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मायावती का राजधर्म

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मायावती-mayawati

‘राजधर्म। एक साधारण मानव के धर्म और एक राजा के धर्म में बड़ा ही अंतर है। एक साधारण मानव का प्रथम धर्म है अपनी पत्नी, अपने बच्चों, भाई-बहनों, माता-पिता और निकट सगे-संबंधियों की मदद करना, उनकी रक्षा करना, यदि उनका कठिन समय आए तो उसमें उनका साथ देना। परंतु वही मानव जब राजमुकुट पहनकर राजा बन जाए तो उसका प्रथम धर्म अपने निजी सुख या दुख और अपने निकट संबंधियों का साथ देना ही नहीं रहता वरन् राजा का धर्म केवल प्रजारंजन हो जाता है। राजा के सारे कर्म प्रजामत के अधीन होते हैं, फिर चाहे राजा निजी तौर पर सुखी हो या दुखी। उसका कर्तव्य तो वही है जिसमें प्रजा का कल्याण हो। यही उसका पहला धर्म है और यही उसका आखिरी धर्म भी है। इसे ही राजधर्म कहते हैं।’-वाल्मीकि रामायण

सचिव वैद्य, गुरू तीनि जौं प्रिय बोलहिं भय आस।
राजधर्म तनु तीनि कर होईं बेगहिं नास॥

अर्थात-‘जिस राजा के सचिव, वैद्य और गुरू राजा के भयवश या उसे खुश रखने के लिए उसके सम्मुख उसके मन की और चिकनी-चुपड़ी बातें बोलते हों, उस राजा के राज्य, शरीर और धर्म का सर्वनाश हो जाता है।’-तुलसीकृत रामायण
राज-पाट में इन पंक्तियों का संबंध आज के सत्ताधीशों पर सटीक बैठता है-वो चाहे राजनेता हों या हों नौकरशाह। उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती और राज्य के प्रमुख नौकरशाहों के संबंध में तो इनका विचार काफी प्रासंगिक समझा जा सकता है। प्रश्न यह है कि मुख्यमंत्री मायावती उनके कुछ नौकरशाहों और कुछ खास मंत्रियों के क्रियाकलाप क्या इस राजधर्म से कहीं मेल खाते हैं? मायावती हों या मुख्यमंत्री कार्यालय के पंचमतलीय सलाहकार राजधर्म के उलटे ही चलते दिखाई दे रहे हैं। राज्य की मुख्यमंत्री के रूप में मायावती का राजधर्म से कभी रिश्ता प्रकट नहीं हुआ। इससे पहले के तीन कार्यकाल में भी ऐसा ही हुआ। इन्हीं कारणों से असमय और तनावपूर्ण घटनाक्रम में मायावती सरकार का पतन हुआ। इन कालखंडों में मायावती न केवल गंभीर भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरी जानी गईं बल्कि उनकी पार्टी बसपा भी तीनों बार टूटी। मायावती के सलाहकारों में कभी भी कोई ऐसा नजर नहीं आया जो खुद भी विवादों से मुक्त हो। अगर ऐसा होता तो आज मायावती के शासन का कोई मुकाबला नहीं हुआ होता। मायावती जो भी कर रही हैं और जो सलाहकार करा रहे हैं अब वही उनके ‘राजधर्म’ की परिभाषा बन गई है। आगे चलकर उसके जो भी परिणाम निकलें।
एक प्रचंड राजनेता का ‘चाटुकारों’ की जमात क्या हाल बना देती है इसका उदाहरण मायावती से अच्छा और क्या होगा? दूसरे राजनेताओं के लिए मायावती एक ‘सबक’ और ‘ज्वलंत उदाहरण’ बन गई हैं। दिग्गज विश्लेषक इस प्रकार से मायावती सरकार के काम काज और उनके राजनीति एजेंडों का विश्लेषण कर रहे हैं। मायावती के ‘नवरत्नों’ के बारे में दूसरों की राय है कि उन्होंने शासन व्यवस्था का बंटाधार किया हुआ है। मायावती अगर ध्वंस को कहती हैं तो सलाहकार विध्वंस को अंजाम देते हैं। आजकल मायावती पर भ्रष्टाचार के आरोपों और उनके राजनैतिक भविष्य पर विश्लेषण छाए हुए हैं। ताज गलियारे और उसके बाद मायावती के आय से अधिक संपत्ति के मुद्दे की वापसी हो गई है। दो मुद्दे हैं-एक ‘क्या भ्रष्टाचार से घिरा व्यक्ति प्रधानमंत्री होना चाहिए?’ और दूसरा-‘भ्रष्टाचार मामलों के कारण मायावती का आगे का राजनीतिक भविष्य क्या है?’ लोकसभा चुनाव में उनके साथ कौन-कौन आ रहे हैं, राजनीतिक दलों में यह तो आना जाना लगा ही रहता है लेकिन किस तरह के लोग आ रहे हैं इस पर सबकी नजर है।
मायावती न तो भारतीय प्रशासनिक सेवा से मुख्यमंत्री बनी हैं और न उनके पास किसी प्रबंध संस्थान का डिप्लोमा है। इसलिए शासन चलाने के लिए उनकी नौकरशाहों पर पूरी निर्भरता है। मायावती सरकार के अधिकांश फैसले ऐसे माने जाते हैं, जिनके पीछे कुछ ऐसे मौकापरस्त और सत्ता के दलाल कहे जाने वाले लोग खड़े दिखाई देते हैं जिनका मायावती से नहीं बल्कि केवल अपनी स्वार्थपूर्ति से मतलब है। एक महत्वपूर्ण प्रश्न उठता है कि मायावती को धन कमाने के रास्ते क्या आसमान से पता चल रहे हैं? यही प्रश्न मायावती के पहले तीन कार्यकालों में भी सामने आया था। क्या वाकई में किसी भी तरह से अनैतिक धन बटोर कर लाने का ‘नवरत्नों’ पर दबाव है? अगर है तो वे इसके भागीदार क्यों बन रहे हैं? ऐसा तो तभी हो सकता है जब वे भी इसमें शामिल हों। नौकरशाह अपने को ‘त्रिकालदर्शी’ कहते हैं, उनकी ‘तीसरी आंख’ राज्य और उसके मुख्यमंत्री के लिए क्या देख रही है? राज्य के प्रति उनकी क्या जिम्मेदारियां हैं? अगर मायावती अपनी मनमानी कर रही हैं तो कानून ने उन्हें मनमानी से असहमति प्रकट करने का अधिकार दिया है अब तक कितने नौकरशाहों ने इस अधिकार का इस्तेमाल किया? ‘सलाहकारों’ ने मुख्यमंत्री मायावती को बताया? कि इस तरह से आगे चलकर वह घोर विपत्तियों और विवादों में फंस जाएंगी जिसमें उनका व्यक्तिगत राजनैतिक भविष्य अंधकारमय हो सकता है। मायावती की मौजूदा उपलब्धियों का क्या यहीं अंत हो जाता है? क्या यह सब मायावती को कोई सड़क चलता ‘राहगीर’ बताएगा कि, ‘संभल कर चलिए, क्योंकि आगे खतरा है?’
विश्लेषक कहते हैं कि आज तो राहगीरों के रास्ते भी बंद हैं जो मुख्यमंत्री के जनता दरबार में जाकर राज्य की सच्चाईयां बयान किया करते थे। वे बताया करते थे कि राज्य में उनके बारे में लोग क्या सोचते हैं और कौन अधिकारी-राजनीतिज्ञ कैसे काम कर रहा है। एक मुख्यमंत्री के सामने अपने प्रदेश की समस्याओं और प्रशासन के लोगों की करतूतें जानने का इससे बेहतर कोई रास्ता नहीं हो सकता है। लेकिन मायावती को जान का खतरा समझाकर यह रास्ता फिलहाल बंद हैं। मुख्यमंत्री निवास 5, कालीदास मार्ग पर ‘कर्फ्यू’ का सा माहौल है। उस ओर जाने वाली सड़क पर लगे बैरियर पर खड़ी पुलिस और दंगा नियंत्रक वाहन फरियादी का एहसास करा देते हैं कि आगे नहीं जाना है और जाकर करोगे क्या? मुख्यमंत्री आवास पर जनता दर्शन के ‘अंबेडकर हाल’ में बैठना और अपने ‘लोकप्रिय’ मुख्यमंत्री से रूबरू होना इस बार अभी तक किसी भी फरियादी को मयस्सर नहीं हुआ है। मुख्यमंत्री आवास और कार्यालय पर भी एक ऐसा रिंग बना हुआ है जिसमें केवल खास लोग ही उनके ही प्रवेश ले पाते हैं। बसपा के कुछ मंडल समन्यवकों और कुछ ही पदाधिकारियों को छोड़कर बाकी बसपाइयों के लिए भी मायावती के दरवाजे बंद हो गए हैं। ये सच नहीं है?
मायावती जब तक सत्ता से बाहर थीं तब तक उनके प्रेस से संबंध उतने खराब नहीं थे जितने कि आज हैं। कई वरिष्ठ नौकरशाहों की फौज पूरे अमले के साथ मीडिया प्रबंध में लगी हुई है फिर भी मायावती का मीडिया से छत्तीस का आंकड़ा बना हुआ है? इन संबंधों को कौन बिगाड़ रहा है? प्रेस के लिए खास हिदायतें हैं। प्रेस संवाददाता मान्यता समिति और पत्रकारों को आवास आवंटन की आड़ में प्रेस को नियंत्रित करने की कोशिश की गई है। सचिवालय में प्रेस के लिए जारी वार्षिक पास तक पर आवागमन सीमित कर दिया गया है। यह कौन नहीं समझता कि ऐसा क्यों किया गया है? पत्रकारों की मान्यता और उनको सुविधाएं देने के नाम पर बार-बार नियम बदले जा रहे हैं। प्रेस प्रतिनिधियों के नाम पर सूचना विभाग में फर्जी खर्चों की भरमार है और सरकार के प्रचार में राजकोष के करोड़ों रुपए पानी की तरह से बहाए जा रहे हैं। सर्वविदित है कि मुलायम सिंह यादव सरकार की बदनामियों के कारण बहुजन समाज पार्टी को सत्ता में आने का लाभ मिला। भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस इस स्थिति में नहीं थे कि प्रदेश की जनता उनके साथ जाती। मुलायम सिंह यादव के बदनाम कारिंदो से हिसाब चुकता करने के लिए प्रदेश के मतदाताओं को तब बसपा ही उपयुक्त लगी थी। आज मायावती के लिए राजनीतिक वातावरण प्रतिकूल जाता दिखाई दे रहा है जिसका लोकसभा चुनाव में खुलासा हो जाएगा।
राजीव गांधी इन दो दशकों में देश के सर्वाधिक लोकप्रिय प्रधानमंत्रियों में से एक रहे हैं। रायबरेली और सुलतानपुर जिलों को वहां की जनता उनके उत्तराधिकारियों की राजनैतिक विरासत मानती है। अमेठी और सुलतानपुर की राजनीति में मायावती सरकार जिस प्रकार का व्यवहार इस परिवार के साथ कर रही है वह पूरा देश देख रहा है। दलित परिवारों को न्याय दिलाने के राहुल और प्रियंका के प्रयासों को मायावती मुद्दा बनाए हुए हैं? यह मायावती के लिए एक बड़ी राजनीतिक गलती मानी जाती है। मायावती ने अमेठी का नाम एक झटके कैसे बदल दिया था यह बात अमेठी के लोग आज भी नहीं भूले हैं। मुलायम सिंह यादव और उनके परिवार को जेल की सलाखों के पीछे धकेलने का अरमान पूरा करने के चक्कर में मायावती ने जिस तरह से साढ़े बाइस हजार पुलिसकर्मियों को नौकरी से बाहर निकाला उससे मायावती की ही फजीहत हो रही है क्योंकि मायावती के कार्यकाल में भी राज्य में सरकारी नौकरियों में भर्ती में भारी भेदभाव और गंभीर घपलेबाजी सामने आ रही है। इस बार तो हद ही हो गई है। मुलायम सरकार में जो शिकायतें पकड़ में आईं हैं उससे गंभीर शिकायतें मायावती सरकार में जोर पकड़ रही हैं फर्क इतना है कि अभी उनकी जांचों का दौर शुरू नहीं हुआ है इसलिए इस सरकार में जो सरकारी नौकरियां हासिल कर रहे हैं आने वाले समय में उनको भी वैसी ही जांचों और दिक्कतों का सामना करना होगा।
‘ये पांच शब्द और मायावती’
‘मैं चमारी हूं तुम्हारी हूं’ बिजनौर जिले के गांवों में बिरादरी के लोगों के बीच दलान और छप्परों के नीचे बैठकर मायावती ने इन पांच शब्दों का जमकर भावनात्मक ‘दोहन’ किया है। इन शब्दों की बदौलत मायावती आज देश की सबसे धनी राजनेता और चार बार उप्र के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठ चुकी हैं। इन शब्दों की ताकत के बल पर देश में एक शक्तिशाली नेता बनी मायावती के ही राज में जब ‘दूसरे’ इन शब्दों को बोलें तो यह जातिसूचक शब्द हुआ, अपमान हुआ, गाली मानी गई।
कैसी विडंबना है कि इसी जाति सूचक शब्द को सरकारी नौकरी के जाति एवं वर्ग के कालम में लिखे जाने पर नौकरी की मैरिट में स्थान मिलता है। सरकारी नौकरी पाने के लिए दलित समाज का कोई भी अभ्यर्थी विशेष जाति सूचक शब्द लिखने में कोई चूक भी नहीं करता है। जो लोग इन शब्दों को बोलकर दलित अत्याचार निवारण अधिनियम में जेलों में सड़ रहे हैं वहीं ये शब्द भारत में लिखने या बोलने पर इसी बिरादरी की समृद्धि और प्रगति के प्रतीक हो जाते हैं। इसलिए देश में यह जबरदस्त बहस छिड़ गई है कि जाति प्रकट करने वाले इन शब्दों के सरकारी कागजों में खुद के इस्तेमाल करने पर जब नौकरी मिलती है और जब यह शब्द समृद्धि के प्रतीक हैं तो वहीं ये शब्द दूसरों के खिलाफ हथियार के रूप में क्यों इस्तेमाल होते आ रहे हैं?
इसलिए यह विचार जोरों से उछल रहा है कि इस अधिनियम की समीक्षा होनी चाहिए ताकि इसकी आड़ में आम आदमी का कोई शोषण न कर सके। बिजनौर में टिकैत पर इसकी धाराएं लगाने के बाद जन सामान्य में यह प्रश्न और भी ज्यादा उठ रहा है कि दलित अत्याचार निवारण कानून बनाते समय कानूनविदों से यह चूक हुई या उन्होंने सभी पक्षों के अच्छे बुरे परिणाम जान-समझकर जाति सूचक शब्द को अपमान और गाली माना? आज यह किनसे पूछा जाए? कुछ अन्य जातियों में भी तो जाति सूचक शब्द आम बोल चाल में बोले जाते हैं जिनसे सामान्यतः अपमान का अहसास होता है। ऐसे शब्द लगभग सभी जातियों में हैं। इस कानून के लागू होने के बाद उच्च जातियों पर इसका नई परिभाषा के साथ दुरुपयोग हुआ है नहीं तो इसीलिए एक बार मायावती को राज्य में इस एक्ट को लागू करने में सावधानी बरतने के दिशा-निर्देश क्यों देने पड़े? इस कानून का किस हद तक दुरुपयोग हुआ है और हो रहा है इसका प्रमाण यह है कि राज्य सरकारों ने इसे अपने यहां खारिज तो नहीं किया लेकिन अपने प्रशासन तंत्र को इसे लागू करते समय सावधानी बरतने की समय-समय पर सलाह अवश्य दी है। इसका मतलब यह हुआ कि इस कानून में बड़ी गंभीर खामियां हैं? कहीं कहीं तो इस कानून का दुरुपयोग वीभत्स रूप से सामने आया है। गांवों में दलित एक्ट पुलिस की ‘आय’ का एक अच्छा जरिया बना हुआ है। वहां राजनीतिक एवं सामाजिक बदले इसी की आड़ में चुकाए जाते रहे हैं और चुकाए जा रहे हैं। बसपा के पहले तीन शासन काल में जिलों में न जाने कितने उच्च जाति के लोगों को इस एक्ट की धमकी देकर जबरन धन वसूली हुई है इसके एक नहीं अनगिनत उदाहरण हैं। मजे की बात यह है कि दलित एक्ट के तहत तो मुकदमों के दर्ज होने की संख्या भारी है लेकिन अदालतों में दुरुपयोग के मामलों में आरोपों की पुष्टि होने की संख्या बहुत कम है।

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