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Monday 25 August 2025 02:12:16 PM
नई दिल्ली। केंद्रीय संस्कृति मंत्रालय के तत्वावधान में इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र (आईजीएनसीए) के कलानिधि प्रभाग के कार्यक्रम में प्रख्यात शिक्षाविद् एवं लेखक डॉ विनोद कुमार तिवारी की तीन सांस्कृतिक पुस्तकों 'रामायण कथा की विश्वयात्रा', 'हमारी सांस्कृतिक राष्ट्रीयता' और 'पूर्वजों की पुण्यभूमि' का लोकार्पण किया गया। पुस्तकों की विषयवस्तु पर गहन चर्चा की गई, जिसमें विद्वानों ने कहाकि इन कृतियों का भारतीय संस्कृति और राष्ट्रवाद पर गहन विमर्श में एक महत्वपूर्ण योगदान है। पुस्तकों का प्रकाशन मोतीलाल बनारसीदास प्रकाशक ने किया है। लोकार्पण कार्यक्रम में जूनापीठ के प्रमुख आचार्य महामंडलेश्वर स्वामी अवधेशानंद गिरि मुख्य अतिथि थे, उन्होंने ने ही इन तीनों पुस्तकों की प्रस्तावना भी लिखी है। कार्यक्रम की अध्यक्षता आईजीएनसीए ट्रस्ट के अध्यक्ष रामबहादुर राय ने की।
लोकार्पण कार्यक्रम के विशिष्ट वक्ताओं में राष्ट्रीय स्मारक प्राधिकरण की पूर्व अध्यक्ष और आईसीएचआर की सदस्य प्रोफेसर सुष्मिता पांडे, कलानिधि प्रभाग के प्रमुख और आईजीएनसीए के डीन (प्रशासन) प्रोफेसर रमेश चंद्र गौड़ और दिल्ली विश्वविद्यालय की पूर्व संकाय सदस्य डॉ शशि तिवारी शामिल थीं। उन्होंने कहाकि ये रचनाएं भारतीय ज्ञान प्रणालियों, सांस्कृतिक विरासत और राष्ट्रीय एकता के संरक्षण में उल्लेखनीय योगदान देती हैं। कार्यक्रम का शुभारंभ शंख की शुभ ध्वनि और वैदिक मंगलाचरण केसाथ हुआ। प्रोफेसर रमेश चंद्र गौड़ ने स्वागत भाषण दिया और अतिथियों का परिचय कराया। मुख्य संबोधन में आचार्य महामंडलेश्वर स्वामी अवधेशानंद गिरि ने कहाकि रामायण इतिहास है, भारत में दो ही ग्रंथ ऐतिहासिक माने जाते हैं-रामायण और महाभारत। उन्होंने कहाकि हमारी परंपरा में इतिहास न तो कोई 'वाद' है और ना ही कोई मिथक, 'मिथक' या 'मिथकवाद' जैसे शब्द अंग्रेजी भाषा के शब्द हैं और 'वाद' का अर्थ है-कुछ अटकलें, सत्य नहीं, काल्पनिक और शायद अतीत में कभी अस्तित्व में न रही-एक मात्र धारणा। आचार्य ने कहाकि इसी प्रकार मिथक सत्य का बोध नहीं कराता, हमारी संस्कृति पौराणिक कथा नहीं है, यह सत्य है, शाश्वत है और इसका मूल ऋग्वेद में निहित है।
आचार्य महामंडलेश्वर स्वामी अवधेशानंद गिरि ने कहाकि हमारी संस्कृति सनातन है, यह लोकतांत्रिक मूल्यों, संवाद, गणित, विज्ञान, अंक, शून्य और दशमलव प्रणाली का मूल है। उन्होंने कहाकि यह विमर्श केवल पुस्तकों तक सीमित नहीं है, यह भारतीय जीवन दर्शन का उद्घोष है, डॉ विनोद तिवारी ने इस संबंध में असाधारण कार्य किया है। अध्यक्षीय संबोधन में रामबहादुर राय ने स्वामी अवधेशानंद गिरि लिखित पुस्तकों की प्रस्तावना का उल्लेख करते हुए कहाकि रामायण भारतीय संस्कृति को उसके सबसे उत्कृष्ट रूपमें अभिव्यक्त करती है, रामायण भारतीय संस्कृति का मूल रूप जानने का साधन है। उन्होंने कहाकि एकबार किसी ने पंडित रामकिंकर उपाध्याय से पूछाकि गीता पर सबसे अच्छी व्याख्या कौन सी है? तो उन्होंने कहाकि वह यहां गीता का उल्लेख इसलिए कर रहे हैं, क्योंकि स्वामीजी ने हमें वेदों से जोड़ा है, जोकि मूल हैं और जब आप वेदों से जुड़ेंगे तो आप 2025 को और भी स्पष्ट रूपसे समझ पाएंगे।
रामबहादुर राय ने कहाकि व्याख्या में पंडित रामकिंकर ने कहाकि मेरे विचार से गीता पर सबसे अच्छी व्याख्या रामचरितमानस है, लोकमान्य तिलक ने गीता पर अपनी व्याख्या ‘गीता रहस्य’ मंडाले जेल में लिखी, जिसका हिंदी अनुवाद 1915 में तिलक के शिष्य और पत्रकार माधवराव सप्रे ने किया था। उन्होंने कहाकि गीता जो कुछ भी कहती है, उसका विस्तार से वर्णन ‘गीता रहस्य’ में किया गया है। उन्होंने कहाकि अरबिंदो ने गीता रहस्य की प्रशंसा की थी, तिलक के निधन के बाद महात्मा गांधी ने बनारस, कानपुर और पुणे में अपने सम्भाषण में कहा थाकि गीता पर इससे बड़ा कोई शोध तबतक नहीं हुआ था, उन्हें तो यहां तक संदेह थाकि भविष्य में ऐसा कभी होगा भी या नहीं। रामबहादुर राय ने विनोद तिवारी से अनुरोध कियाकि वे तिलक महाराज की गीता को भी ऐसी ही सुगम भाषा में प्रस्तुत करें। उन्होंने इन उल्लेखनीय पुस्तकों केलिए विनोदजी को बधाई भी दी।
डॉ विनोद कुमार तिवारी ने पुस्तकों का परिचय देते हुए दक्षिण पूर्व एशिया में रामायण परंपरा के प्रसार की जानकारी दी। उन्होंने कहाकि रामायण भारतीय संस्कृति का प्रतीक है और संस्कृत न केवल विज्ञान की भाषा है, बल्कि गणित की भी भाषा है। रामायण के वैश्विक प्रभाव का उल्लेख करते हुए उन्होंने बतायाकि इंडोनेशिया की राजधानी जकार्ता का मूल नाम अयोध्याकर्ता था जो बाद में जकार्ता में परिवर्तित हो गया। प्रोफेसर सुष्मिता पांडे ने कहाकि रामायण कथा की विश्वयात्रा पुस्तक डॉ विनोद तिवारी की दक्षिण और दक्षिण पूर्व एशिया पर व्यापक चर्चा केलिए विशिष्ट है, लेकिन इससे भी महत्वपूर्ण बात यह हैकि यह उनके अभिनव दृष्टिकोण केलिए उल्लेखनीय हैकि गिरमिटिया के नामसे जाने-जाने वाले कैरिबियाई द्वीपों में भारतीय मूल के लोगों ने किस प्रकार से विषम परिस्थितियों के बावजूद रामायण का प्रचार करने में सफलता प्राप्त की।
सुष्मिता पांडे ने कहाकि यह प्रयास वास्तव में अग्रणी है। उनके अनुसार संस्कृति मूलत: आध्यात्मिक चेतना का एक रूप है, जो प्रतीकात्मक रूपसे व्यक्त होती है और यह रामायण में स्पष्ट रूपसे परिलक्षित होती है। उन्होंने कहाकि संस्कृति और रामायण के बीच गहरा संबंध है। दक्षिण पूर्व एशिया का उल्लेख करते हुए उन्होंने इस क्षेत्रके भारत केसाथ प्राचीन संबंधों पर बल दिया। पुरातत्वविद् आईके शर्मा ने बतायाकि यह संबंध तीसरी सहस्राब्दी ईसा पूर्व तक जाते हैं, जैसाकि चीनी मिट्टी की वस्तुओं पर भारतीय प्रतीकों और लौहयुग के दफन स्थलों में भारत से कांच और पत्थर के मोतियों की उपस्थिति से प्रमाणित होता है, गुप्तकाल के दौरान ये संबंध और भी दृढ़ हो गए। डॉ शशि तिवारी ने कहाकि तीनों पुस्तकें अत्यंत उपयोगी, रोचक और ज्ञानवर्धक हैं, जिनमें विविध शैलियों में लिखे गए निबंध पठनीय और ज्ञानवर्धक हैं। उन्होंने कहाकि राष्ट्रीयता को परिभाषित करना सदैव एक चुनौतीपूर्ण कार्य माना गया है, कई विद्वानों ने प्रयास किया है, लेकिन कोई सटीक परिभाषा स्थापित नहीं हो पाई है।
डॉ शशि तिवारी ने उदाहरण केलिए कहाकि कुछ विद्वानों का मानना हैकि एक राष्ट्र की परिभाषा एक ही जाति के लोगों के एक साथ रहने, एक ही धर्म के लोगों या एक ही भाषा बोलने वालों से होती है, हालांकि ये मानदंड भारत पर लागू नहीं हो सकते, क्योंकि यह अनेक जाति, धर्म और भाषाओं का घर है। डॉ शशि तिवारी ने कहाकि इस संदर्भ में उन्हें वासुदेव शरण अग्रवाल की पुस्तक ‘पृथ्वी-पुत्र’ विशेष रूपसे ज्ञानवर्धक लगी। इसका शीर्षक अथर्ववेद के एक मंत्र ‘माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः’ (पृथ्वी मेरी माता है, मैं उसका पुत्र हूं) पर आधारित है। इस आधार पर उन्होंने राष्ट्र को एक विशिष्ट भूभाग, उसके लोगों और उनकी संस्कृति के रूपमें परिभाषित किया। उन्होंने कहाकि लोगों की संस्कृतियां विविध हो सकती हैं, लेकिन यह उन्हें एकसाथ जोड़ती हैं, एक सांस्कृतिक राष्ट्रीयता का निर्माण करती हैं, जिसमें कोई बाधा नहीं होती। उन्होंने कहाकि धर्म, विज्ञान, ज्ञान, दर्शन, कला, संगीत और साहित्य सभी संस्कृति के दायरे में आते हैं और पूरे इतिहास में भारत ने निरंतर एकता की इस भावना का अनुभव किया है।
प्रोफेसर रमेश चंद्र गौड़ ने कहाकि भारत में 121 भाषाएं हैं, जिनमें से प्रत्येक को दस हज़ार से ज़्यादा लोग बोलते हैं, फिर भी रामायण का उन सभी भाषाओं में अनुवाद नहीं हुआ है। उन्होंने कहाकि अगर ऐसे भारतीय ग्रंथों का हर भारतीय भाषा में अनुवाद नहीं किया गया तो यह ज्ञान आम लोगों तक नहीं पहुंच पाएगा, जोकि समय की मांग है। उन्होंने अतिथियों, वक्ताओं और उपस्थित लोगों केप्रति आभार व्यक्त करते हुए कार्यक्रम का समापन किया। आईजीएनसीए के समवेत सभागार में आयोजित इस कार्यक्रम में बड़ी संख्या में विद्वान, शोधकर्ता, छात्र और साहित्यप्रेमी उपस्थित थे।