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सेतु समुंद्रम परियोजना के पीछे लिट्टे तो नहीं?

शंकर बसु

तमिलनाडु की सेतु समुंद्रम

नई दिल्ली। तमिलनाडु की सेतु समुंद्रम परियोजना एक बड़े विवाद और रहस्य का रूप धारण करने के बाद भारत की सुरक्षा के लिए एक बड़े खतरे के रूप में देखी जा रही है। भारत सरकार और भारतीय राजनेता इसको लेकर जो राजनीति कर रहे हैं, उसके केंद्र में कौन खड़ा है, इसकी पोल पट्टी खुलने लगी है। इसके नफे नुकसान के भावी खतरों को समझकर अब मुंह खुलने शुरू हो गए हैं। भारतीय तटरक्षक महानिदेशक वाइस एडमिरल आरएफ कांट्रैक्टर ने हिम्मत दिखाई है और साफ-साफ कह दिया है कि ‘सेतु समुंद्रम परियोजना भारतीय तटों और देश की सुरक्षा के लिए गंभीर खतरा है, क्योंकि यह पड़ौसी देश श्रीलंका की सीमा के बहुत नजदीक है जो गंभीर आंतरिक समस्याओं का सामना कर रहा है, अगर समुद्र का यह रास्ता मुक्त रूप से खोल दिया गया तो पायरेसी और आतंकवाद समेत तमाम तरह के समुद्री खतरों से जुड़े मुद्दों से निपटना मुश्किल हो जाएगा।
भारत के तटरक्षक बल की 31वीं वर्षगांठ पर वाइस एडमिरल की यह चिंता कई मामलों में काबिले गौर है। वह इस ओर प्रमुख रूप से इशारा करती है कि यह परियोजना किसी से प्रेरित है। इसके पलट भारत सरकार के जहाजरानी मंत्री और द्रविड़ मुन्नेत्र कषगम के नेता टीआर बालू परियोजना को आगे बढ़ाने की जिद पर अड़े हुए हैं और तर्क पर तर्क दे रहे हैं कि इस परियोजना से कोई भी खतरा नहीं है। वाइस एडमिरल के कथन से अब एक बात तो पूरी तरह स्पष्ट हो गई है कि सेतु समुंद्रम परियोजना पर भारतीय तटरक्षक महानिदेशालय और ऐसी परियोजनाओं के विशेषज्ञों को इसके व्यवहारिक पर्यावरणीय और सुरक्षा मामलों में विश्वास में लिया ही नहीं गया है। केंद्र में एनडीए की सरकार में इसके बीज पड़े और यूपीए की सरकार में इसको मंजूरी दे दी गई। ये दोनों सरकारें दक्षिण भारतीय नेताओं के प्रभाव में रहती आई हैं, जिन्होंने परियोजना और उसके विभिन्न पहलुओं की गहराई से पड़ताल नहीं की। इसलिए यह आशंका लगभग ही लगने लगी है कि इस परियोजना के पीछे कोई ऐसी ताकत खड़ी है, जिसके दबाव में ये नेता तोते की तरह बोल रहे हैं।
कुछ जानकार तो अब खुलकर नाम भी ले रहे हैं कि राम सेतु समुंद्रम परियोजना में सबसे ज्यादा जिसकी दिलचस्पी है, वह है श्रीलंका में अलगाववादी हिंसक और सशस्त्र विद्रोही संगठन लिट्टे। इसकी भारत में निर्बाध आवाजाही में ही यह समुद्री मार्ग काफी परेशानियां खड़ी किए रहता है, जिससे लिट्टे प्रमुख वी प्रभाकरन और उसके लोगों की भारत में आवाजाही जोखिम भरी रहती है। खासतौर से राजीव गांधी की हत्या के बाद से यह समुद्री रास्ता हमेशा भारतीय जल सेना की कड़ी निगरानी में रहता है, लेकिन कुछ तमिलों की प्रभाकरन से सहानुभूति होने के कारण भारतीय समुद्री सेना को इसकी कड़ी निगरानी में बहुत दिक्कत होती है। रामसेतु को तोड़ने की समुंद्रम परियोजना कोई नया प्रयास नहीं है। इसका सूत्रधार लिट्टे ही माना जाता है जो इस मार्ग को अपने अनुकूल बनाना चाहता है। सीधी बात तो यह है कि यह लिट्टे की रची हुई परियोजना कही जाती है जिसके पूरा होने पर हमेशा लिट्टे का ही कब्जा होगा। यह परियोजना श्रीलंका और तमिलनाडु के बीच उन बहुत सी बाधाओं का अंत करती है, जो कि तमिलनाडु और श्रीलंका के बीच तमिल ईलम के लिए लिट्टे की गतिविधियों और उसके प्रभाव के विस्तार को रोकती हैं। भारतीय राजनीति और केंद्र सरकार की लचर-पचर नीति एवं कमजोरी को लिट्टे अच्छी तरह से पकड़ रहा है। उसने कई प्रमुख दक्षिण भारतीय नेताओं को अपने प्रभाव में ले रखा है। यह नेता केंद्र सरकार पर अपना हमेशा दबाव बनाये रहते हैं जिनका असली फायदा मनमाने समझौतों के रूप में आतंकवादी और अलगाववादी संगठन उठाते हैं। रामसेतु परियोजना की मंजूरी भी इनमे से एक है।
वैसे भी भारत का तमिलनाडु राज्य लिट्टे के अलग तमिल देश की कल्पना का एक हिस्सा माना जाता है और अलगाववादी तमिल मद्रास को अपनी राजधानी के रूप में देखते आए हैं। इस परियोजना के रूप लेने पर भारत सरकार को एक नई समस्या का सामना करना मुश्किल हो जाएगा जो पहले से ही कश्मीर एवं देश के पूर्वोत्तर राज्यों में अलगाववादी संगठनों से जूझ रही है। सब जानते हैं कि केंद्र में एनडीए की सरकार के दौरान भी इस परियोजना को काफी प्रोत्साहन मिला है। उस दौरान डीएमके नेता एवं तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम करुणानिधि इसकी अक्सर इसकी पैरवी करते दिखाई दिए हैं। करुणानिधि इस परियोजना के लिए मुख्यमंत्री पद पर होते हुए भूखहड़ताल तक पर बैठ गए और राम के अस्तित्व को ही नकारने लगे हैं। यहां इस तथ्य पर भी गौर करना होगा कि श्रीलंका सरकार अधिकारिक और यह स्पष्ट रूप से कह चुकी है कि राम, रावण, सीता और हनुमान का अस्तित्व होने के उसके देश में पुष्ट प्रमाण हैं, मगर करुणानिधि की नज़र में ये पात्र केवल काल्पनिक हैं। लिट्टे की भविष्यकी योजनाओं में यह परियोजना सोने की चिडि़या से कम नहीं मानी जाती है। राम-राम चिल्लाने वाली तत्कालीन एनडीए सरकार ने इसके सुरक्षा पहलुओं पर कोई गौर नहीं किया लेकिन आज उसके भाजपाई नेताओं को इसमें खतरा दिखने लगा है।
भारत के पड़ोसी पाकिस्तान और श्रीलंका में काफी उथल-पुथल है। पिछले तीन दशक से श्रीलंका की सरजमीं पर एक अलग तमिल देश के लिए लगातार सशस्त्र संघर्ष कर रहे लिट्टे के प्रमुख वेलुपिल्लई प्रभाकरन की दिलचस्पी तमिलनाडु में ज्यादा ही बढ़ गई है। इसके कई कारण माने जाते हैं। एक कारण यह है कि उसके कई प्रमुख साथी उसका साथ छोड़ गए हैं जिनको संगठित करने के लिए प्रभाकरन भारत के एक हिस्से को अपने तमिल देश में मिलाने का सपना दिखा रहा है। भारत की वर्तमान सरकार सहयोगी दलों के भारी दबाव में चल रही है, जिसका इस परियोजना के रूप में लाभ उठाने का लिट्टे के पास इससे ज्यादा अच्छा मौका कोई और नहीं है।
कुछ समय से सुना जा रहा है कि प्रभाकरन अब जाफना में उतना नहीं रहता है जहां से वह अपने तमिल देश का शासन चलाता है। पिछले दिनों खबर आयी थी कि वह श्रीलंकाई सेना के हमले में बुरी तरह से घायल हो चुका है और यह पता नहीं चल रहा है कि उसकी कैसी हालत है। कुछ ने यह भी प्रचार किया कि प्रभाकरन की मौत हो चुकी है। कुछ कह रहे हैं कि वह तमिलनाडु में आकर छिप गया है। वह भारत के भूतपूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्या का मुख्य साजिशकर्ता है और भारतीय अदालत उन्हें इस मामले में सजा सुना चुकी है। लिट्टे प्रमुख प्रभाकरन के राजनीतिक प्रभाव में राजीव गांधी हत्याकांड के बाद से काफी गिरावट आयी है। लिट्टे का तो यह कहना है कि इस हत्या से कोई मतलब नहीं है और प्रभाकरन निर्दोष है लेकिन जो तथ्य और सबूत भारत सरकार के पास हैं उनसे यह मानने का कोई कारण नहीं है कि लिट्टे ने राजीव गांधी को नहीं मरवाया है।
भारत के तमिलनाडु राज्य में प्रभाकरन के समर्थक मौजूद हैं और वहां के कुछ इलाके प्रभाकरन से सहानुभूति रखते हैं। यदि राजीव गांधी न मारे गये होते तो लिट्टे को उतने विरोध का सामना नहीं करना पड़ता परंतु आज की स्थिति यह है कि भारत में लिट्टे को दूसरे राज्यों में हीन भावना से देखा जाता है। इस परियोजना से भारत सरकार के सामने कई परेशानियां खड़ी हुई हैं। यह सरकार सुप्रीम कोर्ट में एक विवादास्पद हलफनामा दाखिल करके उसे वापिस ले चुकी है। अगर वह इस परियोजना को रद करती है तो उसके दक्षिण भारतीय नेताओं के नाराज होने का खतरा है और यदि वह उसे हरी झंडी देती है तो यह निश्चित है कि भारत को एक बड़े अलगाववादी संगठन से सामना करने के लिए तैयार रहना चाहिए।

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