युद्ध के उपरांत द्वारिका लौटे उस कृष्ण के जीवन को मैंने आधार बनाया है, जो अब द्वारिकाधीश नहीं रह गए हैं, एक सामान्य मनुष्य का जीवन व्यतीत कर रहे हैं और तो और स्वयं यदुवंश के कुल का अंत भी करते हैं।” जाहिर सी बात है कि कृष्ण का यह जीवन अत्यंत संघर्षपूर्ण रहा होगा। सत्ता के आदी हो गए व्यक्ति से यदि सत्ता छीन ली जाती है या किसी कारणवश उसकी सत्ता और शक्ति नहीं रहती है, तो उसका जीवन अत्यंत पीड़ादायी होता है। कुछ ऐसा ही कृष्ण के उत्तरकालीन जीवन में रहा है, जिसे अपनी रचना का आधार बनाया है काशीनाथ सिंह ने।
वे मानते हैं-“श्रीकृष्ण संभवतः पहले राजा हैं, जो उस युग में राजतंत्र के खिलाफ और जननायक थे, वे एक कुशल रणनीतिज्ञ या रणनीतिकार थे, अपने उत्तरकालीन जीवन में उनके साथ सबसे बड़ा दुःख यह रहा है कि उन्हें स्वयं के खिलाफ अर्थात अपनी सेना के खिलाफ ही युद्ध लड़ना पड़ा है, जिसमे एक तरफ वे स्वयं हैं और एक तरफ उनकी सेना। संभवतः यह हमारे इतिहास की पहली घटना रही होगी, जिसमें सेनापति एक तरफ हो और सेना दूसरी तरफ। सेनापति के विपक्ष में उसकी ही सेना खड़ी हो। कृष्ण की इसी ऐतिहासिक भूल के चलते कृष्ण द्वारा पालित और विकसित द्वारका का विनाश तो हुआ ही इसके साथ-साथ कृष्ण के हाथों ही यादव कुल का नाश भी हुआ। बालक कृष्ण से लेकर महाभारत के कृष्ण तक वे ईश्वर के रूप में रहे हैं। अपने उत्तरकालीन जीवन में वे ईश्वर नहीं रह जाते, एक सामान्य मनुष्य के रूप में अपना जीवन व्यतीत करते हैं, जिसके अपने दुःख हैं, अपनी खुशियां हैं, अपने लोगों से शिकायत है।” निश्चय ही यह उपन्यास पौराणिक होते हुए भी अपौराणिक है। कृष्ण पौराणिक नायक रहे हैं, किंतु इस उपन्यास के कृष्ण पौराणिक होते हुए भी प्रतीक हैं-एक समृद्धशाली राजा के, एक ऐसा राजा जिसका साम्राज्य समाप्त हो गया है और वह एक सामान्य मनुष्य की तरह अपनी गुजर-बसर कर रहा है।
भारतीय कथा साहित्य में एक नयी शुरुआत करने के लिए आदरणीय गुरुवर और कथाकार काशीनाथ सिंह को हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं ! रचना अभी प्रकाशित नहीं हुई है, शीघ्र ही प्रकाशित हो जाएगी ऐसी आशा है। यह धारणा सिर्फ काशीनाथ सिंह के पाठ किए गए उपन्यास के अंतिम अंश को सुनने के बाद बनी है, इसमें बात करने के लिए ढेरों मुद्दे होंगे, लेकिन इसके लिए अभी उपन्यास के प्रकाशित होने का इंतज़ार करना होगा।

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