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कश्मीर का दर्जी अली मोहम्मद !

डॉ शिबन कृष्ण रैना

डॉ शिबन कृष्ण रैना

श्रीनगर में अली मोहम्मद दर्जी उसी दुकान पर है। फर्क आया है तो उसकी उम्र पर जो एक बुर्जुगवार के रूप में ढल गई है, और कश्मीर पर जो अब पहले जैसा नहीं रहा है। अली मोहम्मद की आंखे वो सब चेहरे पहचानती हैं जिनके लिए उसने कश्मीरी सलवार सूट और पैंट कोट सिले हैं। बड़ा काबिल और सलाहियतों वाला दर्जी है वह। कायदे से सिले गए सूट में एक दर्जी की पूरी मेहनत दिखाई दे जाती है। मै जब वहां पहुंचा तो अली मोहम्मद ने मेरी दी हुई पर्ची देखते ही पहचान लिया कि वह त्रिलोकीनाथ के सूट की पर्ची है और उसने दुकान में सूट की ओर इशारे से बता भी दिया कि उनका सूट तभी से रखा हुआ है। मेरे लिए यह घटनाक्रम काफी भावनात्मक था और अली मोहम्मद के लिए भी। कश्मीर की धरती पर न जाने ऐसे कितने अली मोहम्मद हैं जो एक दूसरे को पहचानते हैं और मानते हैं लेकिन वहां की आबोहवा कुछ और ही चलती है जिसमें वह भी बेचारा है और हम भी बेचारे हैं।
यह बात तब की है जब कश्मीर में आतंकवादी घटनाएं अपने चरमोत्कर्ष पर थीं। सन् 1989-1990 का वर्ष खास तौर पर इसलिए उल्लेखनीय है क्योंकि इस वर्ष अधिक से अधिक कश्मीरी पण्डित, रोज-रोज के बम धमाकों, अत्याचारों, घर घुसकर बलात्कारों से तंग आकर, घाटी से विस्थापित होकर, देश के दूसरे हिस्सों में चले आए। उस वक्त कुछ तो अपना घर-गृहस्थी का सामान अपने साथ ले जाने में सफल रहे, मगर कुछ को वहां अपना सब कुछ छोड़कर खाली हाथ ही अपनी जान बचाते हुए घरों से भाग जाना पड़ा। कुछ कहां हैं अभी तक पता नहीं है मगर अधिकांश विस्थापित कश्मीरी पंडित जम्मू चले आए और यहां विभिन्न कैंपों, मंदिरों, शरणस्थलियों में रहने लगे।
देश के कई सामाजिक संगठनों एवं संस्थाओं ने विपदा की इस घड़ी में कश्मीरी पंडित विस्थापितों की हर तरह से खूब मदद और सेवा की और यह दर्द सभी को है कि जम्मू-कश्मीर सरकार ने घाटी से कश्मीरी पंडितों के इस तरह पलायन पर आज तक चुप्पी साध रखी है। वहां की सरकार जिन पंडितों के कश्मीर में रहने की बात करती है या तो वे वहां अपने दम पर या अपनी जान हथेली पर रखकर या फिर बड़ी मजबूरी में मौजूद हैं, वहां की सरकार की एक मजबूरी भी है कि वह उनके संरक्षण का दिखावा करे। सच यह है कि जम्मू-कश्मीर सरकार दिखावा ही करती है। पूरी घाटी में कश्मीरी पंडितों के खाली पड़े घर इस बात के गवाह हैं कि उन घरों पर आतंकवादियों या उनके नाम पर कश्मीर के ही लोगों ने कितने जुल्म ढाए हैं। देश के बाकी हिस्से और बाकी देश-दुनिया को कश्मीर कितना ही खूबसूरत लगता हो मगर उसके भीतर की सच्चाईयां उतनी ही बदसूरत हैं, जो वहां के आंतरिक वातावरण में झांकने से दिखाई पड़ने लगती हैं। भारत सरकार और भारत वासियों को जम्मू-कश्मीर की सरकार घाटी के असली सच से दूर रखे हुए है, भारत सरकार है, जोकि अपनी आंखों पर पट्टी बांधे हुए है। उसे कश्मीर के पंडितों के साथ होते आ रहे सब अत्याचारों का पता है, लेकिन दिक्कत यह है कि अधिकांश कश्मीरी पंडित घाटी से पलायन कर चुके हैं, इसलिए आज उनमें बिखराव के कारण उनकी वोट की ताकत भी किसी मतलब की नहीं रही है, जब वोट की ताकत नहीं बची है तो उनकी सुध लेने का भी कोई मतलब नहीं है।
यूं तो घाटी में ऐसे भी मुसलमान मौजूद हैं जो घाटी से पंडितों के पलायन पर बहुत दुखी हैं और वे कहते हैं कि यह पलायन कश्मीर के मुसलमानों लिए बहुत बड़ा कलंक है। कश्मीरी आतंकवादियों को उनसे उतना मतलब नहीं है जितना मतलब कश्मीर के स्थानीय लोगों से है जो उनकी संपदा को फोकट में हड़पना चाहते हैं। ऐसे कई मामले हैं जिनमें पंडितों के खिलाफ हिंसा की वारदात में स्थानीय कश्मीरी मुसलमान शामिल पाए गए और दोष विदेशी आतंकवादियों के सर मढ़ दिया गया। पाकिस्तान या उसके आतंकवादियों का झगड़ा भारतीय सुरक्षा बलों से ज्यादा है कश्मीर के पंडितों से नहीं है। हिंदुओं के कत्लेआम को वे केवल दुनिया का ध्यान खींचने के लिए अंजाम देते हैं ना कि उनको यहां से खदेड़ने के लिए। आज कश्मीर में सवाल उठ रहा है कि कश्मीरी पंडितों से खाली हुए उन घरों की क्या जरूरत रह गई है? एक धनवान मुसलमान पड़ोसी का शानदार बंगला उसके लिए भी भुतहा बनता जा रहा है क्योंकि उसके पड़ोस में न किलकारियां सुनने को मिलती हैं और नाही दूसरे के तीज-त्योहार की रौनक, मिलजुल कर खेलने वाले बच्चे भी अपनो में ही खेलकर दिल बहला लेते हैं लेकिन उन्हें अब उनके पड़ोस में बस रहे पंडितजी का शंख नहीं सुनाई देता है। पंचायतों में एक साथ बैठना बड़ा अच्छा लगता था लेकिन अब वे भी नहीं रही हैं, सब कुछ उलट-पलट गया है।
विस्थापन की इस भगदड़ में मेरे मित्र त्रिलोकी बाबू का सूट दर्ज़ी अली मुहम्मद के पास श्रीनगर में ही रह गया था। यह सूट त्रिलोकी ने अपनी शादी की 30वीं सालगिरह पर पहनने के लिए अली मुहम्मद को सिलने दिया था, मगर किस को मालूम था कि एक दिन आतंक का कहर पण्डितों को बेघर कर देगा। त्रिलोकी, रातों-रात एक ट्र्क में अपना सामान भरकर परिवार सहित जम्मू चला आया था। सात-आठ वर्ष बाद जब स्थिति तनिक सामान्य हुई तो मुझे किसी काम से श्रीनगर जाना पड़ा। त्रिलोकी को जब मालूम पड़ा कि मैं श्रीनगर जाने वाला हूं तो उन्होंने मुझे एक काम पकड़ा दिया, दर्ज़ी की पर्ची हाथ में थमा कर कहने लगे-भई, मेरा सूट वहां दर्ज़ी के पास पड़ा हुआ है, उसने सिल तो दिया होगा, ये रहे सिलाई के पैसे और यह रही पर्ची। दर्ज़ी और दर्ज़ी की दुकान से मैं वाकिफ था। मैंने पैसे और पर्ची जेब में डाल दिए।
श्रीनगर पहुंचकर अली मुहम्मद दर्ज़ी की दुकान ढूंढ निकालने में मुझे ज़्यादा दिक्कत नहीं हुई। हां,इतना ज़रूर पाया कि आसपास की दुकानें कुछ तो बदल-सी गईं थीं और कुछ चौड़ी-सी हो गई थीं। सड़कों पर आवाजाही और रौनक वैसी की वैसी ही थी। हां,दुपहियों की जगह चारपहिए वाली गाड़ियां कुछ ज़्यादा ही नज़र आ रही थीं। मुझे सचमुच बहुत अच्छा लग रहा था। इतने वर्षों बाद अपने मुहल्ले को देखकर, गली-कूचों, सड़कों, खाली पड़े मकानों आदि को देखकर मेरे मन में एक अजीब तरह का भाव था।...मैं अली भाई की दुकान पर पहुंचा। सामने बैठे एक बुज़ुर्गवार के हाथ में त्रिलोकी की पर्ची थमा दी। मुझे वह शख्स कुछ क्षणों तक एकटक निहारता रहा, फिर मेरे कन्धे पर अपना एक हाथ रखकर बोला- अच्छा तो आप त्रिलोकीनाथ जी के दोस्त हैं। उन्होंने आपको उनका सूट मंगवाने के लिए भेजा है...? फिर दूसरा हाथ भी मेरे कन्धे पर रखते हुए भावपूर्ण शब्दों में कहने लगे-वो! वोह देखो! उनका कोट ऊपर हैंगर में टंगा है, बिल्कुल तैयार है। अपने एक सहायक से सूट को पैक करने के लिए कहते हुए उन्होंने मुझ से पूछा- 'कैसे हैं त्रिलोकीनाथजी? बच्चे उनके कैसे हैं?, अब तो बड़े हो गए होंगे, भाभीजी कैसी हैं?...भई, सचमुच बहुत बुरा हुआ, हमें भी बहुत दुःख है,...जाने कश्मीर को किस की नज़र लग गई!
इससे पहले कि वे कुछ और कहते मैंने जेब से सिलाई के पैसे निकाले और दर्जी को पकड़ाने लगा। मेरे हाथ में पैसे देखकर अली मुहम्मद बोला-पहले तो त्रिलोकीनाथ जी को हमारा आदाब कहना फिर उनको कहना कि इंशाअल्लाह जब वह खुद यहां आएगा,यहां रहने लगेगा तब मैं यह पैसे लूंगा, अभी नहीं,अभी बिल्कुल नहीं।....आप बैठिए,चाय वगैरह लीजिए।....मैं कुछ भी नहीं बोल पाया....बस, सोचता रहा कि सदियों से चली आ रही कश्मीर की भाई-चारे की इस रिवायत को यह किस की नज़र लगी हुई है?

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