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धन के दुरूपयोग से केंद्र हुआ चौकस

यूपी में आर्थिक अस्थिरता

सत्येन्द्र दत्त

नई दिल्ली। उत्तर प्रदेश को ‘राजनीति’ की भारी कीमत चुकानी पड़ रही है। अनुत्पादक खर्चों की भरमार और एक के बाद एक मनमानी परियोजनाओं में पैसा फंसा देने से राज्य का वित्तीय अनुशासन दरक गया है। गले तक कर्ज में धंसे इस राज्य पर ब्याज जैसी भारी देनदारियों और बजट के बाहर के खर्चों से निपटने में सरकार के पसीने छूट रहे हैं। आज जिस तरह से और जो घोषणाएं हो रही हैं, उनपर अगले बीस साल में भी अमल होने में संदेह है। अभी तो मायावती के पहले कार्यकाल की और दूसरे मुख्यमंत्रियों की ही अरबों की लागत वाली घोषणाएं और योजनाएं लंबित हैं, जिनमें सरकार के करोड़ों रुपए फंसे हुए हैं। उनमें से कई पर धन लगाकर काम शुरू हुआ और सत्ता परिवर्तन होते ही रुक गया। किसी को भी समझ में नहीं आ रहा है कि जब यूपी की आर्थिक हालत बेहद खराब है और यहां निजी क्षेत्र का पूंजी निवेश भी ठप है तो विकास कहां से होगा और यूपी की दस प्रतिशत विकास दर का लक्ष्य पाने के लिए उसके पास आठ लाख करोड़ रुपए कहां से आएंगे? इन सवालों पर सरकार के बजटिया और राज्य के नौकरशाह एक दूसरे का मुंह देख रहे हैं।
सरकार के पूर्ण बहुमत के तैश में मुख्यमंत्री मायावती ने केंद्र से
शुरू-शुरू में जो अस्सी हजार करोड़ रुपए मांगे थे, वे अभी तक कहां मिले हैं? इसके बाद जितने भी पैकेज केन्द्र से माँगे गये हैं वे भी अभी तक नहीं मिले हैं जिनका कारण बिल्कुल स्पष्ट है। यूपी का जो राजनीतिक माहौल है और मायावती ने ‘विकास’ की जो ‘नई परिभाषा’ विकसित की है, उसे देखते हुए इस रकम का मिलना उतना आसान नहीं है। केंद्र सरकार अब एक-एक पैसे की उपयोगिता का हिसाब मांग रही है जिसे ये सरकार दे नहीं पा रही है। ‘मान्यवर काशीराम समग्र विकास योजना’ के लिए फिलहाल कम से कम बारह हजार करोड़ रुपए की जरूरत है जिनका प्रावधान वार्षिक बजट में नहीं था। सरकार ने इसके लिए विधानसभा में अनुपूरक मांग का सहारा लिया है। उधर विकास योजनाओं के नाम पर और सरकार बनते ही करोड़ों रुपयों की लागत वाले पार्कों, स्मारकों को फिर से तोड़ने-बनाने और सरकारी संपदा को ध्वस्त कर उसे अपने राजनीतिक उपयोग में लेने से धन के मामलों में बसपा सरकार आरोपों के घेरे में है। इन सरकारों के राजकोष की कीमत पर जनता की वाहवाही लूटने वाले महंगे प्रयोगों से यूपी का कल्याण हो रहा है कि नहीं, परंतु इन योजनाओं को बनाने वालों ने अपना ‘कल्याण’ जरूर कर लिया है।
राज्य की जमीनी सच्चाइयों से वाकिफ यहां के राजनेताओं और हुक्मरानों ने ईमानदारी से कोई भी ऐसी पहल नहीं की है जिससे उसके आंतरिक संसाधनों से राज्य के राजस्व में वृद्घि हो, विकास के नाम पर परियोजनाओं और कल्याणकारी योजनाओं में फलता-फूलता भ्रष्टाचार रुके और धन की वास्तविक उपयोगिता सिद्घ हो। बड़े धन की कई योजनाओं को बिना विचार-विमर्श के लागू कर दिया गया और उनमें भारी धन फंसाकर बाद में उनमें बदलाव किया गया या उन्हें बंद कर दिया गया। राजनीतिक और प्रशासनिक स्तर पर ऐसे फैसले लेने में राजनीति का ही नतीजा है कि राजकोष का एक हिस्सा दुरूपयोग और खैरात में बंटता चला जा रहा है। इस तरह की खामियों का लाभ उठाने की कला में माहिर कुछ अफसरों कर्मचारियों राजनेताओं और धंधेबाजों का यहां एक ताकतवर गठजोड़ खड़ा है। सरकारी क्षेत्र की चीनी मिलों को सरकार बेचने जा रही है। आरोप है कि इसमें भी सौदेबाजी का दौर चल रहा है। राज्य सचिवालय के गलियारों में इनके खरीदारों की टोली आजकल टहल रही है। इससे पहले कार्यकाल में भी मायावती ने ये मिलें बेचने का फैसला किया था लेकिन विरोध के चलते तब सरकार ऐसा कर नहीं सकी थी। बसपा सरकार बनते ही फिर इन मिलों को बेचने की फाइल खुल गई है।
राज्य की सार्वजनिक वितरण प्रणाली पर नजर डालें तो उस पर माफियाओं का कब्जा है। शहरों की महंगी जमीनें राजनेताओं और नौकरशाहों की रैयत हैं। स्वयंसेवी संस्थाओं के रूप में चतुर दबंगों और संपन्न लोगों की बीवियां, बहनें, देवरानी-जेठानी और रिश्ते-नातेदार काम कर रहे हैं। सरकार में बैठे लगभग सभी यह जानते हैं कि बच्चों की पंजीरी सीधे बाजार में जा रही है और पुष्टाहार पशुओं के चारे में बिक रहा है। सरकारी विभागों में भर्तियों का मामला इतना विवादास्पद और पेंचीदा हो चुका है कि विवादों, आरोपों और जांचों से बचने के लिए नौकरशाही ने मानदेय और तदर्थ आधार पर काम चलाने का फार्मूला खोज निकाला है। आये दिन सरकार अपने नीतिगत फैसले ही बदलती रहती है। राज्य में ठेके पर खेती का फैसला और चंद रोज बाद ही रद् कर दिया गया। यह केवल एक राजनीतिक सनसनी समझी गई जिसका आम जनता में बड़ा ही खराब संदेश गया। लखनऊ में अपनी रैली में यूपी को तीन टुकड़ों में बांटने की बात कहकर मायावती पीछे हट गई। दो-दो दिन के कलक्टरों और ताबड़तोड़ तबादलों ने सरकारी जवाबदेही की गुंजाईश ही खत्म कर दी है।
पूर्ण बहुमत की सरकार के बावजूद यूपी राजनीतिक और आर्थिक अस्थिरता का सामना कर रहा है। यह अस्थिरता आंतरिक अर्थव्यवस्था पर ग्रहण साबित हो रही है। विधान सभा में विपक्ष जोर-जोर से चिल्ला रहा है कि बसपा सरकार का समग्र विकास के नाम पर ‘अपने सपने’ पूरे करने का खेल जोर शोर से शुरू हो गया है। इसमें किसी का कोई न दखल है और ना ही कोई निगरानी। पांच साल की विकास योजनाएं इन चार महीनों में ही सरकारी कंप्यूटरों की फ्लापी में बन कर लागू हो गई हैं। प्रदेश भर में गली- चौराहों पर सजे बड़े-बड़े सरकारी होर्डिंग्स, यूपी के फाइव स्टार विकास की सारी कहानी बयां कर रहे हैं। योजनाओं का प्रचार इस तरह किया जा रहा है जैसे सरकार ने ये प्रचारित कार्य पूरे कर दिये हैं। उधर आर्थिक क्षेत्र के विशेषज्ञ कह रहे हैं कि यूपी में वैट लागू हो ही गया है तो भी सरकार उससे कितनी रकम जुटा लेगी, क्योंकि सरकार का कर वसूली ढांचा पूरी तरह से ध्वस्त है। निजी क्षेत्र से परंपरागत पूंजी निवेश की संभावना दूर तक भी नहीं दिख रही है। वैसे भी इस सरकार का अब तक कोई भी फैसला ऐसा नहीं है जिससे प्रदेश में विकास का वातावरण स्थापित हुआ हो। असली बात तो यह है कि अभी मायावती और उनके कुछ खास नौकरशाहों और मंत्रियों को अपने राजनीतिक बदले चुकाने से ही फुरसत नहीं मिल रही है।
सरकार के सामने आर्थिक चुनौती काफी बड़ी और जटिल है और इस सरकार की कार्यप्रणाली देखकर नहीं लगता कि वह इसको लेकर गंभीर है। मुलायम सरकार के समय राज्य कर्मियों को भत्तों के रूप में 970 करोड़ रुपए का पैकेज देने से सरकार की आर्थिक हालत पहले से ही चिंताजनक है। अब करीब बारह हजार करोड़ रुपए की मान्यवर काशीराम समग्र विकास योजना और आ गई है। सरकार का राजस्व घाटा बहुत अधिक हो चुका है और राजकोषीय घाटा भी इससे बहुत आगे जा रहा है। राजस्व प्राप्तियों का लगभग 80 प्रतिशत भाग केवल वेतन पेंशन और ब्याज के भुगतान पर खर्च हो रहा है। वित्त विशेषज्ञों की सुनें तो आने वाले समय में आम जनता को अप्रत्याशित करों का सामना करने के लिए तैयार रहना चाहिए। क्योंकि धन के बंदरवाट से अनुदान और कर्ज देने वाली राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय संस्थाएं अब आसानी से धन देने वाली नहीं हैं क्योंकि बिना योजना बनाए और प्राथमिकता वाली विकास योजनाओं को दर किनार कर जिस प्रकार यूपी में राजकोष का दुरूपयोग सामने आ रहा है उससे आने वाले समय में यूपी को बाहर से सहायता या कर्ज का मिलना अत्यंत कठिन हो जाएगा। समझा जा रहा है कि जिस प्रकार मायावती सरकार ने केंद्र से अस्सी हजार करोड़ रुपए का पैकेज मांगा है वह पानी की तरह पैसा बहाने के चलते मिलना उतना आसान नहीं है। यूपी में धन के भारी दुरुपयोग को लेकर कांग्रेस ने मार्चा खोला हुआ है।

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