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नारी विमर्श: दशा-दिशा और समाज

डा. उषा त्यागी

डा. उषा त्यागी

वर्तमान सामाजिक संदर्भ में, नारी-विषय पर चिंतन करने पर आरम्भ में ही यह तथ्य उजागर हो जाता है कि इक्कीसवीं शताब्दी का आरम्भ ही महिला सशक्तिकरण वर्ष 2001 के रूप में हुआ। नारी विषय पर केवल चर्चा ही नहीं, वरन् ठोस एवं सार्थक कार्यक्रम भी क्रियान्वित हो रहे हैं। निर्विवाद रूप में नारी की यह विशेषता है कि वह जन्मदात्री है, सृष्टि सृजन करती है, जीवन की समूची रस-धार उसी पर आधारित है, लेकिन पाश्चात्य परम्परा एवं संस्कृति का प्रभाव, नारी संदर्भ में भारतीय समाज में भी, अब दूर से ही पहचाना जा सकता है।

देखा जाये, तो वर्तमान युग, चेतना का युग है। तकनीकी उपलब्धियों का युग है तथा प्राचीन मूल्यों में परिवर्तन कायुग है। गत शताब्दी ‘महिला जागरण का युग’ रही। 8 मार्च ‘विश्व महिला दिवस’ के रूप में मनाया जाता है। नारियों को प्रगति पथ पर प्रेरित करने हेतु राजाराम मोहन राय, महात्मा गांधी, महर्षि कर्वे ने जो महती योगदान किया, उसी कारण वर्तमान ‘नारी-संचेतना’ झंकृत हुई है। नारी पर जो बंधन/सीमा नियंत्रण थे, वह इन सबसे मुक्ति पा रही है। वर्तमान समाज में अर्थ प्रधान संस्कृति का बोलबाला है। विकास के नाम पर नारी स्वच्छंद जीवन व्यतीत कर रही है। नारी-जीवन मूल्यों में आमूल परिवर्तन हुआ है, तथा भारतीय संदर्भ में, संयुक्त परिवार की प्रथा समाप्त हो रही है। पश्चिम के अनुकरण में आज की नारी-शिक्षा, विज्ञान, विज्ञापन, कला, साहित्य के शीर्ष स्पर्श करने में लगी है। राष्ट्रीय स्तर पर राजनी‌ति में राबड़ी देवी जैसी घरेलू म‌हिलाएं और मामूली द‌लित प‌रिवार से आई  मायावती अपनी प्रभावी भूमिकाएं निभा रही हैं।
नारी-विवाह संस्था को धुरी रही है, लेकिन वर्तमान सामाजिक संदर्भ में विवाहेत्तर संबंध खुलेआम प्रदर्शित हो रहे हैं तथा उन्हें सामाजिक स्वीकार भी लिमता है। यह स्थिति बेहद खतरनाक/विस्फोटक है। पति-पत्नी के जन्म-जन्मांतर के साथ का, मिथक टूट चुका है। नारी-मानस में तत्संबंधी अर्न्तद्वन्द की स्थिति अब नहीं है, उसने अपना व्यक्तित्व प्राप्त कर लिया है। पत्नी कथा की पीड़ा और वेदना अब कम हुई है। आज की नारी-मध्यकालीन आदर्शों से भिन्न सामंती सभ्यता से विच्छिन्न हो, अपने जीवन के प्रति सजग होकर जीवनयापन करने को स्वच्छंद है।
इक्कीसवीं शताब्दी में भारतीय नारी अपनी वर्जनाओं को तोड़/लक्ष्मण रेखाओं को छोड़ अबलापन की भावना को तिलांजलि देकर विकास के सोपान चढ़ रही है। वह किरण बेदी है, तो साथ ही कल्पना चावला भी है, लेकिन इसी क्रम में वह फूलन देवी भी है। जहां-जहां, उसका दिशा बोध डगमगाया है, वहीं उसका पतन भी चरम पर पहुंचा है। लेकिन शिक्षा प्रसार के साथ-साथ नारी की जड़-मानसिकता में तीव्र परिवर्तन हुआ है।
वर्तमान समाज में नैतिकता के मापदंड बेहद लचर हो गये हैं। नारी में भी नैतिकता का भारतीय परम्परागत भाव तिरोहित हो रहा है। समय और स्थान के अनुरूप मान्यताओं में शीर्षासन होता रहा है, लेकिन प्रदर्शन/विज्ञापन की होड़ में, वर्तमान नारी स्वयं चीरहरण में लगी है। सात्विक रूचि और कलात्मकता, उदारीकरण की बयान में बह गई है। संबंधों के बीच से प्रेम और स्नेह गायब हो रहा है। नारी भी, आत्मकेन्द्रित हो रही है। भजन की स्वर लहरी, पॉप-संगीत/रिमिक्स में बदल रही है और इसी के अनुरूप बदल रहा है - आधुनिक नारी का-मूल भाव।
‘हमारे दौर का यह हादसा भी क्या कम है
कि लोग जुगनू उठा लाये हैं, हवन के लिये’
पश्चिमी सभ्यता के संक्रमण के कारण जहां नारी-जीवन में विविध बदलाव आये हैं, वहां यौन शुचिता भी संक्रमित हुई है। यथार्थ के नाम पर नग्नता को अपनाया जा रहा है। टी.वी. चैनलों पर प्रसारित धारावाहिकों का सत्य, धीरे-धीरे पूर्ण समाज का सत्य बनता जा रहा है। षड्यंत्रकारी भूमिका में नारी का चित्रांकन, दूरदर्शन के पर्दे से वास्तविक जीवन में अपने पांव पसार चुका है। निःसंदेह आज नारी को समानाधिकार प्राप्त हैं लेकिन फिर भी वह दहेज की खा
तिर, ईंधन की भांति जलाई जाती है। कदम-कदम पर तिरस्कृत/बहिष्कृत होती है। प्रख्यात साहित्यकार अमृता प्रीतम के शब्दों में-
‘...मैं नहीं मानती कि यह सभ्यता का युग है... सभ्यता का युग तब आयेगा, जब औरत की मर्जी के बिना उसका नाम भी होठों पर नहीं आयेगा, अभी तो बहुत से आशिक भी ठंडे के जोर से बनती हैं।’
विज्ञापन में नारी-देह का धड़ल्ले से प्रयोग हो रहा है। नारी का नंगापन, उसकी स्वतंत्रता का सूचक नहीं है। विज्ञापित नारी अकेली उत्तरदायी नहीं है, यदि सूक्ष्म अध्ययन किया जाये तो वर्तमान समय में भी समाज में नारी का स्थान कुछ वैसा ही है, जैसा-किसी दुकान, मकान, आभूषण अथवा चल-अचल सम्पत्ति हो। वर्तमान प्रधान समाज को अपनी सामंती सोच एवं संकीर्ण मानसिकता, सड़ी-गली व्यवस्था, रूढि़गत कुप्रथा को नारी-उत्कर्ष हेतु तिलांजलि देनी ही होगी। पुरुषों को इस प्रकार का वातावरण तैयार करना होग, जिससे नारी को एक जीवंत-मानुषी, जन्मदात्री एवं राष्ट्र की सृजनहार समझा जाये, न कि मात्र भोग्य।
वर्तमान सामाजिक संदर्भ में, नारी चर्चा करते समय, यह पंक्तियां सटीक लगती हैं-
राम भले ही पैदा हों, या ना हों मेरी नगरी में
लेकिन यहां रावण तब भी था, और अब भी है

इतिहास के पन्नों से लेकर, वर्तमान तक समूचे कालखण्ड को, नारी-संदर्भ में खंगाला जाये तो समय की सीप में जहां-जहां बहुमूल्य मोती मिलेंगे, वहीं पर समस्या/आधुनिकता के आक्टोपसी संजाल में फंसी नारी की विभिन्न मुद्राओं एवं चीखों को भी सुना जा सकता है।
भूमण्डलीकरण के दौर में नारी-स्थिति में उल्लेखनीय सुधार नहीं आया है लेकिन फिर भी ग्लैमर, फैशन, आजादी और आसमान को छूने की चाह तो बढ़ी ही है। हर 14 फरवरी को मनाया जाने वाला वैलेन्टाइन डे, परिवर्तन का प्रतीक है। टी.वी. चैनल इस आधुनिक नारी-स्वरूप को बढ़-चढ़कर दिखा रहे हैं। भूमण्डलीकरण, नारियों के लिए एक ऐसी चक्की है, जिसमें उन्हें पीसा जा रहा है। इसका एक चेहरा बेबस, गरीब नारी है, जिसकी आंखों में उसके भूखे बच्चे के प्रति उसकी वेदना समाई हुई है, तो उसका दूसरा चेहरा, उस लड़की का है- जिसका मुंह गु
स्से से तमतमाया हुआ है। भूमण्डलीकरण के दौर में नारी-स्थिति में अपेक्षित सुधार आना संभव नहीं लगता। नारी का छद्म रूप दिखाकर उन असंख्य नारियों की वेदना नहीं छिपाई जा सकती, जो गांवों में रहती हैं। नारियों का वास्तविक स्वरूप वही है, जो गांवों में अभावों से जूझती और रूढि़यों में जकड़ी नारियों में, दिखाई देता है।
लो, क्षितिज हम नाप आये
कांपती बैसाखियों से
अब बचाना ही पड़ेगा
सूर्य को संपातियों से।

वात्सल्य, स्नेह, कोमलता, दया, ममता, त्याग, बलिदान जैसे आधार पर ही सृष्टि खड़ी है। और ये सभी गुण-एक साथ नारी में समाहित हैं। नारी-प्रेम त्याग का प्रतिबिंब है। नारी के अभाव में मानव जीवन शुष्क है और समाज अपूर्ण। नारी, संसार की जननी है। मातृत्व, उसकी सबसे बड़ी साधना है। भारतीय नारी की हैसि
यत भी परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तित होती रही है। वह अपनी अस्मिता के प्रति पहले से सतर्क है। आज, नारी दोहरी भूमिका निभा रही है-गृहलक्ष्मी और राजलक्ष्मी के रूप में उसका गौरव महत्वपूर्ण है। शिक्षा एवं आर्थिक स्वतंत्रता ने नारी को नवीन चेतना दी है। पुरुष नियंत्रित समाज में नारी, आज आत्मविश्वास से लबरेज है। यदि नारी में निर्भीकता और स्पष्टवादिता है, तो वह कहीं पर भी और कभी भी कुंठाग्रस्त नहीं होती। परमुखापेक्षिता का भाव उसमें, वर्तमान में दूर तक भी दिखाई नहीं देता।
वर्तमान समय में नारी जागरण को अत्यधिक गति मिली है। विशेषतः, नगरों में सु
शिक्षित नारी में इसकी गतिविधि, अधिक दिखाई देती हैं। सामाजिक/राजनीतिक/शैक्षि/व्यवसायिक आदि तथा कला एवं साहित्य के क्षेत्र में नारी सम्मानित हुई है। समाजवादी नारी भावना का निरंतर विकास हो रहा है। वास्तव में भारत की पूरी मन=स्थिति ‘स्त्रैण’ है। इसीलिये हमारा देश कभी आक्रामक नहीं हो पाया।
आधुनिक नारी, अपने स्वाभिमान की रक्षा करनी जानती है, उसे अपनी सामाजिक सत्ता का पूर्ण भान है। उसकी दैहिक सामाजिक व आध्यात्मिक चेतना समग्र रूप में, समूची संरचना का केंद्र बिन्दु है। वर्तमान सामाजिक संदर्भ में नारी, करवट बदलते परिवेश में पारिवारिक बिखराव, मूल्यहीनता, यौन-संबंधों का मांसल सतहीपन, दिशाहीन राजनीति का प्रभाव, शोषण से मुक्ति पाने की छटपटाहट व्यक्त कर रही है, एवं धीरे-धीरे अपने इस प्रयास में सफल भी हो रही है। नारी-जीजिविषा के चलते वर्तमान सामाजिक संदर्भ में उसका अबला रूप निश्चित ही बदल चुका है, नारी-सबल हो रही है, ऊर्जावान बनी है और यह स्थिति कुल मिलाकर सुखद है।
इस प्रकार वर्तमान सामाजिक संदर्भ में, नारी की दशा और दिशा में, क्रांतिकारी परिवर्तन हुआ है, लेकिन समूचे प्रकरण में देश/काल और परम्पराओं का सम्मान बनाये रखना आवश्यक है। तभी नारी की सनातन गरिमा सुरक्षित रह सकती है। आज की नारी का संकल्प है-
मैं, बेहिसाब निर्बाध बाहें फैलाऊंगी।
मैं, भीड़ होकर नहीं/
मनुष्य होकर/
जीना चाहती हूं/ खुली हवा में/
एक-एक, सांस लेकर/

हिन्दी या अंग्रेजी [भाषा बदलने के लिए प्रेस F12]