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यूपी में चौराहे पर नौकरशाही!

दिनेश शर्मा

एक समय था जब कलक्टर साहब और कप्तान साहब बहादुर से शिकायत करने की बात कहने भर से जिले के दूसरे अधिकारियों, थानेदारों और कर्मचारियों के पसीने छूट जाया करते थे, मगर आज किसी पर डीएम और कप्तान तो क्या सीएम से भी शिकायत करने का असर दिखाई नहीं दे रहा है। उम्मीद नहीं थी कि वक्त जल्दी ही ऐसा पलटा खाएगा कि आज कलक्टर साहब, कप्तान साहब और दूसरे अफसरान फरियादियों की सुनवाई को छोड़ अपनी बचाने मे लग जाएंगे और अपने चपरासियों, सिपाहियों और मालियों से अपनी कुर्सी बचाने का जुगाड़ पूछने लगेंगे। उत्तर प्रदेश में सत्ताधीशों के नजदीक बने रहने और महत्वपूर्ण पदों पर बैठने की भारतीय प्रशासनिक सेवा और पुलिस सेवा के अधिकारियों की ‘महत्वाकांक्षा’ अब ऐसे ही रास्तों पर अपने संवर्ग को ले जा रही है।
जबसे उत्तर प्रदेश आइएएस एसोसिएशन ने अपने यहां ‘ईमानदारों’ और ‘
बेईमानों’ को चिन्हित करने का काम अपने हाथ में लिया है तब से आईएएस के हालात और भी खराब हो गए हैं। आज इस सेवा के लोगों की चौराहों पर चर्चा और फजीहत हो रही है। राज्य के कुछ नौकरशाहों को महाभ्रष्ट करार देकर और उनके लगातार ट्रायल के बाद अब आइएएस एसोसिएशन और आईपीएस एसोसिएशन के कुछ नेताओं को ‘ज्ञान’ प्राप्त हो रहा है कि उनका इस्तेमाल किया जा रहा है, इसलिए एसोसिएशन को अब ऐसे अभियानों से कोई वास्ता नहीं रखना चाहिए। वह कोई अदालत भी नहीं है, वह जो करती आ रही है, वो सरकार का काम है। इनका जो मुख्य काम है वह बंद है। यूपी आर्थिक बदहाली में जकड़ा हुआ है और विकास योजनाओं का क्रियान्वयन भयानक रूप से भ्रष्टाचार की चपेट में है। दशा जो भी हो देश का सर्वश्रेष्ठ कहा जाने वाला यह प्रशासनिक और पुलिस सेवा संवर्ग जन सामान्य में अपना विश्वास और इकबाल खोता ही जा रहा है। हाल की उत्तर प्रदेश आईएएस एसोसिएशन के अध्यक्ष पद की लड़ाई जिस प्रकार सड़कों पर देखी गई और दूसरे लोग इसमें मजा लेते रहे उससे इस सेवा संवर्ग की बदतर स्थिति उजागर होती है।
सत्ताधीश राजनेताओं ने भी इनकी कमजोरियां पकड़ कर इन्हें हैसियत दिखानी शुरू कर दी है। राज्य के कई नौकरशाह ऐसे हैं जो ‘राजनीतिक ट्रायल’ की चपेट में हैं और इनकी आड़ में दूसरे भी सत्ताधीशों की फुटबाल बने हुए हैं। किस-किस का नाम लें और कितने उदाहरण पेश करें? लिखने की जरूरत नहीं है। पहले इनकी सच्चाईयां खास-औ-आम को ही मालूम थीं, उन्हें अब अवाम भी जान गया है। किसी भी मामले में इनमें से कईयों के विवेकहीन, विवाद, दुराग्रह, पक्षपात और भ्रष्ट आचरण के कारण सरकारें कोर्ट-कचहरी के चक्कर लगा रही हैं। सरकार का कौन सा ऐसा फैसला है जिसको अदालतों में चुनौती नहीं मिली हुई है?
हजारों रिट याचिकाएं गवाह हैं। तिकड़मबाज नौकरशाहों के कारण यह प्रशासनिक और पुलिस अफसर आज कुर्सी पर बने रहने के लिए खुल्लमखुल्ला ‘शर्तों’ के हिसाब से चल रहा है। मुख्यमंत्री के पंचम तल पर अधिकारियों की बार-बार अदला-बदली भी इसी श्रृंखला की कड़ी मानी जाती है।
‘छोटी-बड़ी’ कुर्सी पर बैठे इनमें कई यूं तो ईमानदारी का ढोल बजाते फिर रहे हैं और उन्हें ‘मर्जी’ की कोई ‘पोस्टिंग’ नहीं चाहिए, लेकिन इसके लिए वे ‘नापाक समझौतों’ से बाहर भी नहीं हैं। इनमें से अधिकांश की यही व्यवहारिक कार्य प्रणाली है। आईएएस हों या आईपीएस, इनकी नई पीढ़ी में कुछ ने तो आते ही जैसे ‘व्यवसायिक राह’ पकड़ ली है। मगर कुछ ही ऐसे हैं जो ‘शर्तों’ से हटकर चलने की कोशिश कर रहे हैं। इस जलालत से तंग होकर कुछ तो इन सेवाओं को ही छोड़ने की सरकार से इच्छा जता चुके हैं और कुछ ऐसे हैं जो यहां से भारत सरकार में प्रतिनियुक्ति पर निकल गए पर राज्य के इन हालातों में वापस लौटना नहीं चाहते।
आईएएस एसोसिएशन और आईपीएस एसोसिएशन के नेताओं को यह सब पता है लेकिन अब उसकी ऐसे मुद्दों को उठाने में गिग्घी बंधी हुई है। जहां तक नौकरशाही में भ्रष्टाचार का सवाल है तो यूपी के कथित भ्रष्ट अधिकारियों की चर्चाएं कोई नई बात नहीं है, मगर जैसे ही नौकरशाहों की सीट बदलने की बात होती है या राज्य के मुख्य सचिव और डीजीपी की कुर्सी पर किसी की पदस्थापना का समय आता है तो एसोसिएशन के नेता सक्रिय हो जाते हैं और एक राग की तरह महाभ्रष्टों की चर्चा छेड़ देते हैं। इससे यह होता आ रहा है कि राज्य का सत्तारूढ़ नेतृत्व निर्णय लेने में असमंजस की स्थिति में चला जाता है। हर बार किसी नए मुख्यमंत्री के सत्ता संभालते ही महाभ्रष्टों के रूप में प्रायोजित नाम उछाल दिये जाते हैं।
इस बार भी ऐसा ही हुआ। इसका असर यह हुआ है कि इनमें गुटबाजी और तेज हो गई जो साफ दिख रही है। उप्र में करीब बाईस हजार सिपाहियों की भर्ती और निजाम बदलते ही उनकी बर्खास्तगी की कार्रवाई से बड़ा एवं ज्वलंत उदाहरण और क्या होगा? यह आईपीएस में गुटबाजी का ही खेल है। इस बार तो पूरा माहौल ही बदला हुआ है। यूपी की मुख्यमंत्री मायावती ने भी इन्हें निलंबित करने, इनके
खिालाफ एफआईआर और इनकी जांचें कराने की पहल कर दी है तो ये अब माफीनामें पर उतर आए हैं। नौकरशाहों में सर्वाधिक इकबाल भी मायावती का ही माना जाता है। उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने भी आईएएस-आईपीएस अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाईयां की हैं लेकिन दोनों के कार्रवाई के तरीकों और उद्देश्यों में जमीन-आसमान का अंतर देखा जा सकता है। नौकरशाहों को अपने हर मुख्यमंत्रित्व कार्यकाल में सर्वाधिक प्रतिकूल प्रविष्टि भी मायावती ने ही दी हैं। ये अलग बात है कि निजाम बदलते ही ये प्रविष्टियां और निलंबन की कार्रवाईयां अपने प्रभाव एवं संपर्कों के बल पर खत्म भी करा ली गईं। आगे भी ऐसा ही होना है। जो अधिकारी इस समय जरूरत से ज्यादा उछल रहे हैं उनकी भी फाइलें आने वाली सरकार में खंगाली जाएंगी।
देखें तो भ्रष्ट आइएएस और आइपीएस अधिकारियों के सम्बन्ध में एसोसिएशन के नेता कभी एक राय नहीं रहे। राज्य में धुआंधार तबादलों, मुख्य सचिव और कैबिनेट सचिव के समानांतर शासन और उधर पुलिस में शीर्ष पदों के लिए अंदरूनी घमासान पर भी कोई नहीं बोल रहा है। कुछ नेताओं का कहना है कि अब दोनों संवर्ग की शासन और आम जनता में छवि खराब हो रही है। सत्तारूढ़ राजनीतिक नेतृत्व भी इनके खलाफ कार्रवाई के बजाय इनका इस्तेमाल करने लगा हुआ है। इनका कहना है कि एसोसिएशन की पहल पर चिन्हित भ्रष्ट अधिकारियों के खिलाफ आज तक कोई कार्रवाई नहीं हुई बल्कि उनका इस्तेमाल हुआ और हो रहा है। यूपी की कल्याण सिंह सरकार ने भ्रष्टाचार के आरोप में एक वरिष्ठ आइएएस अधिकारी को बर्खास्त किया था मगर वह भी निजाम बदलने के कुछ समय बाद सेवा में वापस आ गया।
अपने को कुछ हद तक विवादों से दूर रखने वाले कुछ आईएएस और आइपीएस अधिकारी कह रहे हैं कि ऐसे ही किसी को भ्रष्ट को चिन्हित करना बेमानी है। कौन बेईमान और कौन ईमानदार है, यह काम सरकार का और अंतिम रूप से अदालत का है, अगर एसोसिएशन को अपने संवर्ग के छवि की इतनी ही चिंता है तो इसके लिए सरकार और अदालतें उपयुक्त प्लेटफार्म हैं। जिस प्रकार से राज्य के अन्य
संवर्गों के अधिकारियों को जांचों का सामना करना पड़ता और करना पड़ रहा है, उसी प्रकार एसोसिएशन के पास यदि किसी के खिलाफ कोई सबूत हैं तो वह उन्हें सरकार या अन्य जांच एजेंसियों को सौंपे। वैसे सरकार के पास पहले से ही भ्रष्ट अधिकारियों के खिलाफ शिकायतें और साक्ष्य मौजूद हैं, सरकार को कार्रवाई करनी चाहिए। आईएएस-आईपीएस के अंदरूनी घमासान से कोई भ्रष्ट या ईमानदार चुना जाए या न चुना जाए, हां, इतना हो रहा है कि यूपी में इन सेवाओं का जो इकबाल था वह अब संकट में जरूर है। जहां तक प्रादेशिक सेवाओं का सवाल है तो उनमें भी कोई कम लाठी-डंडे नहीं चल रहे हैं।
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का देश की नौकरशाही को यह नसीहत देना कि वह ईमानदार बने, इस बात का प्रमाण है कि देश की जनता का राजनीति के बाद नौकरशाही से किस प्रकार से विश्वास उठता जा रहा है। ऐसी ही प्रतिक्रिया प्रधानमंत्री ने देश की न्यायपालिका के बारे में की थी और चिंता प्रकट की थी कि न्यायपालिका में भ्रष्टाचार पनप रहा है। मनमोहन सिंह इससे पहले भी न्यायाधीशों के एक सम्मेलन में अपनी ऐसी ही चिंता प्रकट कर चुके हैं। न्यायपालिका में भी भ्रष्टाचार की बातें अब चौराहों पर चर्चा के रूप में सामने आती हैं। जबकि एक ऐसा वक्त था कि जजी कचहरी और हाईकोर्ट की सीमा में कदम रखने भर से ही वादकारी को न्याय मिलने का अहसास होता था। मगर आज वह इन परिसरों में प्रवेश करते हुए उतना निश्चिंत नहीं दिखता है। शायद यही कारण है कि प्रधानमंत्री ने नौकरशाही और न्यायपालिका को लेकर अपने दिल की बात देश के सामने रखी है जिसका विश्लेषण इस देश की जनता करेगी।
मनमोहन सिंह स्वयं एक नौकरशाह रह चुके हैं। उन्होंने भारतीय अर्थव्यवस्था से लेकर विश्व की अर्थव्यवस्था को अपने हाथ की रेखाओं की तरह जाना-पहचाना है। इसी दौरान उनका पाला नौकरशाही से भी पड़ा है। उन्होंने अनुभव किए होंगे कि नौकरशाही किस प्रकार से और किस राह पर चल रही है। यह उनके अनुभव से प्रकट होता है कि सौ करोड़ के भारत में देश का सर्वश्रेष्ठ कहा जाने वाला यह तंत्र अपनी साख बचा पाएगा कि नहीं। शायद इसीलिए प्रधानमंत्री के रूप में उन्हें उन सच्चाईयों का सामना करना पड़ा है जिनके कारण देश में राजनीतिक, न्यायपालिका, कार्यपालिका में भ्रष्टाचार की गहरी जड़ें नजर आई हैं। एक प्रधानमंत्री का इतना कथन ही पूरी व्यवस्था के ऊपर करारा तमाचा है कि वह देश में इन तीनों सेवाओं में भ्रष्टाचार से निराश हैं।

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