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नदी नाद की लय में राष्ट्र की लय

Tuesday 23 April 2013 08:22:02 AM

हृदयनारायण दीक्षित

हृदयनारायण दीक्षित

प्रकृति लयबद्ध है। यह लय, प्रलय में भी नहीं टूटती। प्रकृति का मूलतत्व अज़र अमर है, तभी तो सृष्टि के पहले वायुहीन स्थिति में भी वह एक अपनी स्वधा के दम पर सांस लेता बताया गया है-अनादीवातं स्वधया तदेकं। प्रकृति का अंतस लयबद्धता के कारण ही छंदस् है। प्रकृति का छंदस् ही वैदिक वांग्मय में छंदस् बना। विद्वान वैदिक भाषा को छंदस् कहते हैं। संस्कृत में मनुष्य कर्म की शास्त्रीयता है, लेकिन छंदस् ज्यों का त्यों हैं। प्रकृति छंदस् में ही प्रकट होती है। पहली दफा उगी व्यापकों जलों के हृदय में। ऋषियों ने जल को ‘आपः मातरम्’ कहकर प्रणाम किया, बताया कि ये जलमाताएं विश्व की जननी हैं, वे इंद्र, अग्नि आदि विराट शक्तियों की भी माताएं हैं। जलमाताएं धरती पर निर्बाध बहीं, उनके प्रवाह में नाद था। अथर्ववेद के ऋषि ने सीधे उनसे ही कहा-आप नाद करती हुई प्रवाहित हैं, सो आपका नाम नदी पड़ा, आपको नमस्कार है। जलमाताएं ही रूपवती नदियां हैं, लेकिन इस प्रवाह में बाधाएं भी थीं। जलमाताओं का प्रवाह रोका वृत्र ने। इंद्र आगे आए, वृत्रो को मार भगाया। ऋग्वेद के ऋषि ने इंद्र की स्तुति की-आपने वज्र से बाधाएं हटाई हैं, नदियों का सदा प्रवाहित मार्ग खोला है।
भरतवंशी विश्वामित्र ज्ञान बांटने के लिए सतलज व व्यास नदियों को पार कर रहे थे। उन्होंने दोनों नदियों का प्रवाह देखा और गाया। जैसे घुड़साल से छूटी दो घोड़ियां आगे बढ़ने की इच्छा से तेज दौड़ती हैं, वैसे ही ये दोनों नदियां प्रवाहमान हैं, फिर दूसरी अनुभूति फूटी। जैसे दो सुंदर गाएं बछड़ों को चाटने के लिए तेज भागती हैं, वैसे ही ये सतलुज व व्यास समुद्र से मिलने की ललक में बह रही हैं। हे इंद्र से प्रेरित नदियों! तुम दो रथसवारों के समान सागर की ओर जा रही हो, आपस में मिलती, लहरों से एक दूसरे के क्षेत्र को सींचती हुई। विश्वामित्र ने हहराती नदियों से जल नीचा करने की प्रार्थना की। विश्वामित्र और नदियों का संवाद ऋग्वेद के तीसरे मंडल में है।
विश्वामित्र जैसे पूर्वजों ने भरतवंशियों की तरफ से नदियों को जो आश्वासन दिए थे, हम सबने वे आश्वासन तोड़े हैं। नदियों ने कहा था-यह संवाद याद रखना, हमारा ध्यान रखना और सेवा करना, तुम पार उतरो, हम वैसे ही नीचे झुक रही हैं, जैसे बच्चे को स्तनपान कराने के लिए माँ झुकती है। विश्वामित्र ने कहा था-हे नदियों! मैं आपकी स्तुति करता रहूंगा। स्तुति का अर्थ प्रशस्ति गायन ही नहीं होता, स्तोता होना बड़ी कठिन साधना है। मन, क्रम, वचन और अंतस् से पैदा सेवाभाव ही किसी को स्तोता बनाता है। विश्वामित्र ने भरतवंशियों की ओर से नदियों को यही आश्वासन दिया था, हम भारत के लोग आपके स्तोता रहेंगे, जलमाताओं का पोषण करेंगे, तन से, मन से। तन मन धन जीवन से, लेकिन हम भरतवंशियों ने वे अनुबंध तोड़ दिए, अनुबंध के साथ संबंध टूटे, नदियां आकुल व्याकुल, मरणासन्न हैं।
नदियां उफनाकर बह रही थीं-लहर-लहर। लहरें लयबद्ध होती हैं। लयबद्धता ही छंदस् में व्यक्त होती है। नदी और नाद दोनों की जिजीवीषा लहरों की गति में है। लहरों में ही नाद और नदी का रस होता है। लहर ही अपने अनुशासन में छंद बनती है, लेकिन सारी दुनिया के ज्ञान को छंदस् में गाने वाले भारत की नदियों के नाद शोकाकुल हैं। अब नदियां घुड़साल से छूटी घोड़ी, बछड़ों को चाटने के लिए व्याकुल गाय या अश्वारोही योद्धा की तरह लहर-लहर नहीं लहकाती।
वैदिक सभ्यता और संस्कृति का मूलाधार नदियां हैं। ऋग्वेद के ऋषियों का स्तोताबोध गहरा है। कहते हैं-देवता रक्षा करें, पूर्वज रक्षा करें और जल से भरी प्रवाहमान नदियां भी हमारी रक्षा करें। यहां जल भरी नदी से रक्षा की गुहार विशेष ध्यान देने योग्य है। फिर कहते हैं-जल से उफनाती सरस्वती हमारी रक्षा करें। ऋग्वेद में भारत के अभिजनों का मूल निवास क्षेत्र भी नदीवाचक है। यहां मूल निवास के लिए ‘सप्तसिंधव’ सात नदियों वाले क्षेत्र का उल्लेख है। नदियां सात हैं, पर सरस्वती और सिंधु की स्तुतियां ज्यादा हैं। अन्य पांच नदियां सतलज (शुतुद्री), व्यास (विपास), रावी (परूष्णी), चेनाब (आक्सिनी) और झेलम (वितस्ता) है। गंगा यमुना हैं। यहां रसा (सीर दरिया), अनितमा (आमूदरिया) और कुभा (काबुल नदी) आदि का भी उल्लेख है। ऋग्वैदिक संस्कृति और सभ्यता के अभिजन पश्चिमोत्तर दिशा में अफगानिस्तान तक विस्तृत थे। ऋग्वैदिक काल के इतिहास विवेचन में नदियों की महत्ता है।
ऋग्वेद में कोई 25 नदियों के उल्लेख हैं, लेकिन सरस्वती की बात ही दूसरी है। वह नदी है, देवी है, देवता हैं, माता हैं और वाग्देवी (ज्ञान, वाणी की शक्ति) भी हैं। सरस्वती भरतवंशियों की प्रिय नदी है। भरतजन के कारण इस देश का नाम भारत पड़ा है। देवश्रवा और देववात भारत ऋग्वेद के ऋषि हैं और सूक्त के रचयिता हैं। यहां चौथे मंत्र में दृषद्वती, आपया व सरस्वती के तटों पर रहने वाले मनुष्यों की समृद्धि की स्तुति है। ऋग्वेद के एक राजा सुदास का राज्य सरस्वती तट पर था, तब सरस्वती हिमालय से निकलकर सबको सींचते हुए दक्षिणी समुद्र में गिरती थी। तटवर्ती निवासी आर्य समृद्ध थे, यहां यज्ञ थे, शोध थे। अधिकांश तत्वज्ञान, काव्य सृजन, ऋचा दर्शन यहीं उगा, इसीलिए सरस्वती ज्ञान और विद्या की अधिष्ठात्री देवी भी कही गईं। ऋग्वेद के ऋषियों ने पूर्वजों को भी सरस्वती का आराधक बताया है, ऋग्वेद में देवता हैं ‘सरस्वती’।
नदी को ब्रह्मांडव्यापी जानना कोई हमारे पूर्वजों से सीखे। ऋग्वेद में सरस्वती को समूची पृथ्वी को तेज से भरने वाला बताया गया है और विद्वानों, पूर्वजों द्वारा प्रशंसित भी। वह गुणवती और ज्ञानवान भी हैं और नदीतमा हैं। ऋग्वेद के अनुसार सभी नदियों का जल पवित्र करता है, लेकिन सरस्वती बुद्धि को भी पवित्र करती है। ऋग्वेद के नदी सूक्त में वर्णित नदियां गंगा, यमुना, सरस्वती, शुतुद्रि (सतलज), परूष्णी (रावी), अस्किनी (चनाब), वितस्ता (झेलम) मरूदवृद्धा, आर्जकीया और सुषोमा राष्ट्र के विशाल भू-भाग में बहती हैं। इसी सूक्त में पश्चिम से आकार सिंधु में मिलने वाली अथवा सिंधु के परवर्ती क्षेत्र में बहने वाली नदियों क्रुम, गोमती, कुभा, तुष्टामा, सुसर्तु रसा, श्वेती और मेहत्नु की भी चर्चा है। पूरब में गंगा से लेकर धुर उत्तर पश्चिम में आज के अफगानिस्तान तक की नदियों का उल्लेख ऋग्वेद और उसके मंत्र रचने वाले ऋषियों के प्रभाव क्षेत्र की स्वाभिमानी सूचना है। ऋग्वेद में नदी को देवता जानने वाले सूक्त को गुनगुनाने का मन करता है, “जैसे माताएं शिशु की ओर, गौएं बछड़े की ओर जाती हैं, वैसे ही ये नदियां प्रवाहमान हैं।
सरस्वती ऋग्वैदिक काल में ही नदी से माता, देवी, देवता, ज्ञान की अधिष्ठात्री और वाग्देवी बन चुकी थी। गृत्समद के रचे एक मंत्र में वे सर्वोत्तम मां-अंबितमे, श्रेष्ठतम नदी-नदीतमे और श्रेष्ठम देवी-देवितमे हैं। ऋग्वेद में 5 जन हैं, सरस्वती ‘पंचजाता वर्धयंती’ है। इसी नदी तट पर भरतजनों का निवास था। विश्वामित्र भी भरत थे, ऋग्वैदिक भरतजनों ने सरस्वती तट पर दर्शन, चिंतन और उत्कृष्ट मानवीय मूल्यों वाली एक विशेष संस्कृति का विकास किया। भरतजनों द्वारा विकसित इस सांस्कृतिक भूक्षेत्र का नाम ‘भारत’ पड़ा, लेकिन अधकचरे लोग सरस्वती का अस्तित्व ही नहीं मानते। अब सरस्वती नदी की खोज हो चुकी है, तो भी सरस्वती को काव्य कल्पना बताने वाले लज्जित नहीं हैं। ऋग्वेद के अनुसार सिंधु का मार्ग वरूण ने ही निर्बाध किया था। यह सर्वाधिक वेगवती है, अद्भुत घोड़ी जैसी वेगशील। वैदिक काल के पूर्वजों ने एक प्रीतिपूर्ण जलसंस्कृति नदी संस्कृति दी। नदियों के अविरल प्रवाह की चिंता इंद्र को थी, वरूण को भी थी।

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