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अलगाववादी साझा संस्कृति से शिक्षा लें-अशोक जमनानी

उदयपुर में अपनी माटी के तीन वर्ष पूरे होने पर विचार संगोष्ठी

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Thursday 21 February 2013 07:52:56 AM

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उदयपुर। विभिन्न संस्कृतियां नदियों के किनारे फलती-फूलती हैं, लेकिन राजस्थान में मांगनियार संस्कृति जैसलमेर के रेतीले मरुस्थल में फली-फूली है। आज के दौर में जहां अलगाव की संस्कृति फल-फूल रही है, वहां कितनी महत्वपूर्ण बात है कि मंगनियार, मजहब से मुस्लिम होकर भी आदिकाल से राजशाही पर आश्रित हैं और उनके और हिंदू राजपूतों के बीच साझा रूप में एक संस्कृति है। किसी हिंदू राजा के संतान के जन्म पर पहला झूला झुलाने का अवसर मुस्लिम मांगनियार को है, यही नहीं पहली दक्षिणा भी ब्राह्मण के बजाए मांगनियार को दी जाती है। ये हमारे सांप्रदायिक सौहार्द की मिसालें हैं। ये बातें लेखक, कवि और उपन्यासकार अशोक जमनानी ने अपनी माटी ई-मैगज़ीन और डॉ मोहन सिंह मेहता मेमोरियल ट्रस्ट के संयुक्त तत्वावधान में 19 फरवरी की शाम उदयपुर में आयोजित संस्कृति को साहित्य की विषय वस्तु होना चाहिए विषय पर अपने व्याख्यान में कही।
जमनानी ने अपने नवीनतम उपन्यास खम्मा का उल्लेख करते हुए कहा कि मांगनियार संस्कृति ने रेगिस्तान में रंग भरे हैं, आज के उदारीकरण के दौर में संस्कृति को नए तरीके से प्रस्तुत किया जा रहा है, आज की संस्कृति बाज़ारवाद की संस्कृति बन बैठी है, फिल्म संगीत ने लोक गीतों की हत्या कर दी है, खम्मा उपन्यास कहता है कि लोक गीत बचेंगे तो संस्कृति बचेगी, उपन्यास लेखक की और से एक क्षमा है। उन्होंने कहा कि देश की तरक्की होनी चाहिए, किंतु इसके साथ ही संस्कृति का संरक्षण भी होना चाहिए, संस्कृतियों को समाज बनाता है, संस्कृतियां समाज में ही फलती-फूलती हैं, बाज़ारवाद के बढ़ते प्रभाव के मध्य संस्कृति को बचाना समाज और देशके सामने एक चुनौती है। उपन्यास पर टिपण्णी जारी रखते हुए अशोक जमानानी ने कहा कि यह पुस्तक एक पैग़ाम है, जो बताती है कि दलितों को मुख्यधारा में कैसे लाया जाए। यहां ये बात गौरतलब है कि सदियों तक दलितों का हुआ शोषण संस्कृति नहीं वरन सामाजिक विकृति ही थी।
सामाजिक कार्यकर्ता शांति लाल भंडारी ने कहा की संस्कृति के संरक्षण में सरकार की भूमिका महत्वपूर्ण होनी चाहिए। डॉ श्रीराम आर्य ने कहा की संस्कृति पर विमर्श करते वक़्त दलित साहित्य पर भी गौर करने की जरुरत है। कवियत्री और तनिमा की संस्थापक शकुंतला सरुपुरिया ने कहा कि आधुनिकीकरण के नाम पर संस्कृति का भोंडा प्रदर्शन रुकना चाहिए, हमारी विरासत के लोकपक्ष को आर्थिक रूप से मजबूत वर्ग मनमाफिक ढंग से तोड़-मरोड़ रहा है, जो सख्त रूप से गलत है। जैसलमेर के डॉ रघुनाथ शर्मा ने कहा की जैसलमेर में लोक गायकी की इस संस्कृति का होना संघर्षों का परिणाम है, इसके संरक्षण में संपूर्ण समाज का योगदान है। शिक्षक नेता भंवर सेठ ने कहा कि साहित्य की रचना हमारे समाज को आर्थिक और सामाजिक रूप से बराबरी पर लाने के हित में होनी चाहिए। प्रौढ़ शिक्षाविद् सुशील दशोरा ने कहा कि वर्तमान में परिवारों का विघटन संस्कृति के संवर्धन में बड़ी बाधा है। राजस्थानी मोट्यार परिषद् के शिवदान सिंह जोलावास ने कहा की खम्मा एक सामंतवादी शब्द नहीं, वरन भाषा की दृष्टि से ख शब्द में क्ष का अपभ्रंश है, अतः ये क्षमा शब्द है।
व्याख्यान का संयोजन करते हुए ट्रस्ट सचिव नंद किशोर शर्मा ने कहा कि बाज़ार का ध्येय लाभ होता है, इससे साहित्य या समाज सेवा की अपेक्षा करना सही नहीं होगा। प्रारंभ में अपनी माटी के संस्थापक माणिक ने उपन्यासकार अशोक जमनानी का स्वागत करते हुए उनका परिचय दिया और कहा कि साहित्य में पाठकीयता को बढ़ाने के सार्थक प्रयास किए जाने चाहिएं, इसके लिए रचनाकारों को भी विशुद्ध रूप से बौद्धिकता को अपनी रचनाओं में सीधे तरीके से उकेरने के बजाय, गुंथे हुए रूप में रचना करनी चाहिए, इससे आमजन को रचनाएं ज़रूर रचेगी।
व्याख्यान की अध्यक्षता करते हुए प्रोफेसर अरुण चतुर्वेदी ने कहा कि इन दिनों विचारों को लेकर सहिष्णुता का अभाव है, बहुलवादी समाज में सहिष्णुता का आभाव बहुत सारी परेशानियों को जन्म देता है। बाज़ारवाद का बढ़ता प्रभाव विघटनकारी वृतियों को जन्म देता है। व्याख्यान में गांधी मानव कल्याण समिति के मदन नागदा, आस्था के अश्विनी पालीवाल, सेवा मंदिर के हरीश अहारी, समता संदेश के संपादक हिम्मत सेठ, महावीर इंटर नेशनल के एनएस खिमेसरा, विख्यात रंग कर्मी शिवराज सोनवाल, शिबली खान, अब्दुल अज़ीज़, हाजी सरदार मोहम्मद, एआर खान, लालदास पर्जन्य, घनश्याम जोशी सहित कई प्रमुख नागरिकों ने प्रश्नोत्तर और आपसी संवाद में भाग लिया।

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