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अरब के शेख और सुल्तान चंद दिनों के मेहमान

अंतत: भारतीय लोकतंत्र ही आदर्श मार्ग

प्रोफेसर भीमसिंह

प्रोफेसर भीमसिंह-professor bhim singh

अरब जगत के शेख और सुल्तान चंद दिनों के मेहमान लगते हैं। अरब और अफ्रीकी देशों में मिस्र की लपटें पहुंच गई हैं। होस्नी मुबारक के बाद लीबिया के राष्ट्रपति कर्नल गद्दाफी के शासन का अंत निकट है। जनता ने तानाशाहों के खिलाफ जो मोर्चा लिया है वह लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत है। एक बार फिर यह साबित हो रहा है कि दुनिया में जनमानस के लिए भारतीय लोकतंत्र से बेहतर कोई रास्ता नहीं है। एक दिन ऐसा होना ही था जो मिस्र में हुआ और अब लीबिया में हो रहा है। काहिरा के ओरुबा महल से होस्नी मुबारक का निकल भागना उन लोगों के लिए कोई ताज्जुब की बात नहीं थी, जो अमेरिका, मिस्र और इजराइल जैसी तीन बड़ी ताकतों के बीच के संबंधों से वाकिफ हैं। सन् 1882 में ब्रिटेन ने मिस्र पर कब्ज़ा किया था और 1946 से 1952 तक वहां फारूख नामक बादशाह के हाथ में सत्ता रही। ब्रिटिश उपनिवेशवादी हुक्मरान मिस्र की फराहोन की ममियां और सम्पति चुराकर लंदन ले गए, जो अब ब्रिटिश संग्रहालय में मौजूद हैं।

सन् 1952 में नौजवान ‘आजाद अफसरों‘ ने रक्तविहीन तख्तापलट कर दिया। बादशाह फारूख अपने परिजनों और पालतू कुत्तों के साथ अलग्जेंड्रिया से निकल भागे, तब इस ध्वस्त, लेकिन संस्कृति और सभ्यता से समृद्धशाली मिस्र में जनरल मोहम्मद नगीब ने सत्ता हथिया ली। सन् 1956 में एक नौजवान फौजी अफसर कर्नल जमाल अब्दल नासर ने शासन संभाल लिया। स्वेज़ नहर का राष्ट्रीयकरण करके उन्होंने हमेशा के लिए फ्रांस और ब्रिटेन की दुश्मनी मोल ले ली।

सन् 1967 में इजराइल ने मिस्र, सीरिया और जॉर्डन के वेस्ट बैंक पर गुपचुप अतिक्रमण कर तमाम सिनाय रेगिस्तान पर कब्जा कर लिया, फलस्वरूप स्वेज़ नहर बंद हो गई और वह 1976 तक बंद रही, जिससे मिस्र की आर्थिक स्थिति की दुर्गति हुई, क्योंकि मिस्र की 17 प्रतिशत आय स्वेज़ नहर में जहाजों के आवागमन से होती थी। अमेरिका के लाडले पुत्र इजराइल ने 1967 में राष्ट्रसंघ प्रस्तावों को रद्दी की टोकरी में फेंकते हुए सीरिया में गोलान हाइट्स और समस्त फिलस्तीन पर कब्जा कर लिया, जिसमें वेस्ट बैंक और गाजा पट्टी भी शामिल थी।

मिस्र की आर्थिक-स्थिति बहुत संकट से गुजर रही थी। इसके कृषि और उद्योगों में भारत सहित अनेक देश सहयोग कर रहे थे। मिस्र के राष्ट्रपति नासर, भारतीय प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और यूगोस्लाविया के राष्ट्रपति मार्शल टीटो ने गुटनिरपेक्ष राष्ट्र-अभियान चलाया। ऐसा करने में नासर को ब्रिटिश-अमेरिकी धड़े के कोप का भाजन बनना पड़ा। सन् 1967 की छः-दिवसीय लड़ाई ने मिस्री वायुसेना, जिसको जमीन पर अचानक धर दबोच लिया गया था, को पूरी तरह नष्ट कर दिया गया और मिस्री सेना को भी ध्वस्त करते हुए उसके कम से कम तीन हज़ार सैनिकों को मारकर, सिनाय से स्वेज़ नहर तक सारा क्षेत्र कब्जा लिया गया। इस विध्वंस से मिस्र सरकार के दिवालिया होने का खतरा पैदा हो गया था। अरब राष्ट्रों में अंतर्कलह पैदा हो गई और उभरते फिलस्तीनी अभियान से नासर पर जबर्दस्त दबाव आ गया। उन्होंने सन् 1967 में छह दिवसीय लड़ाई में देश की हार के लिए नैतिक जिम्मेदारी स्वीकारते हुए जब इस्तीफा दिया था, तब उनसे अपना इस्तीफा वापस लेने की मांग करते हुए उसी ताहिर स्क्वायर में बच्चों सहित लोगों का हुजूम उमड़ पड़ा था, जहां हाल में लोगों ने 18 दिनों तक होस्नी मुबारक को इस्तीफा देने को मजबूर कर दिया। इजराइल के इस धोखाधड़ी आक्रमण से गमज़दा होकर 18 सितंबर 1970 को नासर ने दम तोड़ दिया।

इस संकट की घड़ी में नासर के उपराष्ट्रपति अनवर सादात ने सत्ता संभाली। यह भी एक अजीब इत्तेफाक है कि नासर और सादात का जन्म 1918 में हुआ था और दोनों ही फौजी थे। राष्ट्रपति सादात ने 1967 की लड़ाई का बदला लिया और 1973 में इजराइल के अजेय होने के भ्रम को चकनाचूर करते हुए सिनाय को मुक्त करा लिया। इजराइल को मिस्र की कमान के सामने झुकना पड़ा और स्वेज नहर फिर से खुल गयी। बड़े आश्चर्य की बात है कि अक्टूबर 1981 में 1973 की लड़ाई की वर्षगांठ पर हो रही एक सैनिक परेड के दौरान इजराइल के साथ अमन की पहल के विरोधी कट्टरपंथियों ने काहिरा में सादात को गोली से उड़ा दिया।

उस समय होस्नी मुबारक मिस्र के उपराष्ट्रपति थे, जिन्होंने उसी दिन राष्ट्रपति का पद संभाल लिया। होस्नी मुबारक एक अनुभवी वायुसेना कमांडर थे और उन्होंने मुल्क की आर्थिक-स्थिति का पुनरुत्थान करने की कोशिश की, जो दुनिया की प्राचीन बड़ी सभ्यताओं में से एक थी। इस लेखक ने सन् 1968 में पहली बार मिस्र का दौरा किया था और उन्होंने उस साल 30 मार्च को राष्ट्रपति नासर से हाथ मिलाया था। तभी नासर ने काहिरा विश्वविद्यालय में एक ऐतिहासिक तकरीर में सऊदी अरेबिया और अपने अन्य आलोचकों को करारा जवाब दिया था कि 'समाजवाद को इस्लाम से जुदा नहीं किया जा सकता।'

खेद का विषय है कि मध्य-पूर्व के 23 अरब और उत्तरी अफ्रीका के मुल्कों ने कभी एक-दूसरे से आंख नहीं मिलाई। बादशाहों ने शेखों से कभी हाथ नहीं मिलाया। दोनों तानाशाही शासकों ने ही लोकशाही और परिवर्तन की हवाओं को स्वीकार नहीं किया और अपने यहां बहने नहीं दिया। सन् 1947 में राष्ट्रसंघ प्रस्ताव-181 के अंतर्गत अमेरिका और सोवियत संघ ने मिलकर फिलस्तीन का विभाजन करके इजराइल की स्थापना कर दी, क्योंकि अरब राष्ट्रों में एकता नहीं हो पायी थी। करीब तीन दशकों तक यासिर अराफात, जो इस लेखक के एक बड़े दोस्त भी थे, अरब-एकता का आह्वान करते रहे और वकालत करते रहे कि फिलस्तीन की स्थापना अरब-एकता पर ही निर्भर है।

पहले 1991 में और फिर 2003 में ईराक पर हमले में एंग्लो-अमेरिकन धड़े का सहयोग करना कुशल अरब नेताओं की भयंकर भूल थी। जिस शासक ने एंग्लो-अमेरिकन धड़े के सम्मुख समर्पण कर दिया, वहां अमेरिका के शासकों को तानाशाही नजर नहीं आई और आज पूरे विश्व को मिस्र, लीबिया, ट्यूनीशिया, बहरीन, यमन में तानाशाही दिखाई दे रही है। नासर और अराफात के बाद सिर्फ राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन ही ऐसे नेता थे, जो अरब दुनिया को अपना उपनिवेश बनाने की एंग्लो-अमेरिका की बेहूदा योजना का गंभीरता से विरोध कर सकते थे। निश्चय ही अमेरिका और ब्रिटेन और बाकी यूरोपीय देशों के शासकों की अरब तेल और पानी में ही दिलचस्पी थी, न कि इन देशों में लोकतंत्र स्थापित करने में। पश्चिमी देशों की धारणा थी कि सद्दाम हुसैन तो कोबरा की तरह अरब तेल पर बैठे थे। मिस्र, सऊदी अरेबिया ने सद्दाम हुसैन का साथ देने से इंकार कर दिया और एंग्लो-अमेरिकन धड़े ने सद्दाम को किस तरह खत्म किया, यह दुनिया के लोग अच्छी तरह जानते हैं। राष्ट्रपति अराफात की भी एक साजिश के तहत हत्या कर दी गयी। फिलस्तीन के मामले में अरब मुल्क आपस में सहयोग करने में नाकामयाब रहे।

सन् 1981 से 2005 तक प्रायः 25 साल तक होस्नी मुबारक एंग्लो-अमेरिकन धड़े के बड़े दोस्त बने रहे, लेकिन जब अमेरिकियों ने फिलस्तीन के बंटवारे और गाजा पट्टी पर इजराइल के हमले में सहयोग दिया तो वे भी सचेत हो गये। मुबारक फिलस्तीन पर उनकी नई नीति से खुश नहीं थे। अमेरिका की मुबारक में भरोसे में कमी तब उजागर हो गई, जब काहिरा विश्वविद्यालय में राष्ट्रपति बाराक ओबामा ने एक उच्चस्तरीय गोष्ठी में मिस्र के राष्ट्रपति का नाम तक नहीं लिया।

तेरह जून 2009 को इस लेखक ने राष्ट्रपति ओबामा को पत्र लिखकर जताया था कि काहिरा विश्वविद्यालय में गोष्ठी में होस्नी मुबारक का नाम न लेना उनकी भयंकर भूल थी। पत्र में इस लेखक ने लिखा था, 'पश्चिम और पूर्व में संदेह का चक्र तब तक खत्म नहीं हो सकता था, जब तक कि आपसी हित और सम्मान न बना रहे। काहिरा विश्वविद्यालय में अपनी तकरीर में अमेरिकी राष्ट्रपति ने मिस्र के राष्ट्रपति मुबारक के नाम का उल्लेख नहीं किया, जबकि वह दुनिया की सबसे बड़ी सभ्यताओं वाले देश में से एक के राष्ट्रपति थे। क्या यह सम्मान की कमी थी अथवा हितों की जानबूझ कर अनदेखी थी? 'संदेह के बीज मतभेद में बढ़ते गए, क्योंकि समय पर उन्हें मिटाया नहीं गया। यही कारण है कि बेलफोर घोषणा (1917) ने अरबों को धोखा दिया, जिससे पश्चिमी एशिया में कभी न खत्म होने वाला टकराव पैदा हो गया, फिर ब्रिटेन ने अमेरिका के साथ मिलकर जियोवादियों का फिलस्तीन के नियंत्रण में सहयोग करके फिर एक बार अरबों को धोखा दिया, जो कि उनके अधिकार क्षेत्र में था।'

अमेरिका मिस्र में ऐसी सरकार चाहता है, जो अमेरिकी नीतियों से सहमत हो, खासकर इजराइल और फिलस्तीन के मामले में। इजराइली-नेतृत्व खासकर प्रधानमंत्री नेतनयाहू, इजराइल की सीमाओं को बढ़ाकर पुरानी जियोनिस्ट योजनाओं पर अमल करके एक वृहत्तर इजराइल स्थापित करना चाहते थे। मिस्र में हाल की घटनाओं से लगता है कि क्रांति, लोकप्रिय, शांतिपूर्ण और अनुशासित हो सकती है। विश्व अभी भी मिस्र में लोकतंत्र की प्रतीक्षा में है, जब सेना सत्ता त्याग देगी। इतनी अहिंसक समूल क्रांति, जिसने वहां के राष्ट्रपति को तो जरूर बदल दिया है, परंतु जिस लोकतंत्र की मिस्र के आठ करोड़ लोग बेताबी से प्रतीक्षा कर रहे हैं, कब आएगा, यह तो समय ही बताएगा।

इसमें कोई हैरानगी की बात नहीं है कि समूल क्रांति की लहर पूरी अरब दुनिया में फैल चुकी है और लीबिया, ट्यूनीशिया और अरब खाड़ी के सभी देश इस बदलाव की ओर तेजी से बढ़ रहे हैं, जिनमें राजशाही, सुल्तानशाही, शेखशाही और तानाशाही के देश भी शामिल हैं। लीबिया के तानाशाह कर्नल गद्दाफी 42 सालों से बिना किसी संसद अथवा बिना किसी सिस्टम के अपना शासन चला रहे हैं। अपनी ‘ग्रीन बुक‘ में उन्होंने स्वयं भविष्यवाणी की है। उन्होंने किताब के पृष्ठ संख्या 63 और 66 में लिखा है कि 'जब-जब लोगों के शोषण की सीमा पार कर जाती है और हुक्मरान टोला उनके घावों पर मरहम लगाने में नाकामयाब हो जाता है, तो उसका परिणाम भयंकर होगा और ऐसे शासन का अंत स्वाभाविक है।'

इस लेखक ने कर्नल गद्दाफी को एक पत्र लिखकर उनकी ‘ग्रीन बुक‘ के उन्हीं के उपदेश के बारे में याद दिलाया है। करीब 56 लाख लोगों का यह देश समूल क्रांति के लिए तैयार है और यही हालत खाड़ी के देशों की है, जिसमें बहरीन और सऊदी अरेबिया के तानाशाहों को अपने भविष्य के बारे सोचना उन्हीं के हित के लिए अत्यंत आवश्यक हो गया है। आज की मानव संस्कृति सहन नहीं कर सकती कि औरतों को पत्थर मार-मारकर मौत के घाट उतार दिया जाए या मामूली से अपराध के लिए लोगों के हाथ-पांव काट दिये जाएं और विशेषकर जब इन देशों के लोग 70 से 80 प्रतिशत तक शिक्षित हो चुके हैं। इसके अलावा विश्व के सूचनातंत्र ने तो विश्व की घटनाओं के बारे में अद्भुत मानसिक क्रांति पैदा कर दी है। अब समय आ गया है कि इन तानाशाहों को लोकतंत्र की मर्यादा में ढलना ही होगा।

इस लेखक ने अरब देशों के सभी शासकों पर जोर दिया है कि वे भारतीय संसदीय लोकतंत्रवाद को अपने देशों के प्रशासन तंत्र का आदर्श बनाएं, देश के संविधान में परिवर्तन कर इस आदर्श को अपनाएं। इक्कीसवीं सदी में किसी एक व्यक्ति का शासन लोगों को स्वीकार नहीं हो सकता। अतः अरब देशों के बाद अब बारी है अफ्रीका के उन देशों की जहां के लोगों का शोषण इस युग में भी चरम सीमा पर हो रहा है। इन शासकों को तुरंत लोकतंत्रवाद की घोषणा करना अनिवार्य है, जिससे वे स्वयं को भी राजनीतिक तौर पर सुरक्षित रख सकते हैं और अपने देश को भी। आज भारत के सामने स्वर्णिम अवसर है कि वह लोकतंत्रवाद की शमा लेकर विश्व के लोगों की रहनुमाई करे।

(प्रोफेसर भीम सिंह अरब मामलों के विशेषज्ञ हैं और वर्तमान में जम्मू-कश्मीर नेशनल पैंथर्स पार्टी के चेयरमैन एवं भारतीय राष्ट्रीय एकता परिषद के सदस्य हैं)

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