स्वतंत्र आवाज़
word map

छत्तीसगढ़ में बाल पुलिस!

यूसी मनराल

बाल पुलिस-baal Police

रायपुर। सुना हैआपने? छत्तीसगढ़ में बाल पुलिस। शहीद हुए या असमय मृत्यु को प्राप्त हुए पुलिस के जवानों के आश्रितों के कल्याण के लिए शुरू किया गया मध्यप्रदेश पुलिस का यह काफी पुराना वेलफेयर कार्यक्रम है लेकिन मध्यप्रदेश या छत्तीसगढ़ राज्य के बाहर कम ही लोग इससे वाकिफ हैं। दोनों राज्यों के पुलिस मैन्युअल में बाल पुलिस का बाकायदा प्रावधान है। यह बात बहुतों के गले ही नहीं उतरी थी पर कुछ समय पहले किसी ने एक समाचार पत्र में बालश्रम से संबंधित एक लेख में बालश्रम कानूनों की उपयोगिता का जिक्र करते हुए मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ राज्य में बाल पुलिस का जिक्र किया था। जिक्र अच्छे उद्देश्य के लिए था और एक दिन एक टीवी चैनल ने इसे दिखा भी दिया। छोटे-छोटे बच्चे पुलिस की वर्दी में हैं। स्कूल की पढ़ाई के बाद कुछ समय के लिए उनमें से कुछ तो बाकायदा बावर्दी होकर पुलिस अधिकारियों के दफ्तर में फाइलें इधर-उधर पहुंचाने का काम भी करते हैं और कुछ की ड्यूटी आगंतुकों के स्वागत में लगी है।
छत्तीसगढ़ पुलिस के डीजीपी विश्व रंजन पुलिस कर्मियों के निराश्रित परिवारों के कल्याण के लिए चलाए जा रहे इस कार्यक्रम की सफलता से बहुत उत्साहित हैं और बताते हैं कि उनके राज्य में इस समय करीब छह सौ बाल आरक्षी हैं। बाल आरक्षियों में बहुत से ऐसे हैं जो आगे चलकर अच्छी सरकारी सेवाओं में निकल गए। उनके युवा होने तक उन्हें आधा वेतन और वे सभी सुविधाएं मिलती हैं जो एक आरक्षी को प्राप्त होती हैं। उसकी मां को पेंशन सो अलग। जानकारी पर पता चला कि छत्तीसगढ़ सरकार का पुलिस के आश्रित परिजनों के कल्याण के लिए यह अनूठा कार्यक्रम है। इसके पीछे छत्तीसगढ़ पुलिस के जो तर्क हैं उनकी कोई राजनीतिक काट भी नहीं है। कोई इसके खिलाफ बोले भी तो क्या बोले? राजनीतिक दलों के सामने उसका विरोध करने के उनके लिए खतरे ज्यादा हैं।
मध्‍यप्रदेश और छत्तीसगढ़ सरकार ने शहीद हुए या सेवा के दौरान असामयिक मृत्यु को प्राप्त हुए पुलिस वालों के परिजनों के भरण-पोषण के लिए यह नायाब रास्ता निकाला हुआ है। उस लेख में इसके जिस पक्ष पर बात हो रही थी तो वह है-बाल श्रम कानून जिसका यहां उल्लंघन हुआ है या नहीं। इस मामले में कानून का कोई उल्लंघन नहीं हो रहा है, पुलिस के अधिकारी दृढ़ता से यह बात कहते हैं। लेकिन बाल श्रम का विरोध करने वाले, मीडिया और कुछ मानवाधिकार कार्यकर्ताओं ने बाल पुलिस पर उंगली जरूर उठाई। सभी की मिली-जुली प्रतिक्रियाएं रही हैं। कुछ इसे सही मान रहे हैं तो कुछ कह रहे हैं कि जब बच्चों से श्रम कराने पर निजी क्षेत्र के प्रतिष्ठानों, दुकानदारों और यहां तक कि घरों में भी काम कराने पर कड़ी कार्रवाई का प्रावधान है तो यह पुलिस पर भी लागू होना चाहिए। लेकिन यहां श्रम का मामला नहीं है बल्कि शहीद हुए या सेवा के दौरान असामयिक मृत्यु को प्राप्त हुए पुलिस वालों के परिजनों के भरण-पोषण के लिए उठाया गया पुलिस का कदम है।
यदि पुलिस वालों और उनके परिजनों से पूछें तो वे बाल पुलिस के पूरी तरह से समर्थन में हैं और इसके विरुद्घ आवाज उठाने वालों के खिलाफ हैं। यही बात छत्तीसगढ़ सरकार कह रही है कि उसने ऐसा करके कोई गलत काम नहीं किया है बल्कि उसने मानवता और कर्त्तव्य को एक साथ खड़ा करके यह फैसला किया है। सरकार का कहना है कि जो पुलिसकर्मी शहीद हो जाते हैं या अल्पसेवा काल में उनकी असामयिक मृत्यु हो जाती है तो ऐसे में उनके परिवार के सामने भरण-पोषण का गंभीर संकट आ जाता है। ऐसी अवस्था में एक समय बाद घरवाले और रिश्तेदार भी साथ छोड़ देते हैं तब पुलिस विभाग और सरकार की जिम्मेदारी बन जाती है कि जिस पुलिसकर्मी ने कर्त्तव्य पालन में अपने प्राणों की बलि दे दी उसके परिवार के भविष्य के लिए क्या हुआ? तब विभाग और सरकार पर यह दबाव आ जाता है कि वह आश्रितों के लिए ऐसा कुछ करे जिससे इस विपदा की भरपाई हो जाए और फोर्स का मनोबल भी बना रहे।
पुलिस का तर्क है कि इससे पुलिस सेवा में आने के लिए एक क्रेज बना रहेगा, दूसरे पुलिस को उन बच्चे को अपने योग्य ढालने में भारी मदद मिलेगी। वहां के डीजीपी स्पष्ट करते हैं कि उनसे किसी भी प्रकार की कड़ी ड्यूटी नहीं ली जाती है और न उन्हें किसी सशस्त्र अभियान पर भेजा जाता है। वे अपनी पढ़ाई करते हैं और खूब खेलते-कूदते हैं। यह स्थिति देखते हुए कुछ हद तक इसे ठीक कहा जा सकता है। कम से कम उन्हें और उनके परिवार को भविष्य के प्रति निश्चिंतता तो है।यह भी नहीं है कि उसका बचपन उसकी इच्छाएं घिर रही हैं। जैसा कि अक्सर सुनने को मिलता है कि परिवार के अनाथ हो जाने के बाद उसके बच्चों की स्थिति स्वस्थ मार्गदर्शन के अभाव में भटकाव का शिकार हो जाती है। वह समाज विरोधी गतिविधियों में शामिल हो जाता है। इससे बचने के लिए यह एक अच्छा रास्ता है कि उस परिवार के बच्चे को पुलिस की नौकरी देकर उसे पढ़ाया जाए और उससे उसकी क्षमता के अनुसार कार्य भी कराया जाए जिसे वह आसानी से कर ले और अपनी पढ़ाई पर भी ध्यान दे सके।
इसके लिए प्रति माह आधा वेतन तय है। जैसे ही वह बड़ा होता है उसे उसकी योग्यतानुसार पुलिस की रेगुलर सेवा में ले लिया जाएगा। इस प्रकार वह बालक जहां अपने परिवार के भरण-पोषण का सहारा बन गया है वहीं पुलिस विभाग की आश्रितों के प्रति एक बड़ी जिम्मेदारी भी पूरी हो रही है। इसके आने वाले समय में क्या नतीजे होंगे यह तो समय ही बताएगा किंतु एक प्रश्न ऐसा है जो सभी जगह मौजूद है। सरकारी सेवकों के सेवा में रहते मृत्यु हो जाने पर केवल पुलिस विभाग में ही नहीं अपितु अन्य विभागों में काम करने वालों के आश्रितों की भी समस्या है। इस संबंध में अन्य राज्य सरकारों की जो नीति है वह पूरी तरह स्पष्ट नहीं है। सुनने को मिलता रहता है कि कहीं तो आश्रित को लाभ मिला है और कहीं नहीं। कोई भी विभाग हो सब जगह अलग-अलग नियम चल रहे हैं। नौकरियों की संख्या में कटौती करने की बात भी चल रही है इसलिए इस पर जब तक एक समग्र नीति नहीं होगी तब तक एक गतिरोध कायम रहेगा। मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ सरकार में बाल पुलिस की वैधानिक स्थिति भी मजबूत है। इसे दूसरे राज्य उदाहरण बना सकते हैं कि नहीं इस पर बहस चलती रहती है।

हिन्दी या अंग्रेजी [भाषा बदलने के लिए प्रेस F12]