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Saturday 31 May 2025 03:04:11 PM
नई दिल्ली। राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु को सुप्रीमकोर्ट को भेजे गए सवालों के जवाब की प्रतीक्षा है। राष्ट्रपति ने सुप्रीमकोर्ट के अधिकारों और संविधान से बाहर जाकर राष्ट्रपति को निर्देश देने को लेकर सुप्रीमकोर्ट को 14 सवाल भेजे हुए हैं, जिनका सुप्रीमकोर्ट को राष्ट्रपति को जवाब भेजना है। राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य और सुप्रीमकोर्ट की सीमा के संदर्भ में पूछे गए सवाल अत्यंत ज्वलंत और संवेदनशील हैं, जोकि देश की न्यायिक व्यवस्था की जवाबदेही और सीमा तय करेंगे। राष्ट्रपति के ज़हन में उन सवालों की उत्पत्ति तब हुई, जब सुप्रीमकोर्ट ने राष्ट्रपति को निर्देश दियाकि वे एक समयसीमा में उनके यहां लंबित मामलों को निस्तारित करें। सुप्रीमकोर्ट ने 12 अप्रैल को अपने एक फैसले में कहा थाकि राज्यपाल जो विधेयक राष्ट्रपति को भेजते हैं, उनपर उन्हें तीन महीने के भीतर फैसला लेना होगा। इसके बाद देश की सर्वोच्च अदालत के अधिकार क्षेत्र को लेकर एक बड़ी बहस शुरू हो गई है, जो सुप्रीमकोर्ट और राष्ट्रपति केबीच सवाल जवाब तक पहुंच गई है। यह मामला उस वक्त ज्यादा तूल पकड़ गया, जब 17 अप्रैल को राज्यसभा इंटर्न के एक कार्यक्रम में उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने यह कह दियाकि राष्ट्रपति को निर्देश देकर सुप्रीमकोर्ट ने अपनी सीमाएं लांघी हैं। उपराष्ट्रपति ने अपने भाषण में संविधान के अनुच्छेद 142 को घेर लिया और उसे लोकतांत्रिक ताकतों के खिलाफ 'परमाणु मिसाइल' तक कह दिया।
उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ का यह बयान देश के संविधान विशेषज्ञों, जजों, बुद्धिजीवियों बार और सामाजिक राजनीतिक क्षेत्रों में प्रमुख रूपसे गंभीर मुद्दा बना हुआ है, इसमें एक मामला और जुड़ गया है, जिसमें उपराष्ट्रपति ने एक जज के घर से बरामद बड़ी धनराशि के मामले में एफआईआर दर्ज नहीं होने पर जजों की सुचिता पर गंभीर प्रश्न खड़ा किया है। सुप्रीमकोर्ट पर कई सवाल उठ खड़े हुए हैं जैसेकि क्या सुप्रीमकोर्ट राष्ट्रपति को निर्देश दे सकता है और सुप्रीमकोर्ट और राष्ट्रपति में संविधान से किसे ज्यादा ताकत मिली हुई है? एक सवाल यह भी हैकि संसद बड़ी है या सुप्रीमकोर्ट? इन मामलों में देशके कई संविधान विशेषज्ञ, एडिशनल सॉलिसिटर जनरल, सुप्रीमकोर्ट के वकील अपनी तरह से तर्कदेकर व्याख्याएं कर रहे हैं। हाईकोर्ट और सुप्रीमकोर्ट के कुछ जजों पर अनेक मामलों में अत्यधिक सक्रियता दिखाने, संविधान से बाहर जाकर सरकारों को निर्देश देनेमें एक सीईओ की तरह एक्ट करने, देशके संवेदनशील मामलों में विवादास्पद टिप्पणियां करने और कोलेजियम के माध्यम से जजों का मनमाना चयन और समीक्षा करने जैसे विभिन्न प्लेटफॉर्मों मीडिया और सोशल मीडिया पर गंभीर प्रश्न उठते आ रहे हैं। केंद्र सरकार और राज्य सरकारों की अनेक मामलों की अपील और सुनवाई में विवादास्पद दिशानिर्देश आते रहे हैं, लेकिन अब तो सीधे राष्ट्रपति को भी निर्देश दिया जा रहा है। राष्ट्रपति को निर्देश देने का मामला सुप्रीमकोर्ट के गले की हड्डी बन गया है।
सुप्रीमकोर्ट बड़ा है या संसद, निस्तारित हो चुका एक पुराना मामला यहां प्रासंगिक है। तत्कालीन लोकसभा अध्यक्ष रवि राय के समय में भी सुप्रीमकोर्ट के अधिकार को लेकर विवाद उठा था, जिसका समाधान यह हुआ थाकि संसद ही सर्वोच्च है और सुप्रीमकोर्ट उससे कोई प्रश्न नहीं कर सकता, उसे कोई नोटिस जारी नहीं कर सकता है। मामला यह थाकि सुप्रीमकोर्ट ने किसी मामले में लोकसभा अध्यक्ष रवि राय को एक नोटिस जारी किया, इसपर यह सवाल खड़ा हुआकि लोकसभाध्यक्ष को उस नोटिस का उत्तर देना चाहिए कि नहीं और क्या सुप्रीमकोर्ट लोकसभाध्यक्ष को किसी भी विषय पर कोई नोटिस दे सकता है? लोकसभा में इसपर गंभीर विचार विमर्श हुआ और तय पाया गयाकि चूंकि संसद सुप्रीमकोर्ट से बड़ी है, लिहाजा सुप्रीमकोर्ट को उसके नोटिस का उत्तर नहीं दिया जाएगा, तभी यह भी तय हो गयाकि संसद ही सर्वोच्च है। सुप्रीमकोर्ट ने इसबार भी देश के राष्ट्रपति को निर्देश देकर कुछ वैसा ही गंभीर विवाद खड़ाकर दिया है। इसके बाद अब पुन: यह यह तय हो जाना हैकि किसके क्या अधिकार हैं और दोनों में कौन बड़ा है। राष्ट्रपति के सवालों का जवाब सुप्रीमकोर्ट की कम से कम पांच जजों की एक संवैधानिक पीठ देगी, क्योंकि ये सवाल बहुत अहम हैं, ये राष्ट्रपति और राज्यपाल के अधिकारों, उनकी भूमिका और कोर्ट की शक्तियों से जुड़े हैं।
सुप्रीमकोर्ट से राष्ट्रपति के सवाल या राय सिर्फ समयसीमा तय करने तक सीमित नहीं हैं, ये राष्ट्रपति और राज्यपाल की संवैधानिक भूमिका, उनके अधिकारों और कोर्ट की शक्तियों की सीमा से जुड़े हैं। संविधान विशेषज्ञों का कहना हैकि सुप्रीमकोर्ट को अब राष्ट्रपति के सवालों पर गहराई से विचारकर उन्हें स्पष्ट जवाब भेजना होगा। इस मामले का असर देश की संवैधानिक व्यवस्था और केंद्र राज्य संबंधों पर भी पड़ सकता है। दरअसल यहभी अक्सर देखा जाता रहा हैकि और अनुभव में आया हैकि सुप्रीमकोर्ट या हाईकोर्ट किसी मामले की सुनवाई करते समय अपवाद को छोड़कर गंभीर टिप्पणियां भी करते हैं, कोर्ट उन टिप्पणियों को संबंधित फैसलों की कार्यवाही में शामिल भी नहीं करते हैं, ये टिप्पणियां सनसनीखेज़ तरीके से मीडिया का हिस्सा बनती हैं, मामले को प्रभावित करती हैं और वादकारी को कहीं न कहीं आहत भी करती हैं। यह प्रश्न उठता हैकि कोर्ट की कोई भी टिप्पणी कार्यवाही का हिस्सा क्यों नहीं बनाई जाती है? सुप्रीमकोर्ट ने भी समय समय पर यह राय जाहिर की हैकि सुनवाई के दौरान जो टिप्पणियां की जाएं, उन्हें भी सुनवाई का हिस्सा बनाया जाए। बहरहाल राष्ट्रपति को निर्देश देने का मामला बहुत गंभीर रुख़ अख्तियार कर चुका है और राष्ट्रपति ने सुप्रीमकोर्ट से ये अहम सवाल पूछे हैं और उनका उत्तर चाहा है।
सवाल हैं-जब राज्यपाल के पास बिल आता है, तो उनके पास क्या-क्या विकल्प होते हैं? क्या बिल पर फैसला लेते वक्त राज्यपाल को मंत्रियों की सलाह माननी ही पड़ती है? क्या राज्यपाल का फैसला कोर्ट में चुनौती दी जा सकती है? क्या संविधान का अनुच्छेद 361 कहता हैकि राज्यपाल के फैसले को कोर्ट में नहीं ले जाया जा सकता? जब संविधान में कोई समय-सीमा नहीं है, तो क्या कोर्ट ये तय कर सकता हैकि राज्यपाल को कब तक फैसला लेना है? क्या राष्ट्रपति का फैसला भी कोर्ट में चुनौती दिया जा सकता है? क्या कोर्ट ये बता सकता हैकि राष्ट्रपति को बिल पर कब और कैसे फैसला लेना है? अगर राज्यपाल कोई बिल राष्ट्रपति को भेजता है, तो क्या राष्ट्रपति को सुप्रीम कोर्ट से राय लेनी पड़ती है? क्या बिल के कानून बनने से पहले कोर्ट उसमें दखल दे सकता है? क्या सुप्रीमकोर्ट अनुच्छेद 142 के तहत राष्ट्रपति या राज्यपाल के फैसले को बदल सकता है? क्या बिना राज्यपाल की मंजूरी के विधानसभा से पास बिल कानून बन सकता है? क्या संविधान कहता हैकि बड़े कानूनी सवालों को पांच जजों की बेंच को भेजना जरूरी है? क्या सुप्रीमकोर्ट अनुच्छेद 142 के तहत ऐसा आदेश दे सकता है जो संविधान या कानून के खिलाफ हो? क्या केंद्र और राज्य सरकारों केबीच झगड़े सिर्फ अनुच्छेद 131 के तहत ही सुलझाए जा सकते हैं या कोर्ट के पास और भी रास्ते हैं?
हुआ यह थाकि तमिलनाडु विधानसभा से पारित 10 विधेयकों को लंबे समय से राज्यपाल आरएन रवि की मंजूरी ना मिलने पर सुप्रीमकोर्ट ने कहा थाकि राज्यपाल द्वारा राष्ट्रपति को विचार केलिए भेजेगए विधेयकों पर तीन महीने के भीतर फैसला लेना चाहिए, अगर राष्ट्रपति फैसला नहीं लेते हैं तो इसके पीछे की जरूरी वजह बताई जानी चाहिए और ऐसा नहीं होनेपर वे विधेयक स्वत: कानून बन जाएंगे। सुप्रीमकोर्ट ने ये फैसला सुनाकर एक तरह से राष्ट्रपति को चुनौती दे दी है और इसको लेकर उपराष्ट्रपति धनखड़ ने न्यायपालिका पर जोरदार हमला किया, जिसके बाद अधिकारों को लेकर संविधान विशेषज्ञों ने बहस छिड़ी है और कुछ का अभिमत यहां तक हैकि सुप्रीमकोर्ट राष्ट्रपति को निर्देश दे सकता है, लेकिन कुछ का यह स्पष्ट मत हैकि सुप्रीमकोर्ट संसद और राष्ट्रपति के ऊपर नहीं है। उपराष्ट्रपति का स्पष्ट अभिमत हैकि सुप्रीमकोर्ट ने अपनी सीमाएं लांघी हैं। उन्होंने यहांतक कहाकि हमने लोकतंत्र में इसदिन की कभी कल्पना नहीं की थीकि राष्ट्रपति से डेडलाइन के तहत फैसले लेने केलिए कहा जाएगा और अगर ऐसा नहीं होता है तो वह विधेयक कानून बन जाएगा। उपराष्ट्रपति कहते हैंकि मेरी चिंताएं बहुत अधिक हैं, मैंने कभी नहीं सोचा थाकि मेरे जीवन में मुझे ऐसा भी देखने को मिलेगा। उनका कहना हैकि भारत के राष्ट्रपति बहुत ऊंचे दर्जे के प्रथम नागरिक होते हैं, जो संविधान की रक्षा, सुरक्षा और बचाव की शपथ लेते हैं, यह शपथ केवल राष्ट्रपति और उनके द्वारा नियुक्त राज्यपाल ही लेते हैं, जबकि प्रधानमंत्री, उपराष्ट्रपति, मंत्री, सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश भी संविधान का पालन करने की शपथ लेते हैं, लेकिन संविधान की रक्षा करने की शपथ सिर्फ राष्ट्रपति ही लेते हैं, क्या सर्वोच्च अदालत ‘सुपर संसद’ है?