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भारत इस सांप्रदायिकता से कैसे निपटे?

आरएल फ्रांसिस

सांप्रदायिक हिंसा-communal violence

नई दिल्ली। इसी चौबीस अगस्त को कंधमाल के सांप्रदायिक दंगों को चार वर्ष पूरे हो गए, पर लगता है कि इन चार वर्ष में हमने कुछ भी नहीं सीखा। उत्तर प्रदेश में बरेली, आगरा, लखनऊ, इलाहाबाद या उत्तर पूर्व की घटनाएं यही बताती हैं। सांप्रदायिकता चाहे कैसी भी हो वह अंततः राष्ट्रविरोधी ही होती है। वह एक धर्म के अनुयायियों को दूसरे धर्म के अनुयायियों के विरुद्ध खड़ा करने और राष्ट्र की एकता की जड़ों को खोदने का काम करती है। धार्मिक कट्टरवाद पर अधारित हिंसा को बढ़ाने के लिए सांप्रदायिक सोच ही जिम्मेदार है। भारतीय समाज और राजनीति में सांप्रदायिकता की जड़े पिछले डेड दो सौ सालों से बहूत मजबूत हुई हैं और इसी के चलते 1947 का देश विभाजन इसकी सबसे बड़ी त्रासदी थी।
सांप्रदायिकता ने आधुनिक भारत के धार्मिक इतिहास को आकार देने में एक महत्वपूर्ण रोल अदा किया है। ब्रिटिश राज की ‘फूट डालो और राज करो’ नीति के कारण ही देश धर्म के आधार पर दो राष्ट्रों में विभाजित कर दिया गया-मुस्लिम बाहुल्य वाला पाकिस्तान, जिसमें वर्तमान का इस्लामिक पाकिस्तान एवं बंगलादेश शामिल हैं। विभाजन के समय इतने बड़े पैमाने पर आबादी की अदला-बदली (1 करोड़ 20 लाख) हुई, जिससे भीषण और व्यापक जनसंहार हुआ। शायद दुनिया के किसी देश में विभाजन के समय इतना व्यापक जनसंहार नहीं हुआ होगा। हालॉकि भारत का गणतंत्र धर्मनिरपेक्ष है और इसकी सरकार किसी धर्म को आधिकारिक रुप से मान्यता प्रदान नहीं करती है, इसके बावजूद भारत विभाजन ने पंजाब, बंगाल, दिल्ली तथा देश के कई अन्य हिस्सों में हिंदुओं, मुसलमानों तथा सिखों के बीच दंगों, मारकाट और सांप्रदायिता का ऐसा बीज बो दिया, जिसे पनपने से रोकने के, किसी भी राजनीतिक नेतृत्व ने प्रयास ही नही किए।
आजाद भारत में एक दशक बाद ही साल 1961 में मध्य प्रदेश के जबलपुर शहर को सांप्रदायिक दंगों ने जकड़ लिया था, इसके बाद से अब तक न जाने कितने ही सांप्रदायिक दंगे हो चुके हैं। वर्ष 1969 में गुजरात के दंगे हों या 1984 में सिख विरोधी हिंसा, 1987 में मरेठ शहर में दंगा हो, जो दो महीने तक चलता रहा, जिसमें कई निर्दोष लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी। वर्ष 1989 में भागलपुर का दंगा या 1992-93 में यूपी में दंगे हुए, बड़ी ही जान-माल की क्षाति उठानी पड़ी। वर्ष 2002 के गुजरात दंगे और 2008 में कंधमाल की हिंसा या अभी पिछले एक महीने से सुलग रहे यूपी के कई इलाके या फिर असम में सांप्रदायिक हिंसा को देख लें, जिसमें लाखों लोग बेघर हो गए हैं।
सांप्रदायिक दंगों के कारण मानवता को इतना गहरा आघात लगता है कि उससे उबरने के लिए कई-कई दशक लग जाते हैं। दंगों की चपेट में आए परिवारों का सब कुछ तहस नहस हो जाता है। रोजी-रोटी की समस्या अलग से खड़ी हो जाती है। कंधमाल में चार साल पहले हुए दंगो में हजारों घर जला दिये गए। यह सांप्रदायिक दंगे ईसाइयों और गैर ईसाई आदिवासियों के बीच हुए थे। दोनों ही वर्गों को जान-माल का भारी नुकसान उठाना पड़ा। विदेशी लेखक माइकल पारकर ने अपनी पुस्तक ‘हारविस्ट ऑफ हेट-कंधमाल इन क्रास फायर’ में इन दंगों के बाद लोगों के सामने खड़ी कठिनाइयों और दंगा भड़कने के कारणों का जिक्र किया है।
सांप्रदायिक हिंसा के पीड़ितों के लिए न्याय पाना और जीवन को दोबारा पटरी पर लाना बेहद कठिन होता है। सरकार एवं सरकारी मशीनरी के लोग, मारे गए लोगों और हुए नुकसान की भरपाई के लिए मामूली मुआवजा देकर मामले से पीछा छुड़ा लेते हैं, इसके बाद पीड़ितों का शोक-गीत सुनने वाला कोई नही होता। कंधमाल के ईसाई इस मामले में थोड़े खुशनसीब निकले कि चर्च ने उनका जीवन दोबारा पटरी पर लाने के लिए राहत और पुर्नवास पर करोड़ों रुपये खर्च किये हैं। सरकारी बीस से पचास हजार की मदद के इलावा चर्च ने अपनी तरफ से तीस हजार रुपये प्रत्येक ईसाई परिवार को मुहैया करवाए है। कंधमाल हिंसा में पीड़ित ईसाई परिवारों के नाम पर चर्च संगठनों ने विश्व के कई देशों से अनुदान भी प्राप्त किए। कैथोलिक ले-मैन ने मांग की है कि प्रत्येक चर्च-कैथोलिक, प्रोस्टेंट, इवैंजेंलिक और पेंटीकॉस्ट को कंधमाल में 2007 से अब तक किये गए खर्च का ब्योरा तैयार करने की जरुरत है।
जाहिर है कि आर्थिक मदद करने वाली एजेंसियां और देश और दुनिया भर के लोग यह जानना चाहेंगे कि उनके दान किए धन से पीड़ितों को कितना लाभ हुआ। उल्लेखनीय है कि इन चर्चो ने दुनिया भर के ईसाई देशों से कंधमाल पीड़ितों के नाम पर जमा धन का आज तक कोई लेखा-जोखा देश के सामने नहीं रखा गया है।
सांप्रदायिक हिंसा के दौरान और बाद में विभिन्न धर्मो-वर्गों की संस्थाएं एवं राजनीतिक तंत्र अपने वर्ग के प्रभावित लोगों की सहायता के लिए सक्रिय होते हैं। वह अपने-अपने समुदाय के लोगों को लेकर राहत कैंप और उनके पुर्नवास की व्यवस्था करने के लिए धन संग्रह करने में जुट जाते हैं। सरकारें, पीड़ितो से अपना पल्ला छुड़ाने के लिए इस तरह के धुव्रीकरण को शह देती हैं, जिससे हिंसा प्रभावित लोगो में आपसी भाईचारा पनपने की जगह और ज्यादा अलगाव बढ़ने लगता है। वर्ष 2002 की गुजरात हिंसा और 2008 की कंधमाल हिंसा इसके प्रत्यक्ष प्रमाण हैं।
क्या कारण है कि एक धर्मनिरपेक्ष देश में सांप्रदायिकता की आग ठंडी होने के स्थान पर लगातार सुलगती ही जा रही है, वह भी ऐसे देश में जिसका अपना कोई आधिकारिक धर्म नहीं है, बल्कि। 42वें संविधान संशोधन में इसे और मजबूती दी गई है। इसके बावजूद कुछ राजनीतिक दलों पर सत्ता पाने के लालच में कुछ धर्मों एवं सांप्रदायों को बढ़ावा देने के आरोप लगते रहे हैं। कांग्रेस पार्टी ने अपने 84वें अधिवेशन में सांप्रदायिकता के विरुद्ध प्रस्ताव पास कर हल्ला बोलने की घोषणा की थी, लेकिन वह धरातल पर ऐसा करती कहीं नहीं दिखाई देती। पिछले साल बरेली में हुई सांप्रदायिक हिंसा पर कई मुसलमान बुद्धीजीवियों ने कांग्रेस की तरफ उंगली उठाई थी। उनका मानना था कि सांप्रदायिक हिंसा में धर्म से ज्यादा राजनीति का रोल है।
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने हाल ही में असम का जिक्र करते हुए कहा है कि सांप्रदायिक हिंसा, देश की मिली जुली संस्कृति पर हमला है और इससे कड़ाई से निपटने की जरुरत है। आज जरुरत इस बात की भी है कि सरकार ऐसे सांप्रदायिक दंगो से निपटने के लिए एक विशेष ढांचा देश के नागरिकों की सहायता से खड़ा करे। यह दुखद है कि पिछले छह दशक से हम ऐसे किसी प्रयास की और नहीं बढ़े हैं। हमने केवल राजनेताओं और कुछ गिने चुने मुठ्ठी भर (सवा करोड़ की आबादी में से डेढ़ सौ) लोगों को लेकर राष्ट्रीय एकता परिषद खड़ी कर ली है, जिसकी बैठक बुलाने में महीनों लग जाते हैं। सरकारी छत्रछाया में चलने वाली राष्ट्रीय सलाहकार परिषद में भी ऐसे लोग भर दिये गए हैं, जिनकी कार्यशैली पर देश का बहुसंख्यक उंगली उठा रहा है।
सांप्रदायिक हिंसा एवं दंगों से निपटने और विभिन्न संप्रदायों, वर्गो, धर्मो एवं समूहों के बीच आपसी सौहार्द बनाए रखने के लिए जिला, ब्लाक, शहर,गांव स्तर तक की समितियां बनाई जानी चाहिएं। ऐसी समितियों में शामिल किये जाने वाले व्यक्तियों की प्राथमिकता अपने क्षेत्र में आपसी सौहार्द को बनाये रखना होना चाहिए। किसी भी देश के विकास के लिए परस्पर सांप्रदायिक सौहार्द का होना बेहद जरुरी है, अगर हम अपने बजट का कुछ मामूली हिस्सा, ऐसी समितियों पर खर्च करके कोई ऐसा तंत्र विकसित करने में सफल होते हैं तो यह देश और समाज दोनो के हित में ही होगा।

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