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‘टाइम’ में डॉ मनमोहन सिंह का मूल्यांकन

विष्णु गुप्त

डॉ मनमोहन सिंह-dr. manmohan singh

नई दिल्ली। अमेरिकी ‘टाइम’ मैग्जीन ने कोई नयी बात नहीं की है और न ही उसका मूल्यांकन कोई चौंकाने वाला है। देश की जनता और मीडिया पिछले दो साल से यह स्वीकार कर चुका है कि मनमोहन सिंह की साख और विश्वसनीयता समाप्त हो चुकी है। आश्चर्य तो इस बात का है कि ‘टाइम मैग्जीन’ ने मनमोहन सिंह की साख़ और भारतीय अर्थव्यवस्था के मूल्यांकन में इतनी देर क्यों की और वह मैग्जीन अब तक किस चमत्कार की आशा लगाये बैठी थी? ‘टाइम’ मैग्जीन ने अपनी एक खास रिपोर्ट में मनमोहन सिंह को अंडरअचीवर कहा है। अंडरअचीवर का अर्थ होता है, कम सफल। महत्वपूर्ण तो यह है कि मनमोहन सिंह कम सफल ही नहीं, बल्कि वे विफल भी हैं और विश्वसनीयहीन भी हैं। कभी इसी ‘टाइम’ मैग्जीन के मनमोहन सिंह हीरो हुआ करते थे और मैग्जीन मनमोहन सिंह के गुणगान में अपनी सारी शक्ति लगा देती थी।
टाइम मैग्जीन ही नहीं, मनमोहन सिंह के सभी अभिभावक और प्रेरणास्रोत एकाएक उनका साथ छोड़ना शुरू कर दिए हैं। विश्व बैंक, अमेरिकी-यूरोपीय बहुराष्ट्रीय कंपनियों सहित सभी अंतर्राष्ट्रीय नियामकों के लिए मनमोहन सिंह कूड़े का ढेर बन गए हैं। वैश्विक आर्थिक मूल्यांकन एजेंसियों ने भारत की अर्थव्यवस्था और मनमोहन सिंह की साख को पहले ही घटा चुकी हैं। टाइम मैग्जीन के इस निष्कर्ष को स्वीकार करने के बजाय मनमोहन सिंह और कांग्रेस के मैनेजरों ने निष्कर्ष खारिज कर दिया है और इसे एक साजिश करार दिया है। विफल और अराजक सत्ता सच को कभी भी स्वीकार करने के लिए तैयार ही नहीं होती है। इस कसौटी पर मनमोहन सिंह सत्ता और कांग्रेस अपनी विफलताओं, नाकामयाबियों को स्वीकार करेगी तो क्यों और कैसे? झूठ, फेरब और भ्रष्टाचार के सहारे मनमोहन सिंह की सत्ता चल रही है। मनमोहन सिंह मंत्रिमंडल का कौन सा मंत्री अपवाद है, जिस पर आरोप नहीं हैं। कोयला आंबटन में खुद मनमोहन सिंह पर नियमों का उल्लंघन और निजी कंपनियों के हाथों की कठपुतली होने के आरोप हैं। कोई भ्रष्ट सत्ता अपने लिए विश्वसनीयता हासिल कर सकती है क्या? कभी नहीं। मनमोहन सिंह के लिए फिर से विश्सनीयता हासिल करना टेड़ी खीर है।
महंगाई, भ्रष्टाचार, विकास दर, औद्योगिक उत्पादन और अंतर्राष्ट्रीय नीति जैसे मोर्चे को टाइम मैग्जीन ने मनमोहन सिंह की सरकार के मूल्यांकन के लिए चुना। यूपीए वन और यूपीए टू की सरकार महंगाई के मोर्चे पर पूरी तरह विफल रही हैं। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और उनके वित्त व कृषि मंत्रियों ने न जाने कितनी बार महंगाई घटने और महंगाई घटाने के वायदे किए, बयान दिए, पर महंगाई रुकी नहीं। महंगाई बढ़ने के वैश्विक कारण बता कर जनविश्वास को भरमाने की कोशिश की गई। वैश्विक स्तर पर महंगाई बढ़ी है, इससे इनकार नहीं किया जा सकता है, पर देश के अंदर जो महंगाई है, वह सरकार प्रायोजित है। सरकार की कम से कम तीन ऐसी नीतियां हैं, जिनके कारण महंगाई चरम पर पहुंची है। पहली नीति पेट्रोल पदार्थों में बेतहाशा वृद्धि, दूसरी आउटलेट कंपनियों को जमाखोरी का लाइसेंस देने की नीति और तीसरी कृषि क्षेत्र पर उदासीनता पसारने की नीति। पेट्रोल पदार्थों की कीमत बढ़ेगी तो सभी प्रकार की वस्तुओं की कीमत बढ़नी स्वाभाविक है। कृषि क्षेत्र को विशेष सुविधा दिए बिना न तो मूल्य नियंत्रण संभव है और न ही देश की विकास की मीनारें खड़ी की जा सकती हैं। उद्योग और उद्योगपतियों के लिए सरकारी सुविधाओं की कोई कमी नहीं है पर किसानों के लिए कौन सी उपयोगी और लाभकारी योजना है? अरबों-अरबों रुपए के कर्जदार उद्योगपति खुलेआम प्रधानमंत्री और वित्तमंत्री के साथ देश का भाग्य निर्धारण करने के भागीदार होते हैं पर हजार-दो हजार के कर्जदार किसान सीधे जेल पहुंच दिए जाते हैं। उन पर से पुलिस और प्रशासन के लात-जूते भी पड़ते हैं। यही है मनमोहन सरकार की किसान, आम आदमी की नीति।
विकास की गति बढ़ाने की जो मनमोहन सरकार की नीति है, वह सीधेतौर पर आम-आदमी का गला घोटने वाली है। विकास की गति जमींदोज़ क्यों हुई है? रुपए का अवमूल्यन क्यों हो रहा है? डॉलर के मुकाबले रुपया क्यों पिछड़ रहा है? इस पर गंभीर विचार करने की जरूरत ही नहीं समझी गयी? माना कि यदि कोई विचार हुआ भी, तो वह किस काम आया? किनके काम आया? अमेरिका की अर्थव्यवस्था के विध्वंस के बाद ही भारत में भी अर्थव्यवस्था के बुरे दिन शुरू होने की आशंका व्यक्त की गयी थी और सुधार व स्थायित्व के नए उपाय करने के सुझाव दिए गए थे। मनमोहन सिंह सरकार ने सीधे तौर पर उस आशंका को नकार दिया था। अमेरिकी अर्थव्यवस्था के विध्वंस के साथ ही, अगर सुधार के कदम उठा लिए जाते और जनउपयोगी व कल्याणकारी परियोजनाओं को गति देने के प्रयास किए गए होते, तो मौजूदा स्थिति से बाहर निकलना मुश्किल था ही नहीं। विकास की गति को तेज करने के लिए एफडीआई जैसी नीति अपनायी गईं। एफडीआई की समर्थक कंपनियों के जनविरोधी और लूट वाली नीतियों के कारण ही अमेरिकी और यूरोपीय अर्थव्यवस्था विध्वंस को प्राप्त हुई है। अमेरिका और यूरोप में एक्यूपाई आंदोलन लूटवाली कंपनियों के खिलाफ है, जो जनता के विकास के सारे रास्तों पर कब्जा कर मुनाफाखोरी कर रही हैं। भारत में कृषि और खुदरा बाजार में एफडीआई को अनुमति मिली तो बहुत बड़ा अनर्थ हो जाएगा। कृषि और खुदरा मार्केट में एफडीआई से एक-दो लाख लोगों को रोज़गार तो मिलेगा पर करोड़ों लोग भी बेरोजगार हो जाएंगे। करोड़ों लोगों को बेरोजगार कर एक-दो लाख लोगों को रोज़गार देने की यह कौन सी सफल नीति कही जा सकती है? ममता बनर्जी अगर राजनीतिक साहस नहीं दिखाती तो मनमोहन सिंह का एफडीआई विधेयक संसद में पास जरूर हो गया होता।
विकास, उन्नति सुशासन के लिए स्वच्छ, ईमानदार और तटस्थ चेहरा व सत्ता का होना जरूरी है। क्या मनमोहन सिंह का चेहरा और उनकी सरकार स्वच्छ है, तटस्थ है, ईमानदार है, भ्रष्टाचार मुक्त है? मनमोहन सिंह की सरकार न तो स्वच्छ है, न तो ईमानदार है और न ही भ्रष्टाचार मुक्त है। आम जनता के विकास के लिए निर्धारित अरबों-खरबों की राशि मनमोहन सरकार के मंत्री और अफसर लूटते रहे और मनमोहन सिंह चुपचाप तमाशा देखते रहे। यह कौन सी ऊंच व प्रेरणादायी कसौटी है? कलमाड़ी, ए राजा ने भ्रष्टाचार के जैसे खेल-खेले, वैसे उदाहरण शायद ही किसी अन्य लोकतांत्रिक देश में देखने को मिल सकता है, फिर मनमोहन सिंह और उनकी सरकार कलमाड़ी के पक्ष में खड़ी रही और ए राजा के पक्ष में भी खड़ी रही। टीम अन्ना ने भ्रष्टाचार की जो पोल खोली है, उसमें मनमोहन सिंह के मंत्रिमंडल का एक भी ऐसा मंत्री नहीं है, जिस पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप नहीं हैं। मनमोहन सिह के मंत्रिमंडल के कई मंत्री किसी न किसी गंभीर घोटाले के आरोपी और अभियुक्त हैं, जिन पर मुकदमा चलाने के लिए साक्ष्य उपलब्ध हैं। मनमोहन सिंह खुद कोयला क्षेत्र आंवटन में नियमों को ताक पर रखकर पूंजीपतियों को लाभ पहुंचाने के आरोप से घिरे हुए हैं। मनमोहन सिंह ने कौड़ी के भाव उद्योगपतियों और अन्य पूंजीपतियों को कोयला क्षेत्र का आवंटन किया है। ये सब प्रमाणित तथ्य हैं।
देश की अर्थव्यवस्था की सुनहरी तस्वीर, सुनहरा दौर अब शायद ही लौंटे? मनमोहन सिंह के आर्थिक सुधारों से देश में ग़रीबी ही बढ़ेगी और बेरोज़गारों की फौज खड़ी होगी। मनमोहन सिंह सत्ता के भ्रष्टाचार और नाकामियाबियों के कारण देश में जनाक्रोश बढ़ रहा है। विगत में जितने भी चुनाव हुए हैं, साफ झलकता है कि कांग्रेस के खिलाफ लोगों में गुस्सा है। कांग्रेस को मिल रही हार के पीछे मनमोहन सरकार की जनविरोधी नीतियां और भ्रष्टाचार है। सोनिया गांधी-राहुल गांधी का करिश्मा भी फीका पड़ गया है। देश की जनता का विश्वास मनमोहन सिंह पहले ही खो चुके हैं और अब अपने पैरवीकार और अपने अभिभावकों जैसे विश्व बैंक, टाइम मैग्जीन, अन्य वैश्विक नियामकों का भी विश्वास उनसे दूर चला गया है, फिर से विश्वास वापस लाना और ईमानदारी स्थापित करना, अब मनमोहन सिंह के लिए दूर की ही कौड़ी है। साख और ईमानदारी वापस लाने के लिए मनमोहन सिंह को अपने मंत्रिमंडल के और भी मंत्रियों को जेल भिजवाना होगा, क्या वह ऐसा कर सकते हैं?

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