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पर्यावरण की राजनीति में नरम पड़ा भारत का स्वर

ओम थानवी

ओम थानवी

रियो +20-rio +20

रियो द जनेरो, 22 जून। क्या विकासशील देशों में भारत का वजन घट रहा है? टिकाऊ विकास पर राष्ट्रसंघ की ओर से आयोजित तीन दिनों के रियो सम्मेलन में उस हर शख्स को इस बात का तल्ख़ अहसास होगा, जिसने बीस साल पहले ब्राजील के इसी शहर में हुए पृथ्वी सम्मलेन में भारत की आवाज़ को विकासशील देशों की आवाज़ बनकर गूंजते देखा। देखते-देखते भारत एक तरह से इन देशों का प्रवक्ता-सा बन गया था। पर्यावरण को लेकर बनने वाली नई नीतियों में इस बात की बड़ी परवाह की जाने लगी कि भारत की उन पर क्या प्रतिक्रिया होगी।
कोपेनहेगन और कानकुन के सम्मेलनों तक भारत के दखल ने उस दबदबे को बनाए रखा। लेकिन, पिछले डरबन सम्मलेन और अब इस रियो+20 सम्मेलन में भारत उस तरह मुखर नहीं नज़र आया है। तेजी से विकसित हो रहे चार देशों के ‘बेसिक’ समूह में अब ब्राजील और चीन के प्रतिनिधि ज्यादा सक्रिय नजर आते हैं, हमारी स्थिति लगता है, बस चौथे देश दक्षिण अफ्रीका से बेहतर रह गई है! विचित्र बात यह है कि ख़तरनाक ग्रीनहाउस गैसों का प्रसार दुनिया में सबसे ज्यादा चीन ही कर रहा है।
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह मेक्सिको में जी-20 की बैठक के बाद कल ही रियो पहुंच गए, पता चला है कि वे आज शाम बोलेंगे। अभी यहां पर्यावरण मंत्री जयंती नटराजन ही बोली हैं। उन्होंने विकसित देशों की ‘कमजोर इच्छाशक्ति’ पर टिप्पणी की, पर स्वर में वह जोर नहीं दिखाई दिया जो पहले के सम्मेलनों में जयराम रमेश ने प्रदर्शित किया था। डरबन से जयंती एक ‘विनम्र प्रतिरोध’ की मुद्रा प्रकट करती हैं, जो सवा सौ देशों के मंत्रियों-राष्ट्राध्यक्षों की उपस्थिति और नीतियों के प्रस्तावों पर मचे घमासान में कारगर रणनीति जाहिर नहीं होती। जयंती ने इसे रियो में भारत का ‘रचनात्मक रवैया’ बताया है।
‘अपने भविष्य के लिए’ के नारे के साथ आयोजित हुए रियो सम्मलेन में जयंती नटराजन ने विकसित देशों की ओर से सामने आए ‘हरित अर्थव्यवस्था’ के प्रस्ताव को यह कहते हुए स्वीकार कर लिया कि बस उसका लोकतंत्रीकरण होना चाहिए, ग़रीब इन नई नीतियों का बोझ बर्दाश्त नहीं कर पाएंगे। पर्यावरण मंत्री ने लंबी बैठकों के बाद तय हुए मसविदे (आउटकम टेक्स्ट) पर भी संतोष प्रकट किया, क्योंकि उनमें ‘भारत के हितों का’ ध्यान रखा गया है, जबकि, सम्मलेन में चर्चा का मुख्य मुद्दा बन गए इस मसविदे में भारत की भूमिका स्पष्ट नहीं होती, दूसरे पहले के मसविदे स्पष्ट लक्ष्य निर्धारण और उनके समयबद्ध पालन की बात करते थे।
इस बार मसविदा जंगल जैसे अहम विषय का सिर्फ ‘नोट’ लेता है। बीस वर्ष पहले यहीं पर पृथ्वी-सम्मलेन में वन समझौता एक बड़ा मुद्दा था और भारत ने उस पर सबसे कड़ा रुख अख्तियार किया था।डरबन में तो खुद यूरोपीय संघ का प्रस्ताव था कि विकसित देशों को प्रदूषण घटाने का अपने लक्ष्य बढ़ाकर बीस प्रतिशत कर देना चाहिए। अमेरिका इससे सहमत नहीं था। उसका कहना था कि अपने स्तर पर वह पहले ही सत्रह प्रतिशत का लक्ष्य रखे हुए है। बहरहाल, इस दफा इस तरह के निर्धारित लक्ष्यों की बात ही गोल कर दी गई है।
पानी अब तक के सम्मेलनों में अलग मुद्दा हुआ करता था। इस बार के मसविदे में बड़ी होशियारी से पानी को ‘खाद्य और पोषाहार’ में मिलाकर छोड़ दिया गया है। इसका मतलब यह नहीं कि उस पर चर्चा नहीं होगी; पर अलग विषय बने रहने पर समस्या का महत्त्व ज्यादा रहता है, मिला देने पर ध्यान कम होता है।
ऊर्जा पर भी मसविदे में ढुल-मुल रवैया सामने आया है, जबकि जलवायु परिवर्तन से ऊर्जा का सीधा संबंध है। जयंती नटराजन के रवैये से और देशों के संभागी ही नहीं, भारत के गैर-सरकारी संगठनों के संभागी भी हैरान हुए हैं। सामाजिक कार्यकर्ता आशिष कोठारी ने यहां प्रधानमंत्री के नाम एक ‘खुला पत्र’ जारी करते हुए कहा कि उनसे एक बुलंद नेतृत्व की अपेक्षा है, समझौतापरस्त रवैये की नहीं। कोठारी के साथ पत्र पर पर्यावरण कार्यकर्ता सौम्य दत्ता, कल्याणी राज, अजय झा और सजल वोरा के भी दस्तखत हैं। ये सभी बृहस्पतिवार को यहां मौजूद भी थे।
कोठारी ने ‘हरित अर्थव्यवस्था’ को एक शिगूफा मात्र करार दिया है, ‘जो न भारत के लिए मददगार होगा, न ही पृथ्वी के लिए।’‘हरित अर्थव्यवस्था’ के हक में यूरोपीय यूनियन के देशों के आलावा कनाडा भी है। अमेरिका अपना वजन अलग बनाए रखने के खेल खेलता है, पर उसका रुख अंतत: विकसित देशों के साथ ही रहता है।रियो सम्मलेन में अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा नहीं आ रहे हैं। उनका प्रतिनिधित्व विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन करेंगी। जर्मनी की चांसलर एंजेला मेरकल और ब्रिटेन के प्रधानमंत्री केमरून भी सम्मलेन में शामिल नहीं हो रहे हैं। जनसत्ता से साभार।

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