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ज़माने के रंग में थारूओं की होली

डीपी मिश्रा

थारू होली-tharoo holi

लखीमपुर-खीरी। भारत-नेपाल सीमा पर दुधवा नेशनल पार्क के सघन वनक्षेत्र में महाराणा प्रताप सिंह का वंशज बताने वाले आदिवासी जनजाति थारूओं के चार दर्जन के आस-पास छोटे-बडे़ गांव आबाद हैं। थारूओं की होली क्षेत्र में ही नही वरन् प्रदेश भर में विख्यात है। खासकर होली पर थारू युवक-युवतियों द्वारा किये जाने वाले होली के विलक्षण नृत्य को जो एक बार देख लेता है तो फिर वह उसे नही भूल पाता है।
थारू
जनजाति क्षेत्र में होलिकोत्सव, होली से एक माह पूर्व ही प्रारंभ हो जाता है, जिसे ?जिंदा होली? कहा जाता है। इस पंरपरा के अनुसार थारू लोग और उनके बच्चे गांव के बाहर होली रखना शुरू कर देते हैं। इसमें प्रत्येक रात्रि में लड़के घरों से कूड़ा, पैरा, लाही डंठल, लकड़ी आदि चुराकर होली पर रख आते हैं। गांव की लड़कियां ग्राम प्रधान तथा उप प्रधान (भलमंशा) के आंगन में प्रतिदिन होली नृत्य और गीत गाकर खुशी मनाती हैं। यह क्रम कम से कम होली के तीन दिन पहले तक चलता रहता है। होली जलने से पहले गांव के लड़के दो-तीन वलुइयों में ?दनवा?, दनवरिया आकारथान के पैरा से बनाकर बल्लियों में बांध देते हैं। होलिका दहन रात्रि में करने के बाद सुबह रंग के स्थान पर गोबर और मिट्टी आदि से होली खेलते हैं। इसके बाद से आठ दिन तक ?मुर्दा? होली में नाचने और उल्लासपूर्वक मनाने की परंपरा प्रारंभ होती है। युवक-युवतियां परंपरागत पोशाकों में सज-धज कर प्रतिदिन दो बजे से रात्रि ग्यारह बजे तक ग्राम प्रधान एवं भलमंशा और गांव में आये मेहमान यानी पहुना के घर होली नृत्य, गान आदि के कार्यक्रम में होली मिलन कार्यक्रम चलता रहता है। जाड़ यानी मदिरा और मांस दावत में परोसा जाता है इन तीन दिनों के कार्यक्रम में होली मिलन की परंपरा है। इस दौरान क्षेत्र में आने वाले अन्य लोगों से होली के रंग से सराबोर युवक-युवतियों इनसे फगुआ लेती है।
आठ
दिन मुर्दा होली मनाने के बाद इसका विसर्जन किया जाता है, इसे थारूजन ?खकटेड़ा फोरन? भी कहते हैं। इसमें गांव का प्रधान मिट्टी के घड़े में पानी और एक झाडू डालकर गांव के दक्षिण में लगभग आधा किमी दूर ले जाता है। उसके साथ पूरा गांव जाता है। यहां गांव वाले, प्रधान और उसकी पत्नी प्रधानी समेत सभी आपस में हंसी मजाक करते हैं। इससे गुस्सा होकर प्रधान हल से घड़े को फोड़कर सभी से भाग जाने को कहता है। इसमें पीछे मुड़कर नहीं देखने की हिदायत होती है। गांव पहुंचकर सभी लोग कीचड़ मिट्टी डालकर होली खेलते हैं। स्नान के बाद होली के त्योहार का समापन होता है। इस त्योहार को उल्लास से मनाने के पीछे थारूओं का विश्वास है कि इससे घर में दुःख क्लेश और कष्ट मिट जाता है और सभी में खुशियों का संचार होता है। उनका मानना है कि जिस प्रकार भगवान नरसिंह ने दानव को समाप्त करके लोगों को अत्याचार से मुक्त कराया था उसी प्रकार हम सभी के पापों का नाश हो जायेगा।
थारू
क्षेत्र की विख्यात होली और नृत्य को देखने के लिए राजनेता, मंत्री, आला-अफसर आते रहे हैं लेकिन आधुनिक‍ आडंबर की बयार के कारण थारूओं की होली पंरपरा भी विलुप्त होने की कगार पर है। इसका एक प्रमुख कारण मंहगाई भी है। साथ ही साथ भौतिकवाद की दौड़ में शामिल हो चुके कुछ आदिवासी जनजाति थारूओं में होली का स्वरूप बदल रहा है। थारू क्षेत्र के बुजुर्ग, विलुप्त हो रही होली की पंरपरा से व्यथित हैं, जबकि युवा पीढ़ी इसे परिवर्तन की लहर बता रही है। पूर्व में कभी एक माह तक चलने वाला होली अब एक दिन में सिमटने लगी है। घर की बनी खाद्य सामग्री का स्थान रेड़ीमेड सामान ने ले लिया है। हालांकि यह एक अच्छी बात उभर रही है कि अधिकांश थारू युवक-युवतियां परंपरागत मांस-मदिरा से परहेज करने लगी हैं। इस क्षेत्र में भ्रमण पर आने वाले सैलानियों का प्रभाव भी उन पर दिखाई देता है। थारूओं में जाना बाहरी आदमी के लिए कभी आसान नही था क्योंकि वे लोग बाहरी आदमियों से डर कर अपने घरों में छिप जाया करते थे या उन्हें अपने लिए खतरा समझकर हमला भी कर देते थे। अब यह बात पुरानी हो गई है और थारूओं का जीवन बाहरी वातावरण में ढल गया है। थारूओं में बाहरी आवरण से आई जागरूकता के कारण उनमें कई परिवर्तन देखने को मिलते हैं।
थारूओं
की होली पूर्व में प्रेम और भाईचारे से उल्लासपूर्वक मनाई जाती थी, लेकिन बदलते परिवेश के साथ यहां होली का आनंद सिमटने लगा है। थारू क्षेत्र में एक माह तक नाच-गाना, मांस मदिरा की दावतों का चलन लगभग खत्म सा हो रहा है और आपस में मिल-जुल कर रहने वाले थारूओं में बढ़ती कटुता के कारण यह त्योहार औपचारिक बनता जा रहा है। थारू क्षेत्र के ग्राम गोलबोझी के बुर्जुग किसान बसंतलाल और तीरथराम पुरानी यादों को ताजा करते हुये कहते हैं कि होली का महीनों पहले इंतजार किया जाता था, एक महिना सबकुछ भुलाकर मौज मस्ती में होली मनाई जाती थी, लेकिन अब एक ही दिन में सब कुछ हो जाता है। ग्राम बेलापरसुआ की जुगुनी एवं लीलादेवी कहती हैं कि पहले दिन-रात नाच गाना होता था, खूब मजा आता था, पापड़ चिप्स शौक से बनाये जाते थे, अब तो सब कुछ बाजार से मिल जाता है। थारू छात्रा सुशीला बताती है कि होली के लोक गीत भी लुप्त होने लगे हैं। पहले सभी भाईचारे से होली खेलते थे, अब रंग डालने पर भी लोग बुरा मान जाते हैं। लक्ष्मण राना और राजेश राना कहते हैं कि पूर्व में होली पर मांस-मदिरा का भरपूर प्रयोग होता था लेकिन आज के युवा इससे परहेज करने लगे हैं। इसके अतिरिक्त युवा पीढ़ी अब शहरों में रहने लगी है उसका यह असर हुआ कि छुट्टी पर एक-दो दिन के लिए लोग आते हैं फिर उनकी वापसी हो जाती है। ऐसी व्यस्त जिंदगी ने होली के आनंद को कम किया है।

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