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मेलों और मंदिरों की भेंट चढ़ती जिंदगानियां !

सतीश के शर्मा

श्रद्धालुओं की लाश-Bodies of devotees

बिलासपुर (हिमाचल प्रदेश)। गोविंद सागर नदी के तीर शिवालिक पर्वत श्रृंखला पर प्रसिद्ध शक्तिपीठ नयनादेवी का मंदिर पथ पच्चीस साल बाद फिर श्रद्धालुओं की लाशों और उनके खून से लथपथ दिखा। क्या संयोग है कि वह भी 3 अगस्त 1983 था और दिन भी रविवार और मौसम भी वही। उस समय भी इसी तरह से नयना देवी का दर्शन कर रहे श्रद्धालुओं में भगदड़ मची थी और उसमें करीब 50 से भी ज्यादा लोगों की मृत्यु हुई थी। वैसा ही मंजर फिर 3 अगस्त 2008 को रविवार के दिन ही सामने आया जिसमें करीब 150 से भी ज्यादा पुरुषों बच्चों और महिलाओं की पुण्य की अभिलाषा, दर्दनाक मौत में बदल गई। हादसे की असली सच्चाई क्या है यह तो जांच से ही सामने आएगा लेकिन लोग कह रहे हैं कि भूस्खलन की अफवाह से दर्शनार्थी दहशत में आए और एक दूसरे को कुचलते हुए वहां से भागने लगे जिसमें इतनी बड़ी संख्या में श्रद्धालु मौत के मुंह में चले गए।
नयना देवी मंदिर हिमाचल प्रदेश की पर्वत श्रृंखलाओं पर स्थापित एक शक्तिपीठ कहलाती है जहां पर लोग कुंभ के मेले की तरह से आते हैं और नयना देवी के दर्शन करके पुण्य कमाते हैं। हिमाचल प्रदेश सरकार और बिलासपुर जिला प्रशासन यूं तो हमेशा बेहतर आवागमन और नयना देवी के सुगमता से दर्शन करने के दावे करता रहा है लेकिन उसके दावे हर बार भीड़ के दबाव में धराशायी हो जाते हैं। यह और बात है कि हर बार ऐसे हादसे नहीं हुए, लेकिन होते-होते रह गए ऐसा कई बार हुआ। मंदिर तक पहुंचने वाली रैलिंग इतनी असुरक्षित और कमजोर थी यह बात सभी प्रबंधकों को मालूम थी। वह श्रद्धालुओं के भार से टूटी और लोग दुकानों पर गिरते हुए पहाड़ी से नीचे गिर कर अपनी जान से हाथ धो बैठे। न जाने कितनों के परिजनों के लिए नयना देवी के दर्शन करने जाना जीवन भर एक भयावह दंश बना रहेगा।
मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल ने घटना पर भारी अफसोस जताया। मृतकों के परिजनों को मुआवजा देने की बात कही है और घटना की जांच के आदेश भी दिए हैं लेकिन ऐसे स्थलों पर जहां लाखों लोग एकत्र होते हों वहां इस बात की पड़ताल जरूर होनी चाहिए थी कि कहीं भारी आवागमन और मौसम में बाधा तो नहीं आ सकती। कम से कम भीड़ में आकस्मिक भगदड़ से निपटना तो सर्वोच्च प्राथमिकता पर होना ही चाहिए। इसकी क्या तैयारी थी? सुना गया कि राहत कार्य भी तत्परतरता से नहीं हुए और लाशों के ढेरों में जिंदा सिसकते लोग तड़प-तड़प कर दम तोड़ गए। आवागमन व्यवस्था में जो कुछ पुलिस लगी भी थी वह वाहनों, फट्टेमार दुकानदारों से अवैध वसूली में और जेबकतरों के साथ खड़ी थी। इसमें किसी मुख्यमंत्री का कोई दोष नहीं कहा जा सकता, लेकिन उस क्षेत्र के संबंधित अधिकारियों की जरूर खबर ली जानी चाहिए जिनके इंतजाम ऐसे आयोजनों में भी हमेशा थके हुए रहते हैं और उनकी सुचारू व्यवस्था के नाम पर खर्च आसमान छूते हैं।
जान से बचकर लौटे कुछ प्रत्यक्षदर्शी बताते हैं कि रविवार को श्रावणी नवरात्र के दूसरे दिन लोग कतार में, हाथों में चढ़ावा सामग्री लिए बढ़े जा रहे थे। सांप की तरह से घुमावदार और संकरे रास्तों पर बारिश की परवाह न करते हुए दर्शनार्थी तड़के से ही दर्शन की प्रतीक्षा में थे, तभी सीढ़ियों के गिरने और भूस्खलन की अफवाह फैली, जिसके बाद खचाखच भरे इस चार किलोमीटर लंबे मंदिर दर्शन मार्ग पर भगदड़ शुरू हो गई। महिलाएं बच्चे और पुरुष अपनी जान बचाने के लिए बांस के डंडों पर टिकी दुकानों में घुस गए जो कि गिर गईं जिससे लोग खाई में गिरते चले गए। यहां कुछ लोगों की मौत अस्थाई दुकानों में बिजली के तार टूटने से फैले करंट की चपेट में आने से भी हुई। अफरा-तफरी में टूटे तारों से यह करंट फैला हुआ था। काफी देर तक ऐसा लगता रहा कि भगदड़ और लोगों का मरना अभी भी जारी है। अधिकांश लोग तो इसलिए भीड़ की चपेट में आए क्योकि उनके बच्चे और परिवार के सदस्य उन से छूट गए थे। उनको ढूंढने के लिए लौटने पर वे भी चपेट में आ गए। इस घटना में पंजाब और हरियाणा के अधिकांश लोगों की मृत्यु हुई है।
नयना देवी मंदिर का लोगों के लिए भारी आध्यात्मिक महत्व माना जाता है। कहते हैं कि नयना देवी का संबंध भगवान शिव की पत्नी सती से माना जाता है। माता सती अपने पति भगवान शिव का अपमान देखकर पिता के यज्ञ के हवनकुंड में कूद पड़ी थीं तब शिव क्रोधित हुए और उनके अनुचरों ने यज्ञ को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया। तत्पश्चात भगवान शिव, सती के आधे जले शरीर को उठाकर पृथ्वी के चारों और घूमने लगे। इससे चिंतित हो भगवान विष्णु ने सुदर्शन चक्र चलाया और सती के शरीर को खंडित कर दिया। सती के शरीर के विभिन्न टुकड़े जहां-जहां गिरे। एक टुकड़ा आज के बिलासपुर में शिवालिक पर्वत श्रृंखला पर गिरा जोकि सती की आंखें थीं। इसलिए इस स्थल का नाम सती के नयनों पर नयना देवी पड़ा। तब से यहां सती के नयनों की पूजा अर्चना होती है। आस्थावान लोग यहां चांदी और सोने की आंखें चढ़ाते हैं। एक तरह से यह देवी साधना स्थल माना जाता है और मनोकामना पूर्ण करने के लिए श्रावण मास में यहां ज्यादा ही भीड़ रहती है। हिमाचल प्रदेश सरकार ने सन् 1983 की ऐसी ही भगदड़ के बाद मंदिरों में सुगमता से दर्शन के लिए विख्यात मंदिरों की व्यवस्था ट्रस्ट के जरिए करानी शुरू कर दी थी। हर बार व्यवस्था के नाम पर लंबे चौड़े खर्च तो दिखाए जाते रहे हैं लेकिन दर्शनार्थी मंदिर में दर्शन व्यवस्था से परेशान ही रहते आए हैं।
देश में धार्मिक आयोजनों के दौरान भगदड़ से मौतों की घटनाएं रूक नहीं पाई हैं। जहां भी ऐसे स्थल हैं, वहां पर भारी संख्या में स्त्री पुरुष और बच्चे एकत्र होते हैं और वहां भीड़ को नियंत्रित करने का प्रबंध अव्यवस्था के रूप में ही देखा जाता है। सन् 1954 में प्रयाग कुंभ के मेले में मची भगदड़ में करीब 1000 श्रद्धालुओं की मौत हुई थी तब ऐसी घटनाओं से निपटने के लिए योजनाएं बनीं, अगले कुंभ मेले में उनको लागू भी किया गया मगर 1984 में हरिद्वार के एक मंदिर में ऐसी ही भगदड़ हुई जिसमें करीब 200 लोग मारे गए। हरिद्वार में ही 1989 में कुंभ में भगदड़ हुई थी जिसमें करीब 400 लोगों की मौत हुई थी। केरल में शबरी माला स्थान पर वार्षिक पूजा के दौरान भगदड़ मची और करीब 50 लोग मरे। नासिक में कुंभ के दौरान फेंके गए सिक्कों को लपकने के चक्कर में भगदड़ मची, उसमें भी करीब 40-50 लोग मरे। सन् 2005 में महाराष्ट्र में सतारा जिले में मंदिरा देवी मंदिर पर मेले में बिजली करंट दौड़ गया जिससे भगदड़ में 300 से ज्यादा लोगों की मौत हुई। आंध्र प्रदेश के विजयवाड़ा में भी एक मंदिर में इसी साल तीन जनवरी को भगदड़ में करीब 5-6 लोगों की जानें गईं। मध्यप्रदेश के अशोक नगर जिले में जानकी लव-कुश मंदिर में रंगपंचमी के मौके पर दर्शन के दौरान भगदड़ मची और करीब आठ लोग मारे गए। इसी साल ही 7 जुलाई को उड़ीसा में पुरी में रथयात्रा के दौरान भगदड़ मची जिसमें करीब 6 लोग मारे गए। नयना देवी की यह घटना तो शुद्ध रूप से घोर अव्यवस्था के कारण ही मानी जाती है। इससे बड़ी और क्या बात होगी कि प्रशासन ने राहत कार्यों में भी लापरवाही बरती जबकि गैर सरकारी स्वयंसेवक ही वहां मदद करते दिखाई दिए। ये घटनाएं इस बात पर इशारा करतीं हैं कि व्यवस्था के नाम पर केवल धन बहाया जाता है और सुविधाओं के नाम पर लोगों को मौत की तरफ धकेला जाता है। ऐसा कब तक होता रहेगा?

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