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'वैज्ञानिक तनाव सहिष्णु फसलें विकसित करें '

एनबीआरआई का अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन

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एनबीआरआई अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन-nbri international conference

लखनऊ। पौधे एवं पर्यावरण प्रदूषण विषय पर बुधवार को राष्ट्रीय वनस्पति अनुसंधान संस्थान में चतुर्थ अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन में सीमैप के निदेशक और प्रख्यात वैज्ञानिक प्रोफेसर राम राजशेखरन ने कहा है कि चीन विश्व में ग्रीन हाउस गैसों को उत्सर्जित करने वाला सबसे बड़ा देश है, तापमान में 2 प्रतिशत की वृद्धि से चावल के उत्पादन में 25 प्रतिशत की कमी हो जायेगी। उन्होंने यह भी कहा कि भारत में फसलों के ज्यादातर हिस्सों में फसल की उपज वर्षा पर निर्भर है, प्रतिकूल मौसम की परिस्थितियों में तनाव की स्थिति आ जाती है, इसलिए इस समस्या के समाधान के लिए तनाव सहिष्णु फसलें विकसित करना वैज्ञानिकों का उद्देश्य है।

अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन का उद्घाटन प्रोफेसर राम राजशेखरन ने किया और डॉ चन्द्रशेखर नौटियाल निदेशक रावअसं ने सम्मेलन की अध्यक्षता की। भूतपूर्व निदेशक डॉ पीवी साने और अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन के संस्थापक डॉ केजे अहमद के अतिरिक्त देश-विदेश से आये लगभग 550 प्रतिनिधि मौजूद थे। सम्मेलन का मुख्य उद्देश्य पर्यावरण संरक्षण, जैव विविधता संरक्षण और प्रदूषण को कम करने में पौधों की भूमिका पर चर्चा और उनके उपाय ढूंढना है।

डॉ केजे अहमद ने प्रतिनिधियों को स्वागत करते हुए सम्मेलन के उद्देश्य पर प्रकाश डाला और बताया कि पर्यावरण संरक्षण, जैव विविधता संरक्षण, प्रदूषण में कमी को सतत विकास में पौधों की भूमिका पर चर्चा इस सम्मेलन का मुख्य उद्देश्य है। डॉ चन्द्रशेखर नौटियाल ने अपने अध्यक्षीय सम्बोधन में कहा कि मानव की गतिविधियों से वातावरण में कार्बनडाई ऑक्साइड की तेजी से बढ़ोत्तरी हुई है जिससे फसल उत्पादन में तो बढ़ोत्तरी हो सकती है लेकिन ग्लोबल वार्मिंग के नकारात्मक प्रभाव ने इस सकारात्मक प्रभाव को क्षीण कर दिया है।

उन्होंने कहा कि 2050 तक कार्बनडाई ऑक्साइड का स्तर 1.8 प्रतिशत तक बढ़ सकता है। तापमान में वृद्धि का मिट्टी वहन जीवाणुओं के विकास में प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है, जिसके कारण मिट्टी की गुणवत्ता पर भी बुरा प्रभाव पड़ने लगा है, परिणामस्वरूप बंजर भूमि का विस्तार बढ़ता जा रहा है। उन्होंने कहा कि देश बंजर भूमि के कारण लगभग 2850 करोड़ का नुकसान वहन कर रहा है। दूसरी ओर तापमान में 1 डिग्री सेल्सियस तक की वृद्धि के परिणामस्वरूप देश में गेहूं के उत्पादन में 680 लाख टन प्रतिवर्ष उपज का नुकसान अनुमानित है। भूतपूर्व निदेशक और सोसाइटी के संस्थापक अध्यक्ष डॉ पीवी साने ने भारी संख्या में अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन में प्रतिनिधियों के भाग लेने पर खुशी जाहिर की।

प्रोफेसर राजशेखरन ने अपने की-नोट सम्बोधन में जलवायु परिवर्तन और इसके कारण पौधों की जैव रासायनिक प्रतिक्रियाओं पर व्याख्यान दिया। उन्होंने कहा कि पादप कोशिकाओं की झिल्ली की संरचना में इस तनाव का सबसे पहले प्रभाव पड़ता है जिसके कारण कई शारीरिक और जैव रासायनिक परिवर्तन होते हैं। उन्होंने इस तरह के तनाव के जिम्मेदार इन्जाइम की खोज के विषय में प्रकाश डाला। संयुक्त राज्य अमेरिका से आये मीनोसोटा विश्वविघालय के प्रोफेसर सागर क्रूपा ने वायु गुणवत्ता, जलवायु और ग्लोबल वार्मिंग पर अपना व्याख्यान दिया। प्रोफेसर क्रूपा ने कहा कि मानव गतिविधियों के कारण सन् 1800 से ट्रोपोस्फेयर में गैसों की बढ़ोत्तरी हुई है, ये भी तथ्य मौजूद हैं कि पिछली सहस्त्राब्दी में औसत वैश्विक तापमान में 0.7 डिग्री सेल्सियस तक की वृद्धि हुई है जो कि अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर अत्यन्त चिंता का विषय है।

उन्होंने कहा कि ग्लोबल वार्मिंग का मुख्य कारण मानव जनित कार्बनडाई ऑक्साइड का उत्सर्जन है और विश्व स्तर पर इसको कम करने के प्रयास किये जा रहे हैं। कार्बनडाई ऑक्साइड के अतिरिक्त मीथेन, नाइट्रस ऑक्साइड भी ग्लोबल वार्मिंग में योगदान करते हैं। इसके अधिक महत्वपूर्ण यह है कि जल वाष्प वातावरण की वार्मिंग में 60 प्रतिशत तक योगदान करता है जिसे प्रभावी ढंग से नियंत्रित भी नहीं किया जा सकता। उन्होंने कहा कि सन् 1800 से वातावरण में कार्बनडाई ऑक्साइड का स्तर 280 पीपीएम से बढ़कर 286 पीपीएम हो गया है। इसके अलावा वातावरणीय प्रभाव और तापमान में वृद्धि के कारण कम ऊंचाई पर उगने वाले पेड़ अधिक ऊंचाई पर स्थानान्तरित हो जाते हैं।

एनबीआरआई के पूर्व निदेशक और एआईएचबीटीडी के महानिदेशक डॉ पी पुष्पांगदन ने जैव विविधता पर जलवायु परिवर्तन का औषधीय पौधों के विशेष संदर्भ में व्याख्यान में कहा कि मौसमी परिस्थितियों के बदलाव के कारण औषधीय पौधों के उपापचयजों (मेटाबोलाइटस) के उत्पादन पर गहरा प्रभाव पड़ता है। उन्होंने कहा कि हाल के अनुसंधानों से पता चला है कि परिवर्तनीय जलवायु के कारण प्रभावित पौधों की जीनोमिक अभिव्यक्ति में बुरा प्रभाव पड़ा जिसके कारण उपयोगी द्वितीयक उपापचयज का उत्पादन प्रभावित हुआ। जलवायु परिवर्तन से पौधों के ध्रुवों (पोल्स) में प्रवास के कारण कई बहुमूल्य औषधीय प्रजातियां विलुप्त हो सकती हैं।

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