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आरक्षण का बेताल फिर डाल पर

सियाराम पांडेय शांत

आरक्षण का बेताल फिर डाल पर है। कांग्रेस जहां संसद में महिला आरक्षण विधेयक लाने की बात कर चुकी है वहीं इसकी मुखालफत के राजनीतिक स्वर भी मुखर हो गए हैं। शरद यादव ने तो यहां तक कह दिया कि अगर ऐसा हुआ तो वे जहर खा लेंगे। यह अलग बात है कि उन्हें अपनी गलती का अहसास भी अतिशीघ्र हो गया और उन्होंने पत्रकारों पर अपनी बात को तोड़ मरोड़कर पेश करने का आरोप जड़ दिया, लेकिन इसके साथ ही वे यह कहने से भी नहीं चूके कि मौजूदा स्वरूप में महिला आरक्षण विधेयक उन्हें सहज स्वीकार्य नहीं है। समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव पहले ही महिला बिल पर अपनी आपत्ति जता चुके हैं। भाजपा नेत्री सुषमा स्वराज इसकी प्रबल समर्थक हैं, लेकिन विभाजित महिला आरक्षण उन्हें स्वीकार नहीं है। बात यहीं तक होती तो भी गनीमत थी, लेकिन अब तो लोकजनशक्ति पार्टी के मुखिया रामविलास पासवान भी महिला आरक्षण के विरोध में आवाज बुलंद करने लगे हैं। उनका कहना है कि आरक्षण का लाभ जब तक अल्पसंख्यकों, पिछड़ों और दलित महिलाओं को नहीं मिलता, इस बिल का समर्थन करने का सवाल ही नहीं उठता। लालू प्रसाद यादव पहले से ही इसके विरोध का झंडा ऊंचा किए हुए हैं।
बात
यहीं तक नहीं है, यहां तो जातिगत राजनीति के हर कुएं में आरक्षण की भांग पड़ी हुई है। कांग्रेस सांसद सलमान खुर्शीद ने अगर मुसलमानों के लिए अलग से आरक्षण की मांग उठा दी है तो ईसाइयों को भी आरक्षण देने की मांग बुलंद होती रही है। जैन धर्म से जुड़े लोगों को भी आरक्षण देने की मांग उठ ही चुकी है। गुर्जरों को आरक्षण देने की मांग भी एक बार फिर जोर पकड़ने लगी है। सर्वोच्च न्यायालय की व्यवस्था पर विचार किया जाए तो अब किसी को भी किसी तरह का आरक्षण लाभ मिलना मुमकिन नहीं है, लेकिन आरक्षण के अलंबरदारों की समझ में यह बात आती ही नहीं है। यह अलग बात है कि भाजपा और संघ परिवार हमेशा जातीय और धार्मिक आधार पर आरक्षण दिए जाने का विरोध करता रहा है।
गुर्जर
आरक्षण का बेताल एक बार फिर डाल पर आने को तैयार है। भरतपुर जिले की बयाना तहसील के गांव मेहरावर में गुर्जर आरक्षण संघर्ष समिति के संयोजक कर्नल किरोड़ी सिंह बैंसला की महापंचायत को कमोवेश इसी रूप में देखा जा सकता है। वसुंधरा राजे सरकार की नींव हिलाने वाले इस आंदोलन की चेतावनी मात्र से कांग्रेस सकते में आ गई है। अगर यह कहा जाए कि मौजूदा अशोक गहलोत सरकार पर दबाव बनना शुरू हो गया है तो शायद यह गलत नहीं होगा।
इस
बार गुर्जर आंदोलन खड़ा करने के मामले में दूध की जली बिल्ली की मानिंद हर कदम फूंक- फूंक कर उठाया जा रहा है और कोशिश यह की जा रही है कि सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे । मतलब आंदोलन की नौबत ही न आए और आरक्षण भी मिल जाए। लेकिन हर्र लगै न फिटकिरी, रंग चोखा होय का यह प्रयोग लगता नहीं कि बहुत आसानी से सफल हो जाएगा। इसमें शक नहीं कि पिछले आंदोलनों ने एक तरह से गुर्जर समाज को भीतर तक तोड़ कर रख दिया है। ऐसे में उन्हें एकबारगी पुनश्च आंदोलन के लिए तैयार कर पाना अपने आप में बड़ी चुनौती तो है ही। गुर्जर राजनीति के लंबरदार भले ही सरकार को बड़े आंदोलन की चेतावनी दे रहे हों लेकिन इस सच से वे भी बहुत हद तक वाकिफ हैं कि इस बार उनकी दाल सहजता से गलने वाली नहीं है। सत्ता केंद्र को नजरंदाज कर किए गए आंदोलन के प्रतिगामी परिणाम बरबस ही उनकी आंखों के सामने कौंध उठते हैं। ऐसे में नहीं लगता कि वे विरोध की ओखली में सिर डालने से पहले सौ बार नहीं सोचेंगे।
पिछले
आंदोलनों में जिनके परिजन मारे जा चुके हैं या फिर जिनके परिजन संप्रति जेल की हवा खा रहे हैं, क्या वे आरक्षण लेने के लिए फिर आंदोलन का साहस जुटा पाएंगे। यह एक ऐसा आंदोलन था जिसने देश की सबसे बड़ी अदालत तक को राष्ट्रीय शर्म जैसी प्रतिकूल टिप्पणी करने के लिए विवश कर दिया था और उत्तर प्रदेश, हरियाणा, राजस्थान व दिल्ली के पुलिस महानिदेशकों को हलफनामा पेश करने को कहा था। चोपड़ा आयोग की रिपोर्ट को गुर्जर नेताओं ने मानने से इनकार कर दिया था और वे समाज को अनुसूचित जनजाति में शामिल करने से कम पर तैयार नहीं थे, जबकि मीणा समुदाय इसके लिए तैयार नहीं है। उसका मानना है कि अगर गुर्जरों को अनुसूचित जनजाति में शामिल किया जाता है, तो यह उनके अपने हक के अनुकूल नहीं होगा। वे आरक्षण में किसी भी तरह के विभाजन के पक्षधर नहीं हैं। पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे सिंधिया ने चुनाव के दौरान गुर्जरों में जो आशादीप जलाया था, कालांतर में वही उनके लिए परेशानी का सबब बन गया और इसकी कीमत उन्हें सत्ताच्युत होकर उठानी पड़ी।
कांग्रेस
किसी भी रूप में वसुंधरा राजे जैसी गलती नहीं करना चाहेगी। वह मामले को राज्यपाल के विवेक पर छोड़कर ही यथास्थितिवादी बने रहना पसंद करेगी, क्योंकि गुर्जरों को राहत देने से उसे मीणा समाज का प्रतिरोध भी झेलना पड़ सकता है। यह अलग बात है कि 6 जून,2008 को जयपुर में मीणा और गुर्जर समाज के नेताओं के बीच तत्कालीन भाजपा सरकार समझौता करा चुकी थी लेकिन मौजूदा परिस्थितियों में जब राज्य का निजाम भी बदल चुका है, यह कितना कारगर होगा, ये तो वक्त ही तय करेगा, गुर्जरों की महापंचायत में उठने वाले स्वर मीणा समुदाय को कितने पसंद आए होंगे, इसकी कल्पना भी सहज ही की जा सकती है। महापंचायत में एक बात शिद्दत से कही गई है कि जिन जातियों को अभी तक आरक्षण सुविधा मिलती रही है, उनकी जगह आरक्षण लाभ से वंचित जातियों को इसका लाभ दिया जाना चाहिए। जाहिरा तौर पर वक्ताओं का इशारा मीणा समुदाय की ओर ही हो सकता है। मधुकर जेहि अंबुज रस चाख्यो क्यों करील फल भावै। जिन किन्हीं जातियों को आरक्षण लाभ मिल रहा है, वे अपने सामने की थाली गुर्जरों या उन सरीखी आरक्षण लाभ से वंचित अन्य जातियों के सामने क्यों परोस देंगी। रही बात गुर्जरों को अनुसूचित जाति में शामिल करने और तदनुरूप उन्हें पांच प्रतिशत आरक्षण लाभ देने की तो इस बावत पिछली वसुंधरा राजे सरकार ने पहले ही विधेयक पारित कर रखा है। मामला केवल राज्यपाल की स्वीकृति पर लटका है।
किरोड़ी
सिंह बैंसला ने तो यहां तक कहा है कि अगर गुर्जर समाज को अनुसूचित जाति में शामिल करते हुए पांच प्रतिशत आरक्षण नहीं दिया गया तो वे ऐसा आंदोलन करेंगे कि सारी दुनिया देखेगी। वर्ष 2007 और 2008 में आंदोलन के नाम पर जो कुछ भी हुआ,उसने राजस्थान, हरियाणा, उत्तरप्रदेश और दिल्ली तक की नाक में दम कर दिया था। कई राज्यों में जनजीवन अस्त-व्यस्त हो गया था। आंदोलन से सर्वाधिक नुकसान रेल और सड़क परिवहन सेवाओं को हुआ था। यही नहीं, आंदोलन के दो सालों में 70 से अधिक आंदोलनकारी पुलिस फायरिंग और मीणा समुदाय से हुए संघर्ष की भेंट चढ़ गए थे।
गुर्जरों
का आरक्षण संबंधी आंदोलन इस बार कितना सफल होगा, यह तो नहीं कहा जा सकता लेकिन इतना तय है कि इस आंदोलन के मुखिया कर्नल किरोड़ी सिंह बैंसला पर भी राजनीति करने के आरोप लगने लगे हैं। पूर्व विधायक गोपीनाथ गुर्जर ने कह दिया है कि आंदोलन के दौरान बैंसला ने कहा था कि वे राजनीति करने के पक्षधर नहीं हैं, लेकिन भाजपा के टिकट पर चुनाव लड़कर उन्होंने एक तरह से समाज का विश्वास खो दिया है। एक अन्य पूर्व विधायक प्रह्लाद गुंजल की मानें तो पिछले दो आंदोलनों में गुर्जर समाज के 70 लोगों की मौत हो चुकी है। इसलिए समाज के लोग आरक्षण को लेकर होने वाली किसी भी पंचायत से दूर रहने की कोशिश करेंगे। बैंसला ने गुर्जरों को अनुसूचित जनजाति का दर्जा दिये जाने की मांग को एक बार फिर हवा दे दी है और राजस्थान सरकार से इस जाति के अलावा कुछ और जातियों को भी अति पिछड़ा मानकर पांच प्रतिशत विशेष आरक्षण देने की मांग की है। उन्होंने सरकार पर दबाव बनाने और गुर्जरों को आरक्षण दिलवाने के लिए 11 सदस्यीय कोर कमेटी गठित करने की भी घोषणा कर दी है।

इस महापंचायत को बहुआयामी बनाने के लिए बैंसला ने सभी जातियों के प्रतिनिधियों को आमंत्रित किया था। जिसमें पूर्व सांसद विश्वेन्द्र सिंह और जम्मू कश्मीर के कमर रब्बानी सहित अनेक लोग शामिल रहे। बैंसला की इस राय में दम है कि यदि राज्य सरकार यह समझती है कि विधेयक में कोई खामी रह गई है तो वह विधानसभा के अगले सत्र में संशोधित विधेयक पारित कराए अन्यथा हमें आंदोलन के लिये विवश होना पडे़गा। इस कार्य के लिये गठित कोर कमेटी मुख्यमंत्री से समय लेकर मिलेगी और आरक्षण सुविधा लागू करने की मांग करेगी। उन्होंने 2010 में आरक्षण की समीक्षा के बारे में गहन चिंतन की जरूरत पर भी बल दिया है। बात केवल आरक्षण तक ही सीमित नहीं है। पिछली बार हुए आंदोलन से संबंधित मुकदमे वापस लेने और जेलों में बंद गुर्जरों की रिहाई का मामला भी समाज में अंदरखाने ज्वालामुखी की शक्ल ले रहा है और यह दबाव बैंसला जैसे नेताओं के गले की हड्डी बना हुआ है। कांग्रेस यह भी जानती है कि किस तरह गुर्जर समाज के लोगों ने पुलिस फायरिंग में मारे गए आंदोलनकारियों के शवों को सड़क पर रखकर प्रदर्शन किया था। बीस आंदोलनकारियों के शव तो कांग्रेस नेता सचिन पायलट और अवतार सिंह भड़ाना की उपस्थिति में ही जलाए गए थे। यह जानते हुए भी कांग्रेस कोई बड़ा रिस्क लेगी, इसकी कल्पना तो नहीं ही की जा सकती।
ऐसा
नहीं कि वसुंधरा राजे सिंधिया ने गुर्जरों के पिछड़ेपन को दूर करने की दिशा में कोई पहल न की थी। उन्होंने इसके लिए बाकायदा रामदास अग्रवाल की अध्यक्षता में चार सदस्यीय कमेटी भी बनाई थी। यही नहीं वसुंधरा राजे सिंधिया ने अन्य राज्यों के मुख्यमंत्रियों की बैठक बुलाने और गुर्जरों को अनुसूचित जनजाति के तहत आरक्षण देने संबंधी समस्या का समाधान निकालने का भी प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से आग्रह किया था।
पूर्व
सांसद विश्वेंद्र सिंह भी चाहते हैं कि आंदोलन की बजाए मिल बैठकर आरक्षण संबंधी विसंगति को दूर किया जाए। आंदोलन ने पहले ही समाज के होनहार युवकों की जान ले ली है। इस बार के आंदोलन में ऐसा कुछ नहीं होगा, यह कहा भी कैसे जा सकता है। महापंचायत में आरक्षण सुविधा खत्म करने और जाति धर्म की अपेक्षा आर्थिक आधार पर आरक्षण देने की बात भी प्रमुखता से उठी। वक्ताओं का यह भी कहना था कि जो जातियां आरक्षण का लाभ ले चुकी हैं उनकी जगह अब तक वंचित लोगों को इसका लाभ मिलना चाहिए। विचार तो अच्छा है लेकिन यह आरक्षण पा रही जातियों को स्वीकार्य होगी, या नहीं ,यह तो भविष्य के गर्भ में है लेकिन अगर वसुंधरा सरकार में मंत्री रहे किरोड़ी लाल मीणा की राय जिसमें उन्होंने कहा था कि मीणा समुदाय किसी भी सूरत में आरक्षण का विस्तार स्वीकार नहीं करेगा, पर मंथन किया जाए तो यह मामला किसी जलेबीपेंच से कम नहीं नजर आता। अब गेंद राज्य की कांग्रेस सरकार के पाले में है कि वह इस मुद्दे को किस रूप में लेती है। (लेखक अमर उजाला लखनऊ में मुख्य उपसंपादक हैं।)

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