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ध्यान ही आत्म जागृति का सही मार्ग है!

और गौतम बुद्ध सर्वज्ञान के अनुभव से भगवान बुद्ध हो गए

पर्यटन मंत्रालय का 'भगवान बुद्ध के पद चिन्हों' पर वेबिनार

स्वतंत्र आवाज़ डॉट कॉम

Monday 14 September 2020 06:29:34 PM

ministry of tourism webinar on the footsteps of lord buddha

नई दिल्ली। भारत का बौद्ध धर्म से गहरा नाता है, भारत की मध्य भूमि के क्षेत्रों में बौद्ध धर्म के पदचिन्ह प्रसिद्ध हैं और इन्हें दुनियाभर में भारत के बौद्ध सर्किट के रूपमें जाना जाता है। भारतभर में बौद्ध धर्म और भगवान बुद्ध के जीवन से संबंधित स्थल बहुतायत हैं जो अपने आपमें एक दर्शनीय गंतव्य स्थल हैं। दुनिया के विभिन्न देशों में रहने वाले बौद्ध अनुयायी भगवान बुद्ध के जीवन और उनके शिक्षा से संबंधित स्थानों की पावन यात्रा करने की स्वाभाविक इच्छा रखते हैं। पर्यटन मंत्रालय की देखो अपना देश वेबिनार की श्रृंखला में बुद्ध के पदचिन्हों पर शीर्षक से वेबिनार में शाक्य मुनि बुद्ध की दुखों पर विजय प्राप्त करने और व्यक्ति, परिवार और समाज में खुशी लाने की सच्चाई पर विचार-विमर्श किया। भगवान बुद्ध ने अपने निर्वाण से पहले सुझाव दिया था कि मेरी शिक्षाओं में रुचि रखने वाले लोगों को मेरे जीवन से जुड़े स्थानों की तीर्थयात्रा करना बहुत शिक्षाप्रद साबित होगा।
बुद्धपथ अहिंसा ट्रस्ट के संस्थापक मार्गदर्शक और शिक्षक धर्माचार्य शांतम ने गंगा नदी के मैदानी इलाकों में बोधगया तक आभासी यात्रा में वेबिनार के प्रतिभागियों का मार्गदर्शन किया। इस यात्रा में बोधगया का दर्शन कराया गया, क्योंकि बोधगया वह पावन स्थल है, जहां भगवान बुद्ध ने आत्मज्ञान प्राप्त किया था। राजगीर में गिद्ध चोटी, श्रावस्ती में जटावन, जहां उन्होंने 24 वर्षा ऋतुओं में साधना की। कपिलवस्तु, जहां उन्होंने अपना बचपन बिताया, सारनाथ का डियर पार्क, जहां उन्होंने अपनी पहली शिक्षाएं और कुशीनगर जहां उन्होंने निर्वाण प्राप्त किया। धर्माचार्य शांतम ने बुद्ध के जीवन और शिक्षाओं की कथाओं को सभी प्रतिभागियों के साथ साझा किया। यद्यपि गौतम बुद्ध के बारे में कोई लिखित रिकॉर्ड उनके जीवनकाल से या उसके बाद एक या दो शताब्दियों तक नहीं मिला, लेकिन तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व के मध्य से अशोक (269 ईसा पूर्व से 232 ईसा पूर्व तक शासन) के कई शिलालेखों में बुद्ध का उल्लेख मिलता है और विशेष रूपसे अशोक के लुम्बिनी स्तंभ के शिलालेख में बुद्ध के जन्मस्थान के रूपमें लुम्बिनी में सम्राट अशोक की तीर्थयात्रा की स्मृति का उल्लेख है, इसमें उन्हें बुद्ध शाक्य मुनि कहा गया था।
बौद्ध परंपरा के अनुसार भगवान बुद्ध का जन्म 563 ईसा पूर्व में लुम्बिनी में क्षत्रियों के एक महान परिवार में हुआ था। बचपन में उन्हें सिद्धार्थ गौतम कहा जाता था, उनके पिता राजा शुद्धोधन थे, जो कोसल देश के शाक्य कुल के प्रमुख थे और रानी माया देवी उनकी माता थीं। प्रसव के महज सात दिन बाद ही मां की मृत्यु हो जाने के बाद गौतम बुद्ध का पालन पोषण उनकी मां की छोटी बहन महाप्रजापति गौतमी ने किया। बुद्ध की आध्यात्मिक खोज के शुरुआती विवरण पाली आर्यापर्येता-सुत्त जैसे ग्रंथों में पाए जाते हैं। इस पाठ से पता चलता है कि गौतम के त्याग का कारण उनके मन में आया। यह विचार था कि उनका जीवन बुढ़ापे, रोग और मृत्यु के अधीन है, लेकिन जीवन में इससे कुछ बेहतर हो सकता है (मुक्ति-निर्वाण)। उस वक्त उनकी उम्र 29 साल थी, जब उनका सामना नश्वरता और पीड़ा से हुआ था। उन्होंने अपने जीवन के सभी अनुभवों से सीख लेकर अपने पिता की इच्छा के विपरीत जाकर अर्ध रात्रि के समय में राजमहल छोड़ने का फैसला किया और उन्होंने एक घुमंतु तपस्वी बनने का निर्णय लिया।
प्रारंभिक बौद्ध ग्रंथों के अनुसार यह महसूस करने के बाद कि ध्यान ही आत्म जागृति का सही मार्ग है तो गौतम ने मध्यम मार्ग की खोज की। मध्यम मार्ग एक ऐसा मार्ग है, जिसमें भोगासक्ति का त्याग और आत्म वैराग्य का भाव उत्पन्न हो जाता है और कई प्रकार की अतियों से बचा जा सकता है। इसे बुद्ध का आष्टांगिक मार्ग भी कहा जाता है। ऐसा कहा जाता है कि तपस्वी जीवन से उनकी विरक्ति की वजह से उनके पांच साथियों ने उनका परित्याग कर दिया, क्योंकि उनके साथियों का मानना था कि उन्होंने अपनी खोज छोड़ दी है और अनुशासनहीन हो गए हैं। पहाड़ी के नीचे चलते हुए वह बेसुध हो गए और उन्होंने सुजाता नाम की एक गांव की लड़की से दूध और चावल का हलवा स्वीकार कर लिया। उन्होंने कई प्रतिभाशाली ध्यान शिक्षकों से मुलाकात की और उनकी तकनीकों में महारत हॉसिल की। गौतम बुद्ध ने हमेशा यह पाया कि लोगों ने मन की क्षमता के बारे में तो बताया, लेकिन मन के बारे में नहीं। अंत में बोधगया में बुद्ध ने मन के सच्चे स्वरूप को तबतक ध्यानमग्न रहने देने का निर्णय लिया, जबतक कि वह मन के सच्चे स्वरूप को नहीं जान जाते और सभी प्राणियों का कल्याण कर सकें। छह दिन और रातें बिताने और मन की सबसे सूक्ष्म बाधाओं को मिटाने के बाद उन्हें मई की पूर्णिमा की सुबह की बेला में ज्ञान हुआ। इस समय वह पैंतीस वर्ष की आयु प्राप्त करने से महज एक सप्ताह दूर थे।
आत्म जागृति के तुरंत बाद भगवान बुद्ध ने इस बात को लेकर संकोच किया कि उन्हें दूसरों को धर्म सिखाना चाहिए या नहीं। वह इस बात से चिंतित थे कि मनुष्य अज्ञानता, लोभ और घृणा से इतना भरा पड़ा है कि वह कभी भी उस मार्ग को नहीं पहचान सकता, जोकि सूक्ष्म, गहरा और समझने में कठिन है हालांकि भगवान ब्रह्म सहमपति ने उसे तर्क देकर आश्वस्त कर दिया कि कम से कम लोग कुछ तो इसे समझ लेंगे। भगवान बुद्ध ने अपनी शिक्षाएं संसार को देने के लिए अपनी सहमति दी। बुद्ध वाराणसी के पास सारनाथ में डियर पार्क पहुंचे, जहां उनकी मुलाकात पांच तपस्वियों के समूह से हुई और उन्हें यह समझाने में सफल रहे कि वह वास्तव में पूर्ण आत्म जागृति की अवस्था में पहुंच गए हैं। बुद्ध के पहले उपदेश को धर्म चक्र प्रवर्तन कहा जाता है। उन्होंने लालसा और इच्छाओं को ही मानव के दुख का कारण बताया। उन्होंने चार महान सत्यों के बारे में बताया-संसार दुखों और कष्टों से भरा हुआ है, इस दुख का कारण इच्छा और मोह है, जब हम इच्छा को शांत करेंगे तो यह दुख खत्म हो जाएगा। दुख को सिर्फ आष्टांगिक मार्ग का अनुसरण करके ही समाप्त किया जा सकता है। यह जीवन का सरल, नैतिक तरीका है, जिससे दुख को समाप्त किया जा सकता है। वे सम्यक विचार, सम्यक सोच, सही वाणी, सम्यक कर्म, सही आजीविका, सम्यक प्रयास, सम्यक चिंतन और सम्यक एकाग्रता हैं।
प्रस्तुतकर्ता धर्माचार्य शांतम ने महत्वपूर्ण बौद्ध स्थलों पर प्रकाश डाला। सारनाथ ऐसा माना जाता है, सारनाथ में पुरातात्विक परिसर से सटे डियर पार्क में बुद्ध ने बोधगया में एक बोधिवृक्ष के नीचे ज्ञानोदय प्राप्त करने के बाद अपना पहला उपदेश दिया था। सारनाथ को चुनने का कारण यह था कि जिन पांचों लोगों ने तपस्वी यात्रा में बुद्ध का साथ दिया था और बाद में उन्होंने उन्हें छोड़ दिया था, वे सारनाथ में बस गए थे। जब बुद्ध ने आत्मज्ञान प्राप्त किया तो उन्हें लगा कि उन्हें सबसे पहले यह जानना चाहिए कि उन्होंने क्या सीखा, इसीलिए वह सारनाथ के लिए रवाना हुए और धर्मचक्र प्रवर्तन सूत्र का अपना पहला उपदेश दिया। राजगीर मगध राज्य की राजधानी थी। यहीं पर गौतम बुद्ध ने कई महीने ध्यान लगाया और ग्रिडहरा-कूट यानी गिद्ध चोटी में उपदेश दिया। उन्होंने अपने कुछ प्रसिद्ध उपदेश भी दिए और मगध के राजा बिम्बिसार और अनगिनत लोगों को बौद्ध धर्म अपनाने की प्रेरणा दी। भगवान बुद्ध ने यहीं अपना प्रसिद्ध अतान्तिया सूत्र दिया। श्रावस्ती प्राचीन कोसल राज्य की राजधानी थी और बौद्धधर्म के अनुयायियों के लिए पवित्र स्थल है, क्योंकि यहां भगवान बुद्ध ने तीर्थिका विधर्मियों को भ्रमित करने के लिए अपने चमत्कारों का सबसे बड़ा प्रदर्शन किया। इन चमत्कारों में बुद्ध खुद की कई छवियां बनाते हैं, जो बौद्ध कला का पसंदीदा विषय रहा है।
भगवान बुद्ध ने गैर-अनुयायियों को रिझाने के लिए अपना दिव्य कौशल भी दिखाया। बुद्ध ने श्रावस्ती में ही अपने मठ और योगी जीवन का अधिकांश समय व्यतीत किया। गिद्धकूट पर्वत बुद्ध और उनके शिष्यों के समुदाय द्वारा प्रशिक्षण और पलायन दोनों के लिए प्रयुक्त होने वाले कई स्थलों में से एक है। केसरिया स्तूप बिहार के पूर्वी चंपारण जिले में पटना से 110 किलोमीटर की दूरी पर है, जिसका प्रथम निर्माण तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व का है। केसरिया स्तूप लगभग 400 फीट यानी 120 मीटर की परिधि में है और यह लगभग 104 फीट की ऊंचाई का है। भगवान बुद्ध ने तीन बार वैशाली का भ्रमण किया और यहां काफी लंबा समय बिताया। पूर्ण ज्ञान प्राप्ति मिलते ही बुद्ध के मन की मिश्रित भावनाएं और कठोर विचार क्षीण हो गए थे और तभी वे सर्वज्ञान के अनुभव से भगवान बुद्ध हो गए। बुद्ध ने वैशाली में अपना अंतिम प्रवचन भी दिया और यहीं अपने निर्वाण की घोषणा की। कुशीनगर भगवान बुद्ध के चार पवित्र स्थानों में से एक है। बुद्ध ने अपना अंतिम उपदेश दिया और 483 ईसा पूर्व में महापरिनिर्वाण (मोक्ष) प्राप्त किया। रामभर स्तूप में उनका अंतिम संस्कार किया गया।
बुद्ध पर वेबिनार को उपसंहार की ओर ले जाते हुए पर्यटन के अतिरिक्त महानिदेशक ने आईआरसीटीसी की महापरिनिर्वाण एक्सप्रेस के बारे में भी बात की। महापरिनिर्वाण एक्सप्रेस एक प्रसिद्ध बौद्ध पर्यटक ट्रेन है, जिसे बुद्ध की शिक्षाओं के अंतिम स्पष्टीकरण देने वाले महापरिनिर्वाण सूत्र से नाम मिला है। यह यात्रियों को एक ऐसी यात्रा पर ले जाती है, जो उन्हें बौद्ध धर्म का आधार और अधिगम दोनों को सीखने व अपनाने में मदद करता है। बौद्ध धर्म दुनिया के औसतन 500 मिलियन से अधिक लोगों ने अपनाया हुआ है और यह विस्तार और उन्हें भारत के बौद्ध सर्किट के रूपमें जाने जानेवाले बुद्ध के मार्ग पर लाने के लिए एक बड़ी संख्या है। बुद्धाय नमः।

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