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Thursday 10 July 2025 06:22:07 PM
नई दिल्ली। उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने कहा हैकि भारतीय ज्ञान प्रणालियां किसी परमाणु शक्ति से कम नहीं हैं, भारतीय ज्ञान प्रणालियां समकालीन चुनौतियों को अवसरों में बदलने का एक सशक्त माध्यम हैं। उपराष्ट्रपति ने कहाकि एक वैश्विक शक्ति के रूपमें नए भारत केसाथ-साथ उसकी बौद्धिक और सांस्कृतिक गंभीरता का भी विकास होना आवश्यक है, क्योंकि किसी राष्ट्र की शक्ति उसके विचारों की मौलिकता, उसके मूल्यों की शाश्वतता और उसकी बौद्धिक परंपराओं की दृढ़ता में निहित होती है, यही वह सौम्य शक्ति है, जो स्थायी होती है और जिस विश्व में हम रहते हैं, उसमें सौम्य शक्ति अत्यंत प्रभावशाली है। उपराष्ट्रपति ने कहाकि भारत केवल 20वीं सदी के मध्य में बनी एक राजनीतिक संरचना नहीं है, यह एक सभ्यतागत सातत्य है, चेतना, जिज्ञासा और ज्ञान की एक बहती धारा है, जो आजभी सतत है। उपराष्ट्रपति जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय दिल्ली में भारतीय ज्ञान प्रणालियों पर वार्षिक सम्मेलन को संबोधित कर रहे थे।
उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने स्वदेशी ज्ञान को ऐतिहासिक रूपसे दरकिनार किए जाने की आलोचना करते हुए कहाकि यद्यपि स्वदेशी अंतर्दृष्टि को आदिम अतीत के अवशेष मानकर खारिज कर दिया गया, यह कोई व्याख्या की त्रुटि नहीं थी, यह विलोपन विनाश की एक वास्तुकला थी, इससे भी अधिक दुखद बात यह हैकि स्वतंत्रता केबाद भी चुनिंदा स्मृतियां जारी रहीं, पश्चिमी सिद्धांतों को सार्वभौमिक सत्य के रूपमें प्रचारित किया गया, सीधे शब्दों में कहें तो असत्य को सत्य का जामा पहनाया गया। भारत की बौद्धिक यात्रा में ऐतिहासिक विखंडनों पर उपराष्ट्रपति ने कहाकि भारत पर इस्लामी आक्रमणों ने भारतीय विद्या परंपरा की गौरवशाली यात्रा में पहला अंतराल पैदा किया, उनमें आत्मसात करने के बजाय तिरस्कार और विनाश का भाव था। उन्होंने कहाकि ब्रिटिश उपनिवेशवाद ने दूसरा अंतराल पैदा किया, जब भारतीय ज्ञान प्रणाली को अवरुद्ध और विकृत किया गया, शिक्षा केंद्रों ने अपने उद्देश्य बदल दिए, दिशासूचक यंत्र को नियंत्रित किया गया, ध्रुवतारा बदल गया, ऋषियों और विद्वानों से लेकर इसने क्लर्क और राजपुरुषों को जन्म देना शुरू कर दिया। उन्होंने कहाकि ईस्ट इंडिया कंपनी के बाबूओं की ज़रूरतों ने राष्ट्र की विचारकों की आवश्यकताओं को बदल दिया।
जगदीप धनखड़ ने कहाकि हमने सोचना, चिंतन करना, लिखना बंदकर दिया है, हम रटने और उसे आत्मसात करने लगे हैं, दुर्भाग्य से आलोचनात्मक सोच की जगह ग्रेड ने ले ली। उन्होंने कहाकि महान भारतीय विद्या परंपरा और उससे जुड़ी संस्थाओं को व्यवस्थित रूपसे नष्ट और तबाह कर दिया गया। उन्होंने कहाकि यूरोप के विश्वविद्यालयों के अस्तित्व में आनेसे बहुत पहलेही भारत के विश्वविद्यालय शिक्षा के समृद्ध केंद्रों के रूपमें स्थापित हो चुके थे, हमारी प्राचीन भूमि बौद्धिक जीवन के प्रखर केंद्रों-तक्षशिला, नालंदा, विक्रमशिला, वल्लभी और ओदंतपुरी का घर थी, ये ज्ञान के विशाल गढ़ थे, इनके पुस्तकालय ज्ञान के विशाल सागर थे, जिनमें हज़ारों पांडुलिपियां समाहित थीं। उपराष्ट्रपति ने कहाकि ये वैश्विक विश्वविद्यालय थे, जहां कोरिया, चीन, तिब्बत और फ़ारस जैसे दूरदेशों से साधक आते थे, ये वे स्थान थे, जहां विश्व ने भारत की भावना को आत्मसात किया। उन्होंने कहाकि ज्ञान पांडुलिपियों से परे रहता है, यह समुदायों, मूर्त प्रथाओं और ज्ञान के अंतर पीढ़ीगत हस्तांतरण में रहता है। उन्होंने कहाकि एक वास्तविक भारतीय ज्ञान प्रणाली अनुसंधान पारिस्थितिकी प्रणाली को लिखित शब्द और जीवित अनुभव दोनों का सम्मान करना चाहिए, यह स्वीकार करते हुएकि अंतर्दृष्टि संदर्भ से उतनी ही उभरती है, जितनी कि पाठ से।
भारतीय ज्ञान प्रणालियों को मज़बूत करने केलिए केंद्रित कार्रवाई का आह्वान करते हुए उपराष्ट्रपति ने कहाकि आइए हम अपना ध्यान ठोस कार्रवाई पर केंद्रित करें, क्योंकि यही समय की मांग है। उन्होंने कहाकि शास्त्रीय भारतीय ग्रंथों के डिजिटल संग्रह का निर्माण एक अत्यावश्यक प्राथमिकता है, जिसमें संस्कृत, तमिल, पाली और प्राकृत सभी शास्त्रीय भाषाएं शामिल हों। उन्होंने कहाकि इन स्रोतों को व्यापक रूपसे सुलभ बनाया जाना चाहिए, ताकि भारत के विद्वान और दुनियाभर के शोधकर्ता इन स्रोतों से सार्थक रूपसे जुड़ सकें। उपराष्ट्रपति ने कहाकि प्रशिक्षण कार्यक्रमों का विकास भी उतनाही जरूरी है, जो युवा विद्वानों को मज़बूत पद्धतिगत उपकरणों से सशक्त बनाएं, जिनमें दर्शनशास्त्र, कम्प्यूटेशनल विश्लेषण, नृवंशविज्ञान और तुलनात्मक अन्वेषण का मिश्रण हो, ताकि भारतीय ज्ञान प्रणाली से उनका जुड़ाव गहरा हो। प्रसिद्ध विद्वान मैक्स मूलर को उद्धृत करते हुए उपराष्ट्रपति ने कहाकि यदि उनसे पूछा जाएकि किस आकाश के नीचे मानव मस्तिष्क ने अपनी कुछ सर्वोत्तम प्रतिभाओं को पूर्णतः विकसित किया है, जीवन की सबसे बड़ी समस्याओं पर सबसे अधिक गहराई से विचार किया है तथा उनमें से कुछ के ऐसे समाधान ढूंढे हैं, जो प्लेटो और कांट का अध्ययन करने वालों के लिए भी ध्यान देने योग्य हैं तो मैं भारत की ओर संकेत करूंगा।
उपराष्ट्रपति ने कहाकि यह शाश्वत सत्य की अभिव्यक्ति के अलावा कुछ नहीं था, अतीत का ज्ञान नवाचार में बाधा नहीं डालता,बल्कि उसे प्रेरित करता है, आध्यात्मिकता भौतिकता से संवाद कर सकती है, आध्यात्मिक अंतर्दृष्टि वैज्ञानिक परिशुद्धता केसाथ सह अस्तित्व में रह सकती है, लेकिन फिर आपको यह जानना होगाकि आध्यात्मिक अंतर्दृष्टि क्या है। जगदीप धनखड़ ने कहाकि ऋग्वेद में ब्रह्मांड केलिए लिखे गए मंत्र खगोल भौतिकी के युग में नई प्रासंगिकता पा सकते हैं, चरक संहिता को जन स्वास्थ्य नैतिकता पर वैश्विक विचार विमर्श केसाथ पढ़ा जा सकता है। उपराष्ट्रपति ने कहाकि ज्ञान प्रणालियां जो लंबे समय से मन और तत्व, व्यक्ति और ब्रह्मांड, कर्तव्य और परिणाम केबीच के अंतर्संबंध पर विचार करती रही हैं, विचारशील, स्थायी प्रतिक्रियाओं को स्वरुप देने केलिए प्रासंगिक और महत्वपूर्ण हो जाती हैं। इस अवसर पर केंद्रीय पत्तन नौवहन और जलमार्ग मंत्री सर्बानंद सोनोवाल, जेएनयू की कुलपति प्रोफेसर शांतिश्री धूलिपुड़ी पंडित, आईकेएसएचए के निदेशक प्रोफेसर एमएस चैत्र, अखिल भारतीय टोली सदस्य, प्रज्ञा प्रवाह और गणमान्य नागरिक उपस्थित थे।