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'कॉम्युनिस्ट अफ़ीम' ने बर्बाद किया 'मैनचेस्टर'

कानपुर में आज मिलों पर ताले हैं और श्रमिकों के हाथ में कटोरा

कॉम्युनिज़म का बेसिक प्रिंसिपल ही यह है कि 'सब कुछ खत्म!'

Monday 4 January 2021 08:38:05 PM

गुलाब मिश्र

गुलाब मिश्र

lalimli kanpur(file photo)

एक ज़माना था, जब कानपुर की 'कपड़ा मिलें' विश्व प्रसिद्ध थीं। कानपुर को तो 'ईस्ट का मैनचेस्टर' बोला जाता था। लाल इमली जैसी विख्यात फ़ैक्ट्री के कपड़े सिम्बल ऑफ प्रेस्टीज होते थे। कानपुर में वह सब कुछ था जो एक औद्योगिक शहर में होना चाहिए। मिल का साइरन बजते ही हजारों मज़दूर साइकिल पर सवार टिफ़िन लेकर फ़ैक्टरी की ड्रेस में मिल जाते थे। बच्चे स्कूल जाते थे। पत्नियां घरेलू कार्य करतीं और इन लाखों मज़दूरों के साथ ही लाखों सेल्समैन, मैनेजर, क्लर्क सबकी रोज़ी रोटी चल रही थी, मगर आज कानपुर में मिलों पर ताले लटके हैं और श्रमिकों के हाथ में कटोरा है।
'कम्युनिस्ट' निगाहें जब कानपुर पर पड़ीं, तभी से बेड़ा गर्क हो गया। मज़दूर आठ घंटे मेहनत करे और गाड़ी से चले मालिक। ढेरों हिंसक घटनाएं हुईं। मिल मालिक तक को मारा-पीटा गया। नारा दिया गया कि 'काम के घंटे चार करो, बेकारी को दूर करो।' दलाली किसे नहीं अच्छी लगती है? ढेरों मिडल क्लास भी 'कॉम्युनिस्ट' समर्थक हो गए। मज़दूरों को आराम मिलना चाहिए मगर ये उद्योग खून चूसते हैं। कानपुर में 'कम्युनिस्ट सांसद' बनी सुभाषिनी अली। बस यही टारगेट था कम्युनिस्ट को अपना सांसद बनाने के लिए। पॉलिटिक्स करने के लिए। निशाना बना 'ईस्ट का मैनचेस्टर' कानपुर।
अंततः वह दिन आ ही गया जब कानपुर के मिल मज़दूरों को मेहनत करने से छुट्टी मिल गई। मिलों पर ताला डाल दिया गया। मिल मालिक आज से पहले शानदार गाड़ियों में घूमते हैं। उन्होंने अहमदाबाद में कारख़ाने खोल दिए। कानपुर की मिलें बंद होकर भी ज़मीन के रूपमें उन्हें (मिल मालिकों को) अरबों रुपए देंगी। उनकोफर्क नहीं पड़ा, क्योंकि मिल मालिक कभी कम्युनिस्टों के झांसे में नही आए। कानपुर के वो 8 घंटे, यूनिफॉर्म में काम करने वाला मज़दूर कम्युनिस्टों के कारण 12 घंटे रिक्शा चलाने पर विवश हो गया। सबकुछ बर्बाद। जब खुद को समझ नही थी तो कम्युनिस्टों के झांसे में क्यों आ जाते हो?
आखिर और क्या भयावह हुआ? स्कूल जाने वाले बच्चे कबाड़ बीनने लगे और वो मध्यम वर्ग जिसकी आँखों में मज़दूर को काम करता देख खून उतरता था, अधिसंख्य को जीवन में दोबारा कोई नौकरी नहीं मिली। एक बड़ी जनसंख्या ने अपना जीवन बेरोज़गार रहते हुए 'डिप्रेशन' में काटा है और काट रहे हैं। 'कॉम्युनिस्ट अफ़ीम' बहुत घातक होती है, उन्हें ही सबसे पहले मारती है, जो इसके चक्कर में पड़ते हैं..! कॉम्युनिज़म का बेसिक प्रिंसिपल यह है कि 'पहले दो क्लास के बीच अंतर दिखाना फ़िर इस अंतर की वजह से झगड़ा करवाना और फ़िर दोनों ही क्लास को ख़त्म कर देना, बना बनाया सब कुछ खत्म कर देना।' (गुलाब मिश्र की फेसबुक पोस्ट से साभार)।

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