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बराक ओबामा की बात पर भड़कना कैसा?

अवधेश कुमार

अवधेश कुमार

बराक ओबामा-barack obama

अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने भारत के बारे में जो टिप्पणियां कीं, उनके विरुद्ध हमारे कई राजनीतिक दलों ने तीखी टिप्पणियां की हैं। कुछ ने तो इसे भारत को दबाव में लाने वाला बयान तक करार दे दिया है। खासकर भारत की आर्थिक स्थिति पर उनकी चिंता वाला पहलू कुछ हलकों में उत्तेजना पैदा कर रहा है। सरकार की ओर से भी उसका संयमित खंडन आ गया है। देश की समाचार एजेंसी प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया ने भी अपने समाचार की शुरुआत में लिखा है कि अमेरिका ने भारत पर आर्थिक सुधारों की रफ्तार बढ़ाने को लेकर नए सिरे से दबाव बनाना शुरु कर दिया है। ओबामा ने जो कुछ कहा है, उसकी व्याख्या करने के लिए हम स्वतंत्र हैं। उनकी बातें ऐसी हैं, जिनसे ऐसा लगता है, मानो वे भारत को सुधारों के एक ऐसे चरण की ओर बढ़ने के लिए कह रहे हों, जिनसे विदेशी खासकर अमेरिकी कंपनियों को निवेश करने में आसानी हो। तो क्या यह वाकई अमेरिका की ओर से भारत पर उसके अनुकूल आर्थिक सुधारों के लिए डाला जा रहा दबाव है?
बराक ओबामा ने कठिन आर्थिक सुधारों पर बल दिया है,इसमें दो राय नहीं। हालांकि उन्होंने भारत के लिए ऐसे शब्दों का प्रयोग नहीं किया है, जिसे आप आलोचना कह सकें। बल्कि उन्होंने अब भी भारत की आर्थिक गति को संतोषजनक कहा है। उसमें आई कमी को वैश्विक मंदी का परिणाम बताया है। इसे विश्व अर्थव्यवस्था का इंजन करार दिया एवं यह भी कहा कि भारत ने करोड़ों लोगों को ग़रीबी से उबारा है। इतना ही नहीं उन्होंने यह भी कहा है कि भारत को क्या करना है, इसका निर्णय स्वयं भारत ही कर सकता है। दूसरे शब्दों में उन्होंने यह स्पष्ट किया कि वे निर्णय करने की भारत की संप्रभुता या स्वायत्तता को प्रभावित करने की कोशिश नहीं कर रहे हैं।
उनके वक्तव्य में भारत की अर्थव्यवस्था के प्रति गहरी चिंता की झलक है। यानी वे यह संदेश दे रहे हैं कि हम तो भारत के हितैषी हैं और चाहते हैं कि भारत तेजी से आर्थिक विकास करे तथा विश्व की अर्थव्यवस्था में उसका योगदान हो। बराक ओबामा का जो निष्कर्ष और सुझाव है, उसके बारे में भी उनकी सफाई यही है कि अमेरिकी कंपनियां भारत में निवेश योग्य माहौल न होने को लेकर चिंतित हैं और इनमें भारत अमेरिकी संबंधों में प्रभावी भूमिका निभाने वाले भी शामिल हैं। इस प्रकार जिस पहलू को लेकर हम गुस्से में उबल गए हैं, उनके संदर्भ में भी उन्होंने एक राजनेता की तरह अपना पक्ष साफ करने की कोशिश की है।
हम जानते हैं कि बराक ओबामा एक प्रभावी और कुशल वक्ता हैं। महाशक्ति की स्वयं निर्मित एकल पीठ पर स्थापित होने के कारण दुनिया के अनेक संवेदनशील विषयों पर उनको वक्तव्य देना पड़ता है, पर वे बहुत ज्यादा विवादास्पद नहीं होते तो उसका कारण शब्दों और विचारों के प्रकटीकरण में बरता गया संतुलन ही होता है,। किंतु इससे मंशा नहीं छिपती। उनकी मंशा यही है कि भारत कठिन आर्थिक सुधारों की एक लहर पैदा करे। अमेरिकी कंपनियों को उद्धृत करते हुए वे कहते हैं कि उनकी शिकायत है कि अब भी भारत के खुदरा कारोबार समेत कई क्षेत्रों में निवेश करना मुश्किल है। भारत ऐसे निवेश को रोक रहा है या सीमित कर रहा है, जो भारत और अमेरिका दोनों देशों में नई नौकरियां पैदा करने के लिए जरुरी है।
कोई अगर यह निष्कर्ष निकालता है कि ओबामा दरअसल, भारत हितैषी का चोला पहनकर अमेरिकी कंपनियों के हितों की और उसके नाते अमेरिकी हितों की वकालत कर रहे हैं, तो इसे आप सहसा गलत करार नहीं दे सकते। आखिर भारत यदि निवेश के लिए अभी तक बंदिश वाले क्षेत्रों को खोलता है, कुछ क्षेत्रों में लगी सीमाओं में वृद्धि करता है तो उससे अमेरिकी कंपनियों को यहां व्यवसाय करने के अवसर बढ़ेंगे और वे जो मुनाफा कमाएंगे, उससे अमेरिका को आर्थिक संकट से उबरने में सहायता मिलेगी, वहां रोजगार का सृजन होगा।
अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव को देखते हुए बराक ओबामा के लिए अमेरिकी अर्थव्यवस्था के बेहतर होने की दिशा में काम करते दिखने तथा व्यापारिक औद्योगिक लॉबी के साथ खड़े होने की जरूरत हो सकती है, किंतु जरा आप अपने देश के आर्थिक विशेषज्ञों से बातें करिए। उनकी राय क्या ओबामा या अमेरिकी कंपनियों की राय से भिन्न हैं? कदापि नहीं। भारत के उद्योग एवं व्यापार संगठन तो कई वर्षों से खुदरा क्षेत्र में विदेशी निवेश की अनुमति देने, बीमा में निवेश सीमा बढ़ाने, रक्षा क्षेत्र में निवेश करने, पेंशन क्षेत्र में भूमिका बढ़ाने, दूरसंचार में, मीडिया में निवेश बढ़ाने आदि की वकालत कर रहे हैं। स्वयं सरकार की भी यही मंशा है। सरकार ने तो बाजाब्ता खुदरा क्षेत्र में निवेश के लिए विधेयक भी पेश किया, पर सहयोगी दलों विशेषकर तृणमूल कांग्रेस एवं विपक्ष के विरोध के कारण ऐसा न हो सका।
भारत की मीडिया का बड़ा वर्ग भी लगातार आर्थिक सुधारों की वकालत कर रहा है और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की इस बात के लिए आलोचना भी की जाती रही है कि आर्थिक सुधारों के जनक होते हुए और आर्थिक विकास के लिए अपरिहार्य मानते हुए भी वे सहयोगी दलों के दबाव में ऐसा नहीं कर रहे और अर्थव्यवस्था की हालत पतली हो रही है। बड़ी विडंबना है कि यही बात हमारे यहां कही जाए तो वह दबाव नहीं और अमेरिका का राष्ट्रपति कहे तो दबाव हो गया! अभी देश में अमरीकी टाइम पत्रिका में सुधारों के मामले में पीछे हटने के कारण प्रधानमंत्री को कम सफल करार देने वाली छपी आवरण कथा को लेकर विपक्ष सरकार को कठघरे में खड़ा कर ही रहा है। आखिर उसमें भी तो यही सब बाते हैं, जो बराक ओबामा ने कही हैं। इसके पहले कई रेटिंग एजेंसियों ने भी भारत की निवेश साख को घटाया तथा कुछ ने तो खुली चेतावनी दे दी।
प्रश्न तो यही है कि अमेरिका या कोई देश या कोई एजेंसी जो कह रही है, उसके बारे में हमारा मत क्या है? इन रेटिंग एजेंसियों ने भारत के बारे में जितनी निंदाजनक टिप्पणियां कीं उसे मत भूलिए। फिच ने यदि कहा कि भारत की साख पर बट्टा लग चुका है तो स्टैंडर्ड एंड पुअर ने चेतावनी दी कि अगर यही स्थिति रही तो वह भारत की रेटिंग घटाकर सीसी यानी जंक या कबाड़ कर देगा। सीसी का अर्थ है, अत्यंत कमजोर अर्थव्यवस्था। कोई यह कह सकता है कि टाइम पत्रिका, रेटिंग एजेंसियां और अब ओबामा का प्रत्यक्ष वक्तव्य भारत को दबाव में लाकर अपनी सोच के अनुकूल अर्थव्यवस्था को ज्यादा से ज्यादा खोलने के लिए मजबूर करने की रणनीति के तहत ही है। बेशक, इसका उद्देश्य यही है, पर इसे दबाव मानने या सरकार को गलत कदम उठाने के लिए मजबूर करने वाले प्रयास नहीं कह सकते। इस समय जिस अर्थव्यवस्था का ढांचा हमारा और दुनिया का है, उसमें आप किसी विशेषज्ञ से पूछेंगे तो उसकी राय यही होगी।
इस अर्थव्यवस्था में बंदिश के लिए कोई स्थान नहीं। बंदिश का अर्थ है कि आप अर्थव्यवस्था की उन्मुक्त और तेज़ गति को उसी तरह बाधित कर रहे हैं, जैसे किसी बहते दरिया को बांधकर पूरी तरह रोक दें या उसे सीमित बहने दें। ओबामा ने पिछले तीन वर्षों में न जाने कितनी बार कहा है कि भारत जैसे उभरते हुए देश को अलग रखकर आप किसी वैश्विक समस्या का समाधान नहीं कर सकते। उसके पीछे मूल सोच यही थी कि अर्थिक सुधार या खुलेपन के कारण भारत इतनी तेजी से विकास कर रहा है कि उसकी क्रयशक्ति दुनिया की अनेक कंपनियों, उद्योगों के सुस्त व्यापार में नए रक्त का संचार कर विश्व अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने में योगदान देगी।
वस्तुतः यह इस समय का दुर्भाग्य है। दुनिया की आर्थिक संकट और उससे उत्पन्न अस्थिरता के बावजूद कोई देश यह सोचने को तैयार नहीं है कि इसकी जड़ इस आर्थिक ढांचे में ही है और हमें ठहरकर गहन विचार करते हुए अर्थ की दिशा बदलने और इसके लिए देशों को अपना रास्ता निर्धारित करने की छूट देने की आवश्यकता है। बस, नुस्खा वही है, आप अर्थव्यवस्था को ज्यादा खोलिए, व्यवसायियों को धन लगाने के लिए रास्ता दीजिए और बाकी चीज़ें बाजार को निर्धारित करने दीजिए। इसी से आय होगी, रोज़गार बढ़ेगा, बैंकों के कर्ज वापस आएंगे, खजाने में राजस्व आएगा तथा अर्थव्यवस्था की गाड़ी पटरी पर सरपट दौड़ने लगेगी।
सच तो यह है कि इसी सोच ने दुनिया को अर्थ संकट के ऐसे भयानक मुहाने पर लाकर खड़ा कर दिया है, जहां से बाहर निकलने के लिए वे पिछले चार वर्षों से छटपटा तो रही है, पर निकलने की जगह उलझ ज्यादा रही है। अमेरिका स्वयं इसी दुष्चक्र का शिकार है और ओबामा की चिंता उसे उससे उबारने की होनी ही चाहिए। हम आप चाहे इस बात को कतई उचित नहीं मानें, सरकार में बैठे अर्थव्यवस्था के नीति निर्माताओं की सोच अब उसी दिशा में है और जैसा संकेत दिया जा रहा है, वे सुधारों के नए कदम के साथ सामने आने वाले हैं, जिनमें खुदरा क्षेत्र में विदेशी निवेश भी शामिल होगा। ओबामा का वक्तव्य नहीं आता तब भी ऐसा होता। उनके इस बयान के पूर्व ही सरकार के कई मंत्रियों ने यह संकेत दे दिया था कि रुके हुए सुधारों को आगे बढ़ाने का सिलसिला आरंभ किया जाएगा।

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