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बाबू जगजीवन राम! अभी भी कोई नहीं है!!

दलित क्रांति के असली सूत्रधार वस्तुतः बाबू जगजीवन राम

बाबूजी की पुण्यतिथि 6 जुलाई पर विश्लेषणात्मक श्रद्धांजलि

श्रीराम शिवमूर्ति यादव

श्रीराम शिवमूर्ति यादव

बाबू जगजीवन राम-babu jagjivan ram

तुल न सके धरती धन धाम,
धन्य तुम्हारा पावन नाम,
लेकर तुम सा लक्ष्य ललाम,
सफल काम जगजीवन राम।

राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त की देश के विख्यात राजनेता जगजीवन राम के बारे में कही गयी ये पंक्तियां उनके व्यक्तित्व का प्रतिबिंब हैं। भारतीय राजनीति के कई शीर्ष पदों पर आसीन रहे जगजीवन राम न सिर्फ एक स्वतंत्रता सेनानी, कुशल राजनीतिज्ञ, सक्षम मंत्री एवं योग्य प्रशासक रहे वरन् एक कुशल संगठनकर्ता, सामाजिक विचारक व ओजस्वी वक्ता भी थे। हिंदी, अंग्रेजी, उर्दू, बंग्ला व भोजपुरी में उनकी धाराप्रवाह ओजमयी वाणी और विचारों को सुनने के लिए लोग उमड़ पड़ते और अपनी वाकपटुता से वे संसद में भी लोगों को निरुत्तर कर देते। डॉ अंबेडकर ने जगजीवन राम के बारे में कहा था-‘बाबू जगजीवन राम भारत के चोटी के विचारक, भविष्यदृष्टा और ऋषि राजनेता हैं जो सबके कल्याण की सोचते हैं।’ जगजीवन राम ने आरंभ से ही समाज के पद्दलित लोगों के अधिकार और सम्मान के लिए अथक संघर्ष किया।
बाबू जगजीवन राम ने मंत्रिमंडल में रहने के दौरान पदोन्नति में आरक्षण आरंभ करवाया तो अनुसूचित जातियों के लिए देश के सभी प्रमुख मंदिरों के बंद द्वार भी उन्हीं के प्रयासों से खुल गये। सन् 1955 में छुआछूत मिटाने के लिए भी उन्होंने कानून बनवाया। सिर्फ दलितों के हित में ही नहीं वरन् राष्ट्रीय हित में भी जगजीवन राम के नाम तमाम उपलब्धियां हैं। चाहे वह वर्ष 1953 में निजी विमान सेवाओं का राष्ट्रीयकरण कर इंडियन एयर लाइंस व एयर इंडिया की स्थापना कर भारत में राष्ट्रीयकरण की आधारशिला रखना हो, चाहे कृषि मंत्री के रूप में हरित क्रांति का आगाज़ करके भारत को पहली बार खाद्यान्न के क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनाना व अनाज का निर्यात आरंभ करवाना हो अथवा रक्षामंत्री के रूप में 1971 के भारत-पाक युद्ध के दौरान एक लाख पाकिस्तानी सैनिकों से आत्मसमर्पण करवाकर व बांग्लादेश की स्थापना कर भूगोल बदल देने का फैसला हो। अपनी ऐसी ही कुशल राजनैतिक और असाधारण प्रशासनिक क्षमता की बदौलत जगजीवन राम 31 वर्षों तक केंद्र में कैबिनेट मंत्री व बाद में उपप्रधानमंत्री के पद पर आसीन रहे।
बिहार के शाहाबाद जिला के (वर्तमान में भोजपुर जिला) चंदवा ग्राम में 5 अप्रैल 1908 को एक सामान्य परिवार में शोभी राम व वसंती देवी के पुत्र रूप में जगजीवन राम का जन्म हुआ था। छह वर्ष की आयु में ही उनके ऊपर से पिता का साया उठ गया। प्रारंभिक शिक्षा गांव की पाठशाला में हुई, तत्पश्चात आरा के अग्रवाल मिडिल महाजनी स्कूल से शिक्षा पूरी की और 1922 में उन्होंने आरा टाउन स्कूल में प्रवेश लिया। यहां जगजीवन राम को उस समय अस्पृश्यता की दर्दनाक वेदना झेलनी पड़ी, जब उस स्कूल में अछूत जातियों के लिए उन्होंने अलग घड़े से पानी पीने की व्यवस्था देखी। आक्रोशित होकर उन्होंने एक बार नहीं बल्कि तीन बार वह घड़ा फोड़ा। अंततः स्कूल के प्रधानाचार्य ने यह व्यवस्था दी कि जगजीवन भी उसी घड़े से पानी पिएंगे और जिसे एतराज हो, वह अपनी पृथक व्यवस्था स्वयं करे। एक मेधावी छात्र के रूप में जगजीवन प्रत्येक कक्षा में छात्रवृत्ति लेकर पढ़े और वैज्ञानिक बनने का सपना संजोये रहे, परंतु तत्कालीन परिस्थितियों में उन्हें देश की आजादी ज्यादा जरूरी लगी और वे भी स्वतंत्रता आंदोलन में कूद पड़े।
मदनमोहन मालवीय सन् 1925 में जब सांप्रदायिक सौहार्द का संदेश लेकर आरा आये थे, तो जगजीवन राम ने उनके सम्मान में अभिनंदन-पत्र पढ़ा। उनकी प्रतिभा से प्रभावित होकर मदन मोहन मालवीय ने जगजीवन राम को बनारस ‌हिंदू विश्वविद्यालय में आकर उच्च अध्ययन का आमंत्रण दिया। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में अध्ययन के दौरान जहां जगजीवन राम जाति-पांत व छुआछूत के कटु अनुभवों से रू-ब-रू हुए, वहीं उन्हें संत रविदास और संत कबीर जैसे महान विचारकों व समाज सुधारकों की कर्मभूमि से समझ और संघर्ष की प्रेरणा मिली। उस समय बंगाल स्वतंत्रता आंदोलन संबंधी गतिविधियों का गढ़ था, सो जनवरी 1929 में कलकत्ता के बिलिंगटन स्कवेयर में जगजीवन राम ने मजदूरों और दलितों की सभा का आयोजन किया, जिसमें कलकत्ता व बिहार के अलावा देश के अन्य हिस्सों से भी लोग भारी संख्या में पहुंचे। इस सभा में उन्होंने अपनी पहचान सुधारवादी नेता के रूप में बनायी।
सुभाषचंद्र बोस ने उस समय कहा था-‘जगजीवन राम ने जिस ढंग से श्रमिक व हरिजन सुधार आंदोलन का संगठन किया है, वह सभी के लिए अनुकरणीय है। कलकत्ता की श्रमिक व हरिजन बस्तियों में जगजीवन राम ने जनजीवन को नई आशा दी और उनमें नई चेतना का संचार हुआ। देश के युवा जन जगजीवन राम के विचारों से अपने समाज और देश का भला कर सकते हैं।’ लोगों के समर्थन से उत्साहित होकर जगजीवन राम ने अगस्त 1929 में ‘अखिल भारतीय रविदास महासभा’ की स्थापना की, जिसका उद्देश्य दलितों को एकजुट करना, उनमें शिक्षा का प्रसार करना और नशाबंदी का प्रसार करना था। इस बीच डॉ राजेंद्र प्रसाद ने जगजीवन राम का महात्मा गांधी से परिचय करवाया। जगजीवन राम गांधीजी से काफी प्रभावित हुए तथा उनसे अनुप्रेरित होकर कांग्रेस से जुड़ गये। जगजीवन राम की अद्भुत कार्यक्षमता को देखकर गांधीजी ने उन्हें ‘हरिजन सेवक संघ’ बिहार का सचिव बना दिया।
डॉ भीमराव अंबेडकर का इस बीच भारतीय राजनीति में दलितों के नेता रूप में तेजी से आविर्भाव हो रहा था। डॉ अंबेडकर राजनैतिक स्वतंत्रता से पूर्व समाज के पद्दलित वर्ग की सामाजिक व आर्थिक स्वतंत्रता की पक्षधरता के समर्थक थे। तमाम मुद्दों पर उनका महात्मा गांधी से वैचारिक मतभेद भी था। ऐसे में 1930 के दशक में गांधीजी व अन्य कांग्रेसी नेता जगजीवन राम को डॉ अंबेडकर के कांग्रेसी जवाब’ के रूप में सामने लाये। जगजीवन राम चूँकि दलित वर्ग के थे और जिस प्रकार की सामाजिक अस्पृश्यता उन्होंने झेली थी, उससे बखूबी परिचित थे। वे देश को स्वतंत्रता दिलाने के साथ-साथ समाज के दलित वर्ग, मजदूर वर्ग व खेतिहरों को जागरुक करने में भी प्रभावी भूमिका निभाते रहे। दलितों को राजनैतिक अधिकार दिलाने और उनके उन्नयन हेतु उन्होंने ‘अखिल भारतीय दलित वर्ग संघ’ की स्थापना की, तो खेतिहर मजदूरों को उचित मजदूरी दिलाने, उनके बच्चों को प्राथमिक शिक्षा उपलब्ध कराने व उनकी सामाजिक-आर्थिक दशा सुधारने हेतु ‘खेतिहर मजदूर सभा’ की स्थापना की।
बाबू जगजीवन राम अपनी वैचारिक प्रखरता और ओजस्वी वाणी के चलते तेजी से भारतीय राजनैतिक क्षितिज में अपना स्थान बना रहे थे। सन् 1935 के एक्ट के तहत हुये चुनावों में 28 वर्ष की आयु में वे बिहार विधानसभा में ‘दलित वर्ग संघ’ के टिकट पर निर्विरोध निर्वाचित हुए और 14 अन्य दलितों को भी निर्विरोध जिताया। उस समय मोहम्मद यूनुस ने उन्हें मंत्रिमंडल में शमिल होने के लिए समर्थन के एवज में तमाम सुविधाओं का लालच दिया पर जगजीवन राम अपने उसूलों पर डटे रहे और मोहम्मद यूनुस का मंत्रिमंडल नहीं बन पाया। डॉ राजेंद्र प्रसाद से महात्मा गांधी को जब इसकी सूचना मिली तो जगजीवन राम की अपने सिद्धांतों के प्रति अडिग निष्ठा देखकर उन्होंने उन्हें ‘अग्नि में तपा खरा सोना’ बताया। अगस्त 1936 में जगजीवन राम बिहार विधानसभा के संसदीय सचिव नियुक्त हुए और यहां भी अपने वरिष्ठ सहयोगी जगनलाल चौधरी के पक्ष में मंत्री पद ठुकरा दिया। वे जहां भी रहे, अपने सिद्धांतों पर अडिग रहे। राष्ट्रीय स्तर पर दलित वर्ग के एकमात्र स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे वे, जो लंबे अरसे तक जेल में रहे।
बाबू जगजीवन राम की राजनैतिक योग्यता और कुशल प्रशासनिक दक्षता का ही परिणाम था कि 1946 में गठित की अंतरिम सरकार के 12 मंत्रियों में वे सबसे कम उम्र (38 वर्ष) के मंत्री (श्रममंत्री) व दलित वर्ग के एकमात्र प्रतिनिधि थे, फिर तो ऐसा कोई मंत्रिमंडल नहीं बना, जिसमें वह शामिल न हुए हों। सन् 1946 से 1984 तक लोकसभा के सभी चुनाव, उन्होंने लगातार एक ही क्षेत्र सासाराम से लड़े एवं 1946 व 1957 का चुनाव निर्विरोध जीते, मगर जगजीवन राम भी विवादों से भी अछूते नहीं रहे। उनके बारे में कहा जाता था कि वह एक ऐसा बम का गोला हैं, जो समय आने पर ही फूटता है। सन् 1969 में जब कांग्रेस अध्यक्ष निजलिंगप्पा ने नीलम संजीवा रेड्डी को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार घोषित किया तो प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को यह स्वीकार्य नहीं हुआ और उन्होंने उप राष्ट्रपति वीवी गिरि को अपना उम्मीदवार घोषित कर दिया। नतीजन, राष्ट्रपति के उम्मीदवार के मुद्दे पर कांग्रेस दो भागों में बंट गई। उस समय जगजीवन राम इंदिरा गांधी के साथ खड़े रहे। जगजीवन राम ने ही राष्ट्रपति पद के चुनाव में ‘अंतरात्मा की आवाज़’ के अनुसार वोट देने का आह्वान किया। नतीजन वीवी गिरि राष्ट्रपति पद हेतु निर्वाचित घोषित हुए।
कांग्रेस विभाजित होने के बाद जगजीवन राम को कांग्रेस (इंदिरा) का अध्यक्ष बनाया गया और उनके नेतृत्व में 1971 के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस को 352 सीटें प्राप्त हुईं, पर शायद यहीं से जगजीवन राम और इंदिरा गांधी के बीच तनाव भी बढ़ने लगा। नतीजन चुनाव बाद गठित सरकार में जगजीवन राम मंत्री पद से तो नवाजे गये, पर कांग्रेस अध्यक्ष पद से हटा दिये गए। इस बीच उत्पन्न परिस्थितियों से बौखलाकर इंदिरा गांधी ने जून 1975 में आपातकाल की घोषणा कर दी। जगजीवन राम के लिए यह दौर राजनीतिक अनिश्चितता का था। इंदिरा गाँधी ने 18 जनवरी 1977 को लोकसभा के विघटन की घोषणा कर दी और इसी के साथ 2 फरवरी 1977 को जगजीवन राम ने मंत्रिमंडल व कांग्रेस की प्राथमिक सदस्यता से इस्तीफा देकर ‘कांग्रेस फार डेमोक्रेसी’ पार्टी के गठन की घोषणा कर दी। जगजीवन राम ने अगला लोकसभा चुनाव जनता पार्टी के साथ मिलकर लड़ा और पूर्ण बहुमत पाकर सरकार बनाने में सफल भी हुए।
बाबू जगजीवन राम उस समय प्रधानमंत्री पद के प्रबल दावेदार थे, पर चौधरी चरण सिंह और आचार्य जेबी कृपलानी के मोरारजी देसाई का पक्ष लेने के कारण वे प्रधानमंत्री पद से वंचित हो गए, यद्यपि बाद में चौधरी चरण सिंह के प्रधानमंत्री बनने पर जगजीवन राम उप प्रधानमंत्री बने। जनता पार्टी सरकार के ढाई वर्ष के कार्यकाल में आपसी कलह पहले दिन से ही शुरू हो गई थी। कुछ लोगों का तब यह भी मानना था कि जगजीवन राम को प्रधानमंत्री बनाने से इस कलह को रोका जा सकता है, क्योंकि उनमें एक अनुभवी राजनीतिज्ञ और कुशल प्रशासक के गुण थे तथा उनमें दूरदर्शिता थी, बाद में चौधरी चरण सिंह के प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा देने पर उनके लिए एक बार फिर ऐसा मौका आया जब कि राष्ट्रपति नीलम संजीवा रेड्डी उन्हें सरकार बनाने का निमंत्रण दे सकते थे, पर तमाम संविधान विशेषज्ञों की राय के बावजूद उन्होंने ऐसा नहीं किया। वस्तुतः जगजीवन राम राष्ट्रीय संघर्ष की उपज थे। बचपन से ही उन्हें अस्पृश्यता की मार्मिक पीड़ा के दौर से गुजरना पड़ा था।
बाबू जगजीवन राम 1978 में केंद्रीय मंत्री के रूपमें जब बनारस में सम्पूर्णानंद की प्रतिमा का अनावरण करने गए तो सम्पूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय के सवर्ण छात्रों ने ‘जग्गू चमरा हाय-हाय, बूट पालिश कौन करेगा’ जैसे भद्दे जातिगत नारों से उनका स्वागत किया और इतना ही नहीं, उनके जाने के बाद उस मूर्ति को वेद मंत्रों के उच्चारण के साथ गंगा जल से धोया गया, क्योंकि सवर्ण छात्रों के मतानुसार में एक दलित के स्पर्श से मूर्ति अपवित्र हो गयी थी। दरअसल ये ही वो लोग थे और सर्वत्र आज भी हैं, जिनके कारण सवर्ण कहा जाने वाला समाज न केवल दूसरी दलित जातियों और उनकी नई पीढ़ी में नफरत से देखा जाता है, अपितु वह निरंतर सामाजिक वैमनस्यता के लिए भी जिम्मेदार है, पर जगजीवन राम ने कभी हार नहीं मानी और अपनी प्रतिभा की बदौलत अपने कार्यक्षेत्र में छाए रहे। वह दलितों, पिछड़ों, खेतिहर मजदूरों का दर्द भली-भांति समझते थे और बहुमुखी प्रतिभा के धनी होकर भी अपने वैज्ञानिक बनने का सपना उन्होंने दरकिनार कर शोषित वर्ग के राजनैतिक, सामाजिक व आर्थिक उत्थान के लिए पूरा जीवन अर्पित कर दिया।
बाबू जगजीवन राम के लिए दलितों-वंचितों का प्रश्न साए की तरह उनकी स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व से जुड़ा हुआ था। वे बार-बार इस मुद्दे को प्रखरता से उठाते रहे कि यदि संविधान में राजनैतिक रूप से मताधिकार हेतु रानी और मेहतरानी (भंगी) को बराबर अधिकार दिए गए हैं, तो सामाजिक-आर्थिक धरातल पर दोनों के बीच भेदभाव क्यों हो ? ऐसे में सामाजिक-आर्थिक विषमता और स्वस्थ लोकतंत्र की अवधारणा परस्पर विरोधाभासी हैं। वे एक ऐसे आदर्श व्यक्तित्व व कृतित्व थे, जिन्होंने समाज के सभी वर्ग के लोगों के हृदय में सम्मान प्राप्त किया। जाति-प्रथा को वे एक सामाजिक बुराई मानते थे। उनका मानना था कि न तो यह प्राकृतिक है और न ही ईश्वर ने इसकी रचना की है, वरन् समाज के कुछ वर्गों ने अपनी स्वार्थसिद्धि की पूर्ति हेतु जातियों व उपजातियों का निर्माण कर इनके बीच खान-पान और विवाह संबंधी तमाम बंदिशें लगा दीं। वे स्पष्ट कहा करते थे कि-‘मुझे तो यहां पर कोई भी हिंदू नहीं दिखाई देता, यहां तो सिर्फ जातियां हैं और वे भी छोटी-छोटी उपजातियों में बंटी हुई हैं। हिंदू तो जातियों का समूह है, जो एक-दूसरे को न केवल ऊंचा-नीचा मानता है, बल्कि उनमें गहरी खाई और अविश्वास भी है।’ उनका यह कथन आज भी उतना ही प्रासंगिक है कि देश में लोकतंत्र के स्थान पर जातितंत्र स्थापित हो गया है।
सरकार की अपेक्षा समाज को महत्व देने के पक्षधर थे बाबू जगजीवन राम। वे एक ऐसी सामाजिक क्रांति चाहते थे, जिसके बाद जातिवाद अस्पृश्यता, गरीबी व आदमी-आदमी में भेद न रहे। उनका मानना था कि राष्ट्र का निर्माण समाज से होता है और समाज की सोच के अनुरूप ही सरकार बनती है, अतः यदि वाकई समाजवाद और लोकतंत्र को सफल होते देखना है, तो इसके लिए समाज को ही पहल करनी होगी, तभी विकास की किरण गरीबों और शोषितों के द्वार तक पहुंचेगी। यद्यपि जगजीवन राम 6 जुलाई 1986 को इस लोक से विदा हो गए, पर उनके विचार आज भी जीवित और प्रासंगिक हैं। दलितों की सत्ता में भागीदारी से उन्होंने तमाम नए आयाम स्‍थापित किए। उन्होंने अपने कुशल नेतृत्व में एक राजनेता और शासनकर्ता के रूप में यह सिद्ध किया था कि वर्णवादी व्यवस्था में निचले पायदान पर खड़ा दलित, अवसर प्राप्त होने पर नेतृत्व का प्रथम पायदान भी संभाल सकता है।
भारत में दलित क्रांति के महानायक और उसके असली सूत्रधार तो वस्तुतः बाबू जगजीवन राम ही हैं, जिन्होंने विषम स्थितियों में दलित समाज के वास्‍‌तविक उत्‍थान के लिए धरातल पर कार्य किया और सवर्ण समाज से अपना लोहा भी मनवाया, यह अलग बात है कि आज जिसे नई दलित क्रांति कहा जा रहा है, वह वास्तविक दलित क्रांति का उपहास है, नकारात्मक और घृणात्मक व्याख्या है। आज दलित समाज के प्रति, बाकी सर्वसमाज की नई पीढ़ी में, जिनके कारण जो धारणा बन गई है और बनती जा रही है, वो जगजाहिर है। खेद है कि देश के एक सौ इक्कीस करोड़ में एक प्रमुख राजनीतिक एवं सामाजिक ताकत के रूप में शामिल दलित समाज में बाबू जगजीवन राम अभी भी कोई नहीं है। (इस विशेष विश्लेषण के प्रस्तुतकर्ता श्रीराम शिवमूर्ति यादव सामाजिक, साहित्यिक विषयों के प्रतिष्ठित लेखक, विश्लेषक एवं चिंतक हैं। विभिन्न विषयों पर शताधिक पत्र-पत्रिकाओं में इनके लेख प्रकाशित हुए हैं। इनकी सामाजिक कार्यों में रचनात्मक भागीदारियां हैं और इन्हें अनेक प्रतिष्ठाजनक सम्मान एवं पुरस्कार प्राप्त हैं)।

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